Wednesday 13 January 2016

वनपर्व---कर्ण की दिग्विजय और दुर्योधन का वैष्णवयाग

कर्ण की दिग्विजय और दुर्योधन का वैष्णवयाग
दुर्योधन के लौट आने पर पितामह भीष्म ने उससे कहा, 'वत्स ! जब तुम द्वैतवन जाने के लिये तैयार हुए थे, उसी समय मैने तुमसे कहा था कि मुझे तुम्हारा वहाँ जाना अच्छा नहीं मालूम होता। किन्तु तुम वहाँ चले ही गये। वहाँ शत्रुओं के हाथ से तुम्हे बन्धन में पड़ना पड़ा और फिर धर्मज्ञ पाण्डवों न ही तुम्हे उनसे छुड़ाया; इससे तुम्हे लज्जा नहीं आती ? देखो, उस समय सारी सेना और तुम्हारे भी सामने ही यह सूतपुत्र गन्धर्वों से डरकर भाग गया था। उस समय तुमने महात्मा पाण्डव और दुष्टबुद्धि कर्ण का पराक्रम भी देखा ही होगा। यह कर्ण तो धनुर्वेद, शूरवीरता या धर्म में पाण्डवों के चौथाई हिस्से के बराबर भी नहीं है। अतः इस कुल की वृद्धि के लिये मैं तो पाण्डवों के साथ सन्धि कर लेना ही अच्छा समझता हूँ।' भीष्म के इस प्रकार कहने पर राजा दुर्योधन हँसकर शकुनि के साथ चल दिये। उन्हें जाते देखकर कर्ण और दुःशासनादि भी उनके पीछे हो लिये। उन्हें अपनी पूरी बात सुने बिना ही जाते देख भीष्मजी भी अपने निवास चले गये। उनके जाने पर धृतराष्ट्रपुत्र राजा दुर्योधन फिर उसी जगह आकर अपने मंत्रियों से सलाह करने लगा कि 'हमारा हित किस प्रकार हो और अब हमें क्या करना चाहये ?' इस समय कर्ण ने कहा---'राजन् ! सुनिये, मैं आपसे एक बात कहता हूँ। भीष्म सदा ही हमारी निन्दा करते रहते हैं और पाण्डवों की प्रशंसा करते हैं। आपसे द्वेष करने के कारण उनका मेरे प्रति भी द्वेष हो गया है और आपके आगे वे मेरी तरह-तरह से निन्दा करते हैं। सो मैं भीष्म के उन शब्दों को सहन नहीं कर सकता। आप मुझे सेवक, सेना और सवारी देकर पृथ्वी को विजय करने की आज्ञा दीजिये। आपकी विजय अवश्य होगी। मैं शस्त्रों की शपथ करके सच्ची प्रतिज्ञा करता हूँ। ' कर्ण के ये शब्द सुनकर दुर्योधन ने बड़े प्रेम से कहा---'वीर कर्ण ! तुम सदा ही मेरा हित करने के लिये उद्यत रहते हो। यदि तुम्हे निश्चय है कि मैं सारे शत्रुओं को परास्त कर दूँगा तो तुम जाओ और मेरे मन को शान्त करो।' दुर्योधन के ऐसा कहने पर कर्ण ने अपनी दिग्विजय-यात्रा के लिये सभी आवश्यक चीजें तैयार करने की आज्ञा दी। फिर अच्छा मुहूर्त देखकर मांगलिक द्रव्यों से स्नान कर शुभ नक्षत्र और तिथि में कूच किया। हस्तिनापुर से बड़ी भारी सेना के साथ चलकर पहले महाधनुर्धर कर्ण ने राजा द्रुपद की राजधानी को घेरा और बड़ा भीषण युद्ध करके वीर द्रुपद को अपना आश्रित बना लिया। उससे कर रूप में उसने बहुत सा सोना, चाँदी और तरह-तरह के रत्न लिये। उसके बाद जो राजा द्रुपद के अधीन थे, उन्हें जीतकर उनसे भी कर लिया। फिर वहाँ से चलकर