Wednesday 13 January 2016

वनपर्व---मुद्गल ऋषि की कथा

मुद्गल ऋषि की कथा
व्यासजी ने कहा---राजन् ! कुरुक्षेत्र में एक मुद्गल नाम के ऋषि रहते थे। वे बड़े धर्मात्मा और जितेन्द्रिय थे। सदा सत्य बोलते थे और किसी की भी निन्दा नहीं करते थे। अतिथियों की सेवा का उन्होंने व्रत ले रखा था, बड़े कर्मनष्ठ और तपस्वी महात्मा थे। शिल और उच्छ वृति से उनकी जीविका चलती थी। पंद्रह दिनों में एक द्रोण धान इकट्ठा कर लेते थे। उसी से 'इष्टीकृत' नामक यज्ञ करते और पंद्रहवें दिन प्रत्येक अमावस्या तथा पूर्णिमा को दशपौर्ण-मास याग किया करते थे। यज्ञों में देवता और अतिथिों को देने से जो अन्न बचता, उसी से परिवार सहित निर्वाह करते थे। घर में स्त्री, पुत्र और वे स्वयं थे। तीनों एक पक्ष में एक ही दिन भोजन करते थे। महाराज ! उनका प्रभाव ऐसा था कि प्रत्येक पर्व के दिन देवराज इन्द्र देवताओं के सहित उनके यज्ञ में साक्षात् उपस्थित होकर अपना भाग लेते थे। इस प्रकार मुनिवृति से रहना और प्रसन्नचित्त से अतिथियों को अन्न देना---यही उनके जीवन का व्रत था। किसी के प्रति द्वेष न रखकर बड़े शुद्धभाव से  दान करते थे। इसलिये वह एक द्रोण अन्न पंद्रह दिन के भीतर कभी घटता नहीं था, बराबर बढ़ता रहता था; दरवाजे पर अतिथि देखकर उस अन्न में अवश्य वृद्धि हो जाती थी। सैकड़ों विद्वान् उनमें से भोजन पाते, पर कमी नहीं आती। मुनि के इस व्रत की ख्याति बहुत दूर तक फैल चुकी थी। एक दिन उनकी कीर्तिकथा दुर्वासा मुनि के कानों में पड़ी। वे कटु वचन कहते हुए वहाँ आ पहुँचे। आते ही बोले 'विप्रवर !आपको मलूम होना चाहिये कि मैं भोजन की इच्छा से यहाँ आया हूँ।' मुद्गल ने कहा, 'मैं आपका स्वागत करता हूँ।' उन्होंने अपने भूखे अतिथि को बड़े श्रद्धा से भोजन परोसकर जिमाया। श्रद्धा से प्राप्त हुआ वह अन्न बड़ा सरस लगा; मुनि भूखे तो थे ही, सब खा गये। मुद्गल उन्हें बराबर अन्न देते रहे और वे उसे हड़प करते रहे। अन्त में उठने लगे तो कुछ जूठा अन्न बचा था, उसे अपने शरीर में लपेट लिया और जिधर से आये थे, उधर ही निकल गये। इसी प्रकार दूसरे पर्व पर भी आये और भोजन करके चले गये। मुद्गल मुनि को परिवारसहित भूखा रह जाना पड़ा। फिर वे अन्न के दानों का संग्रह करने लगे। स्त्री और पुत्र ने भी उनका साथ दिया। भूख से उनके मन में तनिक भी विकार या खेद नहीं हुआ। क्रोध, इर्ष्या या अनादर का भाव भी नहीं उठा। वे ज्यों-के-त्यों शान्त बने रहे। पर्व आने पर दुर्बासा मुनि फिर उपस्थित हुए। इसी प्रकार वे लगातार छः बार प्रत्येक पर्व पर आये। किन्तु कभी भी मुद्गल ऋषि के मन में कोई विकार नहीं देखा। हर बार उनके चित्त को शान्त और निर्मल ही पाया। इससे दुर्बासा को बड़ी प्रसन्नता हुई। मुद्गल से कहा, 'मुने ! इस संसार में तुम्हारे समान दाता कोई भी नहीं है। ईर्ष्या तो तुमको छू तक नहीं गयी है। भूख बड़े-बड़े लोगों के धार्मिक विचार हिला देती है और धैर्य हर लेती है। भोजन से ही प्राणों की रक्षा होती है। मन तो इतना चंचल है कि इसको वश में करना अत्यन्त कठिन जान पड़ता है। मन और इन्द्रियों के एकाग्रता को ही निश्चित रूप से तप कहा गया है। इन सब इन्द्रियों को काबू में रखकर भूख का कष्ट सहकर बड़े परिश्रम से प्राप्त किये हुए धन को शुद्ध हृदय से दान करना अत्यन्त कठिन है। किन्तु यह सबकुछ तुमने सिद्ध कर लिया है। तुमसे मिलकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारा अपने ऊपर अनुग्रह मानता हूँ। इन्द्रियविजय, धैर्य, दान, शम, दम, दया, सत्य और धर्म---ये सब तुममें पूर्णरूप से विद्यमान हैं। तुमने अपने शुभ कर्मों से सभी लोकों को जीत लिया, परम पद प्राप्त कर लिया है। देवता भी तुम्हारे दान की महिमा गा-गाकर उसकी सर्वत्र घोषणा करते हैं।