Sunday 24 January 2016

वनपर्व--कपटमृग का वध और सीताहरण


कपटमृग का वध और सीताहरण
रावण को आया देख मारीच सहसा उठकर खड़ा हो गया और फल-मूल आदि लाकर उसने उसका अतिथि सत्कार किया। फिर कुशल मंगल के पश्चात् पूछा, 'राक्षसराज ! ऐसी क्या आवश्यकता पड़ी जिसके लिये आपने यहाँ तक आने का कष्ट उठाया ? मुझसे यदि आपका कोई कठिन-से-कठिन कार्य भी होनेवाला हो तो उसे आप निःसंकोच बतावें और ऐसा समझें कि यह काम अब पूरा ही हो गया।' रावण क्रोध और अमर्ष में भरा हुआ था, उसने एक-एक करके राम की सारी करतूतें संक्षेप में बयान कीं। सुनकर मारीच ने कहा---'रावण ! श्रीरामचन्द्रजी के पास जाने से तुम्हारा कोई लाभ नहीं है। मैं उनका पराक्रम जानता हूँ। भला, इस जगत् में ऐसा कौन है जो उनके वाणों का वेग सह सके। उन्हीं महापुरुष के कारण आज मैं यहाँ सन्यासी बना बैठा हूँ। बदला लेने की नियत से उनके पास जाना मृत्यु के मुख में जाना है ! किस दुरात्मा ने तुम्हे ऐसा करने की सलाह दी है ?' उसकी बात सुनकर रावण के क्रोध का पारा और भी चढ़ गया। उसने डाँटकर कहा---'मारीच ! यदि तू मेरी बात नहींमानेगा तो निश्चय जान, तुझे अभी मृत्यु के मुख में जाना पड़ेगा।' मारीच ने मन-ही-मन सोचा---यदि मृत्यु नश्चित है तो श्रेष्ठ पुरुष के हाथ से ही मरना अच्छा होगा। फिर उसने पूछा, 'अच्छा बताओ, मुझे तुम्हारी क्या सहायता करनी होगी ?' रावण बोला---'तुम एक सुन्दर मृग का रूप धारण करो, जिसके सिंग रत्नमय प्रतीत हों और शरीर के रोएँ भी चित्र-विचित्र रत्नों के ही रंगवाले जान पड़ें। फिर सीता की दृष्टि जहाँ पड़ सके, ऐसी जगह खड़े होकर उसे लुभाओ। सीता तुम्हें देखते ही, पकड़ लाने के लिये अवश्य ही रामचन्द्र को तुम्हारे पास भेजेगी। उसे दूर चले जाने पर सीता को वश में करना सहज होगा। मैं उसे हरकर ले आऊँगा और ऱामचन्द्र अपनी प्यारी स्त्री के वियोग में बेसुध होकर प्राण दे देंगे। बस, तुम्हें यही सहायता करनी है।' रावण की बात सुनकर मारीच को बहुत दुःख हुआ। वह रावण के पीछे-पीछे चला। श्रीरामचन्द्रजी के आश्रम निकट पहुँचकर दोनो ने पहले की सलाह के अनुसार कार्य आरम्भ कर दिया। मृगरूप में मारीच ऐसे स्थान पर खड़ा हुआ, जहाँ से सीता उसे भली-भाँति देख सके। विधि का विधान प्रबल है; उसी की प्रेरणा से सीता ने राम को वह मृग मार लाने के लिये भेजा। श्रीरामचन्द्रजी सीता का प्रिय करने के लिये हाथ में धनुष ले स्वयं तो मृग को मारने चले और लक्ष्मण को सीता की सेवा में नियुक्त किया। उनको अपना पीछा करते देख वह मृग कभी छिपता और कभी प्रकट होता हुआ उन्हें बहुत दूर ले गया। तब भगवान् राम ने यह जानकर कि यह तो निशाचर है, उसे अपने अचूक वाण का निशाना बनाया। रामचन्द्रजी के वाण की चोट खाकर मारीच ने उनके ही स्वर में 'हा सीते ! 'हा लक्ष्मण !!' कहकर आर्तनाद किया। वह करुणामयी पुकार सुनकर सीता जिधर से आवाज आयी थी, उसी ओर दौड़ पड़ी। यह देखकर लक्ष्मण ने कहा---'माता ! डरने की कोई बात नहीं है। भला कौन ऐसा है जो भगवान् राम को मार सके। घबराओ नहीं, एक ही मुहूर्त में तुम अपने पति श्रीरामचन्द्रजी को यहाँ उपस्थित देखोगी।' लक्ष्मण की बात सुनकर सीता ने उन्हें संदेहभरी दृष्टि से देखा। यद्यपि वह साध्वी और पतिव्रता थी ,सदाचार ही उनका भूषण था; तथापि स्त्रीस्वभाववश वह लक्ष्मण के प्रति बड़े कठोर वचन कहने लगी।लक्ष्मण भगवान् राम के प्रेमी और सदाचारी थे, सीता के मर्मभेदी वचन सुनकर उन्होंने दोनो कान बन्द कर लिये और श्रीरामचन्द्रजी जिस मार्ग से गये थे , उसी से वे चल पड़े। हाथ में धनुष ले श्रीराम के चरण चिह्नों को देखते हुए वे आगे बढ़ गये। इसी अवसर पर साध्वी सीता को हर ले जाने की इच्छा से सन्यासी के वेष में रावण वहाँ उपस्थित हुआ। यति को अपने आश्रम में आया देख धर्म को जाननेवाली जनकनन्दिनी ने फल-मूल के भोजन आदि से अतिथि-सत्कार के लिये उसे निमंत्रित किया। रावण बोला, 'सीते ! मैं राक्षसों का राजा रावण हूँ, मेरा नाम सर्वत्र विख्यात है। समुद्र के पार रमणीय लंकापुरी मेरी राजधानी है। सुन्दरी ! तुम इस तपस्वी राम को छोड़कर मेरे साथ लंका में चलो। वहाँ मेरी पत्नी बनकर रहना। बहुत सी सुन्दर स्त्रियाँ तुम्हारी सेवा में रहेंगी और तुम उन सब में रानी की भाँति शोभायमान होगी।' रावण के ऐसे वचन सुनकर जानकी ने अपने दोनो कान मूँद लिये और बोली--'बस, अब ऐसी बातें मुँह से मत निकाल। आकाश से सारे तारे टूट पड़ें, पृथ्