वह उत्तर दिशा में गया और उधर के सब राजाओं को हराया। महाराज भगदत को जीतकर वह शत्रुओं से लड़ता-लड़ता हिमालय पर चढ़ गया। इस प्रकार उस ओर के सब राजाओं को जीतकर उसने नेपाल देश के राजाओं को भी परास्त किया। फिर हिमालय से नीचे आकर पूर्व की ओर धावा किया। और उस ओर के अंग, वंग, कलिंग, शुण्डिक, मिथिला, मगध , कर्कखण्ड, आवशीर आदि राज्यों को जीतकर अपने वश में किया। इसके पश्चात् उसने वत्सभूमि को जीता और फिर केवला, मृतिकावति, मोहनपत्तन, त्रिपरी और कोसला आदि पुरियों को अपने अधीन किया। इन सबको जीतकर और  इनसे कर लेकर कर्ण ने दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। उधर भी उसने अनेक महारथियों को परास्त किया। रुक्मी के साथ कर्ण का बड़ा घोर युद्ध हुआ, किन्तु अन्त में उसे भी इच्छानुसार कर देना पड़ा। फिर वह पाण्ड्य और श्रीशैल की ओर गया। वहाँ केरल, नील और वेणुदारिसुत आदि अनेकों राजाओं से कर लेकर फिर शिशुपाल के पुत्र को परास्त किया। उसके आसपास के जो राजा थे, उन्हें भी उस महावीर ने अपने अधीन कर लिया। इसके पश्चात् अवन्तिदेश के राजाओं को जीतकर सामपूर्वक वृष्णिवंशियों को अपने पक्ष में किया और पश्चिम दिशा को जीतना आरम्भ किया। उस दिशा में जाकर उसने यवन और बर्बर राजाओं से कर लिया। इस प्रकार उसने पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण---सभी दिशाओं में सारी पृथ्वी विजय कर ली। इस तरह सारी पृथ्वी को अपने वश में करके जब वह धनुर्धर वीर कर्ण हस्तिनापुर में आया तो राजा दुर्योधन ने अपने भाई, बड़े-बूढ़े और बन्धु-बानधवों के सहित अगवानी करके उसका विधिवत् सत्कार किया और बड़ी प्रसन्नता से उसकी दिग्विजय की घोषणा करायी। फिर कर्ण से कहा, 'कर्ण ! तुम्हारा मंगल हो। तुमसे मुझे वह चीज मिली है जिसे मैं भीष्म द्रोण, कृप और बाह्लीक से भी प्राप्त नहीं कर सका। वे सब-के-सब पाण्डव तथा दूसरे राजा तो तुम्हारे सोलहवें अंश की बराबरी भी नहीं कर सकते। मैने पाण्डवों का बड़ा भारी राजसूय यज्ञ देखा था; तो अब मेरी इच्छा भी राजसूय यज्ञ करने की है, तुम उसे पूरी करो।' दुर्योधन के इस प्रकार कहने पर कर्ण ने उससे कहा, 'राजन् ! इस समय सभी नृपतिगण आपके अधीन हैं। आप याचकों को बुलाकर यज्ञ की तैयारी कराइये।' तब दुर्योधन ने अपने पुरोहित को बुलाकर उनसे कहा, 'द्विजवर ! आप मेरे लिये शास्त्रानुसार विधिवत् राजसूय यज्ञ आरंभ कर दीजिये। इसकी समाप्ति पर मैं यथेष्ट दक्षिणाएँ दूँगा।'