दुर्बासा ऋषि इस प्रकार बात कर ही रहे थे कि देवताओं का एक दूत एक विमान के साथ वहाँ आ पहुँचा। उसमें दिव्य हंस और सारस जुते हुए थे और उससे दिव्य सुगंध फैल रही थी। वह देखने में बड़ा ही विचित्र और इच्छानुसार चलनेवाला था। देवदूत ने महर्षि मुद्गल से कहा---'मुने ! यह विमान आपको शुभकर्मों से प्राप्त हुआ है, इसपर बैठिये। आप सिद्ध हो चुके हैं।' देवदूत की बात सुनकर महर्षि ने उससे कहा, 'देवदूत ! सत्पुरुषों में सात पग एक साथ चलने से ही मित्रता हो जाती है, उसी मैत्री को सामने रखकर मैं आपसे कुछ पूछ रहा हूँ; उत्तर में जो सत्य और हितकर बात हो, उसे बताइये। आपकी बात सुनकर फिर अपना कर्तव्य निश्चित करूँगा। प्रश्न यह है--'स्वर्ग में क्या सुख है और क्या दोष है ?देवदूत बोला---महर्षि मुद्गल ! आपकी बुद्धि बड़ी उत्तम है। जिसको दूसरे लोग बड़ी चीज समझते हैं, वह स्वर्ग का उत्तम सुख आपके चरणों में लोट रहा है;फिर भी आप अनजान से बनकर इस संबंध में विचार करते हैं--पूछते हैं यह कैसा है। आपकी आज्ञा के अनुसार मैं बताता हूँ। स्वर्ग यहाँ से बहुत ऊपर का लोक है। बड़े उत्तम मार्ग से वहाँ जाना होता है, वहाँ के लोग सदा विमानों पर विचरा करते हैं। जिसने तप, दान या महान् यज्ञ नहीं किये हैं, अथवा असत्यवादी या नास्तिक है; उनका उस लोक में प्रवेश नहीं होता। जो लोग धर्मात्मा, जितेन्द्रिय, शम-दम से सम्पन्न और द्वेषरहित हैं तथा जिन्होंने दान-धर्म का पालन किया है, वे उसलोक में जाते हैं; इसके सिवा वे शूरवीर भी, जिनकी वीरता युद्ध में प्रमाणित हो चुकी है, स्वर्गलोक के अधिकारी हैं।वहाँ देवता, साध्य, महर्षि याम, धाम, गन्धर्व और अप्सरा---इन सब के अलग-अलग अनेकों लोक हैं, जो बड़े ही कान्तिमान्, इच्छानुसार प्राप्त होनेवाले भोगों से सम्पन्न तथा तेजस्वी हैं। स्वर्ग में तैतीस हजार योजन का एक ऊँचा पर्वत है, जिसका नाम है सुमेरुगिरि। वह पर्वत सुवर्ण का है। उसके ऊपर देवताओं के नन्दनवन आदि अनेकों सुन्दर उद्यान हैं, जो पुण्यात्माओं के विहार के स्थान हैं। यहाँ किसी को भूख-प्यास नहीं लगती, मनमें कभी उदासी नहीं आती, गर्मी और जाड़े का भय नहीं रहता और न कोई भय ही  होता है। वहाँ कोई ऐसी अशुभ वस्तु नहीं होती, जिसको देखकर घृणा हो। सब ओर मन को प्रसन्न करनेवाला सुगन्ध छायी रहती है, शीतल मन्द हवा चलती है।सब ओर मन और कानों को प्रिय लगनेवाले शब्द सुन पड़ते हैं। वहाँ कभी शोक नहीं होता, न बुढ़ापा आता है और न कोई थकावट का अनुभव होता है। स्वर्गवासियों के शरीर में तैजस तत्व की प्रधानता होती है। वे शरीर पुण्यकर्मों से ही प्राप्त होते हैं, माता-पिता के रज-वीर्य से उनकी उत्पत्ति नहीं होती। उनमें कभी पसीना नहीं निकलता। उनके कपड़े कभी मैले नहीं होते। वहाँ के दिव्य कुसुमों की माला दिव्य सुगन्ध फैलाती है, कभी कुम्हलाती नहीं। तुम्हारे सामने जो यह विमान है, ऐसे विमान वहाँ सबके पास होते हैं। वे किसी से इर्ष्या नहीं रखते, द्वेष नहीं मानते। बड़े सुख से जीवन व्यतीत करते हैं। इन देवताओं के लोकों से भी ऊपर अनेकों दिव्यलोक हैं। इनमें सबसे ऊपर ब्रह्मलोक है। वहाँ अपने कर्मों से पवित्र ऋषि-मुनि जाते हैं। वहीं ऋभु नाम के देवता भी रहते हैं, जो स्वर्गवासी देवाओं के भी पूज्य हैं। देवता भी उनकी अराधना करते हैं। उनके लोक स्वयंप्रकाश हैं, तेजस्वी हैं और सब तरह की कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं। उन्हें लोकों के ऐश्वर्य के लिये मन में ईर्ष्या नहीं होती। आहुति पर उनकी जीविका निर्भर नहीं हुआ करती। उन्हें अमृत पीने की आवश्यकता नहीं रहती। उन्के देह दिव्य ज्योतिर्मय हैं, उनका कोई विशेष आकार