Wednesday 13 January 2016

वनपर्व---जयद्रथ के द्वारा द्रौपदी का हरण

जयद्रथ के द्वारा द्रौपदी का हरण

एक समय की बात है, पाण्डवलोग द्रौपदी को अपने आश्रम पर अकेली छोड़कर द्रौपदी को आश्रम में अकेली छोड़कर पुरोहित धौम्य की आज्ञा से ब्राह्मणों के लिये आहार का प्रबंध करने वन में चले गये थे। उसी समय सिन्धु देश का राजा जयद्रथ, जो वृद्धक्षत्र का पुत्र था, विवाह की इच्छा से साल्व देश की ओर जा रहा था। वह बहुमूल्य राजसी ठाट-बाट से सजा हुआ था, उसके साथ और भी अनेकों राजा थे। उन सबके साथ वह काम्यक वन में आया। वहाँ निर्जन वन में अपने आश्रम के दरवाजे पर पाण्डवों की प्यारी पत्नी द्रौपदी खड़ी थी, जयद्रथ की दृष्टि उसपर पड़ी। वह अनुपम सुन्दरी थी। उसका श्याम शरीर एक दिव्य तेज से चमक रहा था, आश्रम के निकट वन का भाग उसकी कान्ति से प्रकाशमान हो रहा था। जयद्रथ के साथियों ने उस अनिन्द्य सुन्दरी की ओर देखकर हाथ जोड़ लिये और मन-ही-मन तर्क-वितर्क करने लगे---यह कोई अप्सरा है या देवकन्या है अथवा देवताओं की रची हुई माया है ? सिन्धुराज जयद्रथ उस सुन्दरांगी को देखकर चकित रह गया, उसके मन में बुरे विचार उठे और वह काममोहित हो गया।उसने अपने साथी राजा कोटिकास्य से कहा, 'कोटिक ! जरा जाकर पता तो लगाओ कि यह सर्वांगसुन्दरी किसकी स्त्री है। अथवा यह मनुष्य जाति की स्त्री है ही नहीं ! यदि यह मिल जाय तो मुझे विवाह की कोई आवश्यकता ही नहीं रहेगी। पूछो तो, यह किसकी है, कहाँ से आयी है और इस कँटीले जंगल में किस उद्देश्य से इसका आना हुआ है ? क्या यह मेरी सेवा स्वीकार करेगी ? इसे पाकर मैं कृतार्थ हो जाता।' सिंधुराज के वचन सुनकर कोटिक रथ से नीचे उतर पड़ा और गीदड़ जैसे व्याघ्र की स्त्री से बात करे, उसी प्रकार द्रौपदी के पास जाकर बोला---"सुन्दरि ! कदम्ब की डाली झुकाकर इसके सहारे इस आश्रमपर अकेली खड़ी हुई तू कौन है ? तुझे इस भयानक जंगल में डर नहीं लगता ? क्या तू किसी देव, यक्ष या दानव की पत्नी है ? अथवा कोई श्रेष्ठ अप्सरा या नागकन्या है ? यमराज, चन्द्रमा, वरुण और कुबेर---इनमें से तू किसी की पत्नी नहीं है ? बता, धाता, विधाता, सविता, विष्णु या इन्द्र---किसके धाम से तू यहाँ आयी है ? " मैं राजा सुरथ का पुत्र हूँ, मुझे लोग 'कोटिकास्य' कहते हैं। तथा सौवीर देश के बारह राजकुमार हाथ में ध्वजा लेकर जिनके रथ के पीछे चलते हैं और छः हजार रथी, हाथी, घोड़े, पैदलों की सेना सदा जिनका अनुसरण किया करती है , वे सौवीरनरेश राजा जयद्रथ उधर खड़े हैं; उनका नाम कभी तुम्हारे सुनने में आया होगा। इनके साथ और भी कई राजा हैं। अपना परिचय तो हमने बताया, पर तेरे विषय में अभी हम अनभिज्ञ ही हैं; अतः बता, तू किसकी पत्नी है और किसकी सुपुत्री ?" कोटिकास्य के प्रश्न करने पर द्रौपदी ने एक बार धीरे से उसकी ओर देखा और कदम्ब की डाली का सहारा छोड़कर अपनी रेशमी चादर सँभालते हुए नीची दृष्टि करके कहा---'राजकुमार ! मैने अपनी बुद्धि से विचारकर अच्छी तरह समझ लिया है कि मेरी-जैसी स्त्री को तुमसे बातचीत करना उचित नहीं है। पर यहाँ इस समय दूसरा कोई पुरुष या स्त्री नहीं है, जो तुम्हारी बात का जवाब दे सके; इसलिये बोलना पड़ा है। मैं अपने पतिव्रतधर्म का पालन करनेवाली स्त्री हूँ, सो भी इस समय अकेली हूँ; इस वन में अकेले तुम्हारे साथ कैसे बात कर सकती हूँ। परंतु मैं पहले से ही जानती हूँ कि तुम राजा सुरथ के पुत्र हो और तुम्हारा कोटिकास्य नाम है, इसलिये तुमसे अपने बन्धुओं और विख्यात वंश का परिचय दे रही हूँ। मैं राजा द्रुपद की पुत्री हूँ, मेरा नाम कृष्णा है। पाँच पाण्डवों के साथ मेरा विवाह हुआ है; वे इन्द्रप्रस्थ के रहनेवाले हैं, उनका नाम भी तुमने सुना होगा। अब तुम सब लोग अपने वाहन खोलकर यहाँ उतरो, पाण्डवों का आतिथ्य स्वीकार कर फिर अपने अभीष्ट स्थान को चले जाना। उने आने का समय हो गया है। धर्मराज अतिथियों के बड़े भक्त हैं, आपलोगों को देखकर बड़े प्रसन्न होंगे।' द्रौपदी कोटिकास्य से ऐसा कहकर अपनी पर्णकुटी में चली गयी। उसका उनलोगों पर विश्वास हो गया था, अतः उनके अतिथि-सत्कार की तैयारी में लग गयी। कोटिकास्य राजाओं के पास गया और द्रौपदी के साथ जो कुछ बात हुई थी, सब कह सुनायी। उसकी बात सुनकर दुष्ट जयद्रथ ने कहा, 'मैं स्वयं जाकर द्रौपदी को देखता हूँ।' वह अपने छः भाइयों को साथ लेकर, जैसे भेड़िया सिंह की गुफा में प्रवेश करे उसी प्रकार पाण्डवों के आश्रम में घुस आया और द्रौपदी से बोला, 'सुन्दरी ! तुम कुशल से तो हो, तुम्हारे स्वामी स्वस्थ तो हैं; तथा और जिनलोगों की तुम कुशल कामना रखती हो, वे सब भी तो सकुशल हैं न ?' द्रौपदी ने कहा---राजकुमार ! तुम स्वयं सकुशल तो हो न ? तुम्हारे राज्य, खजाना और सैनिक तो कुशल से हैं न ?' मेरे पति कुरुवंशी राजा युधिष्ठिर सकुशल हैं तथा उनके सब भाई भी कुशल से हैं। राजन् ! यह पैर धोने के लिये जल और आसन ग्रहण करो। तुम सब लोगों के जलपान के लिये अभी प्रबंध करती हूँ। जयद्रथ बोला---मेरी कुशल है ! जलपान के लिये तुम जो कुछ देना चाहती हो, सब मुझे प्राप्त हो चुका। अब तुमसे यही कहना है कि पाण्डवों के पास अब धन नहीं रहा, वे राज् से निकाल दिये गये। अब इनकी सेवा करना व्यर्थ है। इतनी भक्ति से जो तुम इनकी सेवा करती हो, उसका फल तो केवल क्लेश ही होगा। तुम इन पाण्डवों को छोड़ दो और मेरी पत्नी होकर सुख भोगो। मेरे साथ ही संपूर्ण सिन्धु और सौवीर देश का राज्य तुम्हे प्राप्त होगा---रानी बनोगी। जयद्रथ की यह बात सुनकर द्रौपदी का हृदय काँप उठा, उसकी भौंहें रोष से तन गयीं। सहसा उस स्थान से वह पीछे हट गयी। उसके इस प्रस्ताव का तिरस्कार करके द्रौपदी ने बहुत कड़ी बातें सुनायीं और बोली, 'खबरदार ! फिर कभी ऐसी बात मुँह से मत निकालना, तुझे शर्म आनी चाहिये। मेरे पति महान् यशस्वी हैं, सदा धर्म में स्थित रहनेवाले हैं, युद्ध में राक्षसों और यक्षों का मुकाबला भी कर सकते हैं। ऐसे महारथी वीरों की शान के खिलाफ ओछी बातें कहते हुए तुझे लज्जा नहीं आती ? अरे मूर्ख ! जैसे बाँस, केला और नरकुल---ये फल देकर अपना नाश कर लेते हैं, केकड़े की मादा अपनी मृत्यु के लिये ही गर्भधारण करती है, उसी प्रकार तू भी अपनी मौत के लिये ही मेरा अपहरण करना चाहता है।' जयद्रथ बोला---कृष्णे ! मैं सब जानता हूँ। मुझे खूब मालूम है कि तुम्हारे पति राजपुत्र पाण्डव कैसे हैं। परन्तु इस समय यह विभिषिका दिखाकर तुम हमें डरा नहीं सकती। हम तुम्हारी बातों में नहीं आ सकते। अब तुम्हारे सामने सिर्फ दो काम हैं---या तो सीधी तरह से हाथी या रथ पर चलकर बैठ जाओ या पाण्डवों के हार जाने पर सौबीरराज जयद्रथ से दीनापूर्वक गिड़गिड़ाते हुए कृपा की भीख माँगना। द्रौपदी ने कहा--- मेरा बल, मेरी शक्ति महान् है; किन्तु सौवीरराज की दृष्टि में मैं दुर्बल-सी प्रतीत हो रही हूँ। मुझे अपने ऊपर विश्वास है, यों जोर-जबरदस्ती करने से मैं जयद्रथ के सामने कभी दीन वचन नहीं बोल सकती। एक रथ पर एक साथ बैठकर भगवान् श्रीकृष्ण और वीरवर अर्जुन जिसकी खोज में निकलेंगे, उस द्रौपदी को देवराज इन्द्र भी हरकर नहीं ले जा सकते, बेचारे मनुष्य की तो ताकत ही क्या है ? अर्जुन जब शत्रुपक्ष के वीरों का संहार करने लगते हैं, उस समय दुश्मनों का दिल दहल जाता है; वे मेरे लिये आकर तेरी सेना को चारों ओर से घेर लेंगे और गर्मी के दिन में आग जैसे तिनकों को जलाती है वैसे ही भष्म कर डालेंगे। जिस समय तू गाण्डीव धनुष से छोड़े हुए वाणसमूहों को टिड्डियों की तरह वेग से उड़ते देखेगा और पराक्रमी वीर अर्जुन पर तेरी दृष्टि पड़ेगी, उस समय अपने इस कुकर्म को याद करके तू अपनी बुद्धि को धिक्कारेगा। अरे नीच ! जब भीम हाथ में गदा लिये दौड़ेंगे और नकुल-सहदेव क्रोधजन्य विष उगलते हुये तेरी ओर टूट पड़ेंगे, तब तुझे बड़ा पश्चाताप होगा। यदि मैने कभी मन से भी अपने पूजनीय पतियों का उल्लंघन नहीं किया---यदि मेरा अखण्ड पातिव्रत्य सुरक्षित हो, तो इस सत्य के प्रभाव से मैं आज देखूँगी कि पाण्डव तुझे जीतकर अपने वश में करके जमीन पर घसीट रहे हैं। मैं जानती हूँ तू नृशंस है, मुझे बलपूर्वक खींचकर ले जायगा; मगर इसकी भी कोई परवा नहीं। मेरे पति कुरुवंशी वीर शीघ्र ही मुझसे मिलेंगे और उनके साथ मैं इसी काम्यक वन में आकर रहूँगी। तदनन्तर द्रौपदी ने देखा कि जयद्रथ के आदमी मुझे पकड़ने आ रहे हैं। तब वह डाँटकर बोली, 'खबरदार ! मुझे कोई हाथ न लगाना ! फिर भयभीत होकर उसने अपने पुरोहित धौम्य मुनि को पुकारा। तबतक जयद्रथ ने आगे बढ़कर द्रौपदी के दुपट्टे का छोर पकड़ लिया। द्रौपदी ने उसे जोर से धक्का दिया। धक्का लगते ही पापी जयद्रथ जड़ से कटे हुए वृक्ष की भाँति जमीन पर गिर पड़ा। फिर बड़े वेग से उठकर उसने द्रौपदी का दुपट्टा पकड़ लिया और उसे जोर-जोर से खींचने लगा। द्रौपदी बारम्बार उच्छवास लेने लगी और उसने जैसे-तैसे धौम्य मुनि के चरणों में प्रणाम किया और रथ रथ पर चढ़ गयी। धौम्य बोले---जयद्रथ ! जरा क्षत्रियों के प्राचीन धर्म का तो खयाल कर। महारथी पाण्डव वीरों पर विजय पाये बिना तुझे इसे ले जाने का कोई अधिकार नहीं है। पापी ! धर्मराज आदि पाण्डवों से मुठभेड़ हो जाने पर तुझे इस नीच कर्म का फल मिलेगा---इसमें कोई संदेह नहीं है। यह कहकर धौम्य मुनि हरकर ले जायी जाती हुई राजकुमारी द्रौपदी के पीछे-पीछे पैदल सेना के बीच में होकर चलने लगे।

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