इसपर पुरोहित ने कहा, 'राजन् ! युधिष्ठिर के जीवित रहते हुए आप यह यज्ञ नहीं कर सकते। किन्तु एक दूसरा यज्ञ है, जो किसी के लिये भी निषिद्ध नहीं है। आप विधिवत् उसे ही कीजिये। उसका नाम वैष्णव यज्ञ है और यह राजसूय यज्ञ के ही जोड़ का है। उससे आपका हित होगा और वह बिना किसी विघ्न-बाधा के सम्पन्न हो जायगा।' ऋत्विजों के ऐसा कहने पर राजा दुर्योधनने कर्मचारियों को यथायोग्य आज्ञा दी तथा उन्होंने उसके आज्ञानुसार क्रमशः सारी तैयारियाँ कर दी। तब महामति विदुर एवं मंत्रियों ने दुर्योधन को सूचना दी---'राजन् ! यज्ञ की सब सामग्रियाँ तैयार हैं। सोने का बहुमूल्य हल भी बन चुका है और यज्ञ का नियत समय भी आ गया है।' यह सुनकर राजा दुर्योधन ने यज्ञ आरम्भ करने की आज्ञा दे दी। बस, यज्ञकार्य आरम्भ हो गया और दुर्योधन को शास्त्रानुसार विधिपूर्वक यज्ञ की दीक्षा दी गयी। इस समय धृतराष्ट्र, विदुर, भीष्म, द्रोण, कृप, कर्ण, शकुनि और गान्धारी---सभी को बड़ी प्रसन्नता हुई। राजाओं को निमंत्रित करने के लिये शीघ्रगामी दूत भेजे गये। वे सब तेज चलनेवाली सवारियों पर बैठकर जहाँ-तहाँ जाने लगे। उनमें से एक दूत से दुःशासन ने कहा, 'तुम शीघ्र ही द्वैतवन जाओ तथा वहाँ रहनेवाले पाण्डवों तथा ब्राह्मणों को विधिवत् यज्ञ का निमंत्रण दो।' उसने पाण्डवों के पास जाकर प्रणाम किया और उनसे कहा, 'महाराज ! नृपतिश्रेष्ठ दुर्योधन अपने पराकम से बहुत सा धन प्राप्त करके एक महायज्ञ कर रहे हैं। उसमें सम्मिलित होने के लिये जहाँ-तहाँ से बहुत से राजा आ रहे हैं। कुरुराज ने मुझे आपकी सेवा में भेजा है। महाराज दुर्योधन आपको यज्ञ के लिये निमंत्रित करते हैं। आप उनका यह अभीष्ट यज्ञ देखने की कृपा करें। ' दूत की यह बात सुनकर राजा युधिष्ठिर ने कहा, 'अपने पूर्वजों की कीर्ति बढ़ानेवाले राजा दुर्योधन महायज्ञ के द्वारा भगवान् का यजन कर रहे हैं---यह बड़ी प्रसन्नता की बात है। हम भी उसमें सम्मिलित होते; किन्तु इस समय ऐसा किसी प्रकार नहीं हो सकता, क्योंकि तेरह वर्ष तक हमें वनवास के नियम का पालन करना है।' ध्मराज की यह बात सुनकर भीमसेन ने कहा, 'तुम दुर्योधन से कह देना कि तेरह वर्ष बीतने पर जब युद्धयज्ञ में अस्त्र-शस्त्रों से प्रज्जवलित अग्नि में तुझे होमा जायगा, तभी धर्मराज युधिष्ठिर वहाँ आवेंगे।' भीम के सिवा अन्य पाण्डवों ने कुछ भी नहीं कहा। फिर दूत ने दुर्योधन के पास जाकर सब बातें ज्यों-की-त्यों सुना दी। अब अनेकों देशों के प्रधान-प्रधान पुरुष हस्तिनापुर आने लगे। धर्मज्ञ विदुर ने दुर्योधन की आज्ञा से सभी पुरुषों का यथायोग्य सत्कार किया तथा उनके इच्छानुसार खाने-पीने की सामग्री, सुगन्धित माला और तरह-तरह के वस्त्र देकर उन्हें संतुष्ट किया। राजा दुर्योधन ने सभी के लिये शास्त्रानुसार यथायोग्य निवासगृह बनवाये तथा सभी राजा और ब्राह्मणों को बहुत-सा धन देकर विदा किया। फिर वह भाइयों तथा कर्ण और शकुनि के सहित हस्तिनापुर में लौट आया।

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