नहीं है। वे सुखस्वरूप हैं, सुखभोग की इच्छा उन्हें कभी नहीं होती। वे देवताओं के भी देवता एवं सनातन हैं। महाप्रलय के समय भी उनका नाश नहीं होता। हर्ष-प्रीति, सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि का उनमें अत्यन्ताभाव होता है। स्वर्ग के देवता भी उस स्थिति को प्राप्त करना चाहते हैं। वहपरा सिद्धि की अवस्था है, जो सबको सुलभ नहीं है। भोगों की इच्छा रखनेवाले तो उस सिद्धि को पा ही नहीं सकते। ये जो तैंतीस देवता हैं, उन्हीं के लोकों को मनीषी पुरुष उत्तम नियमों के आचरण से तथा विधिपूर्वक दिये हुए दान से प्राप्त करते हैं। तुमने अपने दान के प्रभाव से यह सिद्धि प्राप्त की है, अपनी तपस्या के तेज से देदीप्यमान होकर अब उसका उपभोग करो। हे विप्र ! यही स्वर्ग का सुख है और ये ही वहाँ के अनेकों प्रकार के लोक हैं। इस प्रकार अबतक तो मैने स्वर्ग के गुण बताये हैं, अब दोष भी सुनो। स्वर्ग में अपने किये हुए कर्मों का फल ही भोगा जाता है, नया कर्म नहीं किया जाता। वहाँ का भोग अपनी मूल पूँजी गँवाकर ही प्राप्त होता है। मेरी समझ में वहाँ का सबसे बड़ा दोष है कि वहाँ से एक-न-एक दिन पतन हो ही जाता है। सुखद ऐश्वर्य का उपभोग करके उससे निम्न स्थान में गिरनेवाले प्राणियों को जो असंतोष और वेदना होती है उसा वर्णन कठिन है। उनके गले की माला कुम्हला जाती है, यही स्वर्ग से गिरने की सूचना है। यह देखते ही उनके मन में भय समा जाता है--अब गिरा, अब गिरा। उनपर रजोगुण का प्रभाव पड़ता है। जब गिरने लगते हैं तो उनकी चेतना लुप्त हो जाती है, सुध-बुध नहीं रहती। ब्रह्मलोक तक जितने भी लोक हैं सबमें यह भय बना रहता है। मुद्गल बोले--ये तो आपने स्वर्ग के महान् दोष बताये। इनके अतिरिक्त जो निर्दोष लोक हो, उसका वर्णन कीजिये। देवदूत ने कहा---ब्रह्मलोक से भी ऊपर विष्णु का परम धाम है; वह शुद्ध सनातन ज्योतिर्मय लोक है, उसे परब्रह्मपद भी कहते हैं। विषयी पुरुष तो वहाँ जा ही नहीं सकते। दम्भ, लोभ, क्रोध, मोह और द्रोह से युक्त पुरुष भी वहाँ नहीं पहुँच सकते। वहाँ तो ममता और अहंकार से रहित, द्वन्दों से परे रहनेवाले, जितेन्द्रिय तथा ध्यानयोग में रहनेवाले महात्मा पुरुष ही जा सकते हैं। मुद्गल ! तुम्हारे प्रश्न के अनुसार ये सारी बातें मैने बता दीं। अब कृपा करके चलो, जल्दी चलें; देरी न करो। देवदूत की बात सुनकर उसपर मुद्गल ऋषि ने उसपर अपनी बुद्धि से विचार किया और फिर बोले ---'देवदूत ! मेरा आपको प्रणाम है, आप प्रसन्नता से पधारिये। स्वर्ग में तो बड़ा भारी दोष है; मुझे उस स्वर्ग से और वहाँ के सुख से कोई काम नहीं है। ओह ! पतन के बाद तो स्वर्गवासियों को बड़ा भारी दुःख और पश्चाताप होता होगा। इसलिये मुझे स्वर्ग नहीं चाहिये। जहाँ जाकर व्यथा और शोक से पिण्ड छूट जाय, केवल उसी स्थान का अब मैं अनुसंधान करूँगा।' ऐसा कहकर धर्मात्मा मुनि ने देवदूत को तो पहले विदा कर दिया और स्वयं पूर्ववत् शिलोच्छ-वृति से रहते हुए उत्तम रीति से शम का पालन करने लगे। उनकी दृष्टि में निंदा और स्तुति, मिट्टी का ढ़ेला या सुवर्ण---सब एक से हो गये। वे विशुद्ध ज्ञानयोग का आश्रय ले नित्य ध्यानयोग के परायण रहने लगे। ध्यान से वैराग्य का बल पाकर उन्हे उत्तम बोध प्राप्त हुआ, जिसके द्वारा उन्होंने मोक्षरूपा परम सिद्धि प्राप्त कर ली।इसलिये युधिष्ठिर ! तुम्हे भी शोक नहीं करना चाहिये। मनुष्य पर सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख आता रहता है। तेरहवें वर्ष के बाद तुम्हें अपने पिता-पितामहों का राज्य अवश्य प्राप्त होगा। अब अपने मन की चिन्ता दूर करो। भगवान् व्यास युधिष्ठिर से इस प्रकार कहकर पुनः तप करने के लिये अपने आश्रम पर चले गये।

11 comments:

  1. मुझे गर्व है आप पर महर्षि मुद्गल जी मे आपकी संतान हूँ

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  2. मै गरीब होते हुृऐ भी धनवावन हूँ जो बृाहमण कुल मे मुदगल वंश मे जन्म लिया। पवन मुदग्ल

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  3. Forgotten glory our great great ancestors!!! Ravi Sharma ( Moudgil)

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  4. Pride on my birth,that I am mudgal.

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  5. मै गरीब होते हुृऐ भी धनवावन हूँ जो बृाहमण कुल मे मुदगल वंश मे जन्म लिया।
    Nitender Mudgal.

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  6. Mahender Muddgal nam hi kafi h ..m bhi grv feel KR raha ..ek writer hu m Muddgil pr song likhha h mne
    .eshi durwasa prsang pr

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  7. नमस्कार मेरे मुद्गल भाइयो में,भी मुद्गल गोत्री हु ओर लगभग 155 मुद्गल गोत्री भाइयो से एक व्हाट्सएप्प ग्रुप में जुड़ा हु ,जहा से मुझे बहुत सी जानकारी मिली है और अपने भाई बंधु जो अलग अलग प्रान्तों में रहते है । में एक लिंक दे रहा हु वही पर अपने भाइयों के साथ जुड़े ओर अपनी मुद्गल भाइयो की शक्ति को बढ़ाये।
    आपका मोहित मनी मुद्गल 9818110733

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  8. https://chat.whatsapp.com/HF6gyIWH59k6XOLBNO292b

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  9. कृपया यहां लिंक पर जाए और व्हाट्सअप मुद्गल गोत्री ग्रुप से जुड़े।

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  10. Hamare kul guru sab se mahan hai 🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🌹🌹🌹❤❤❤❤😇😇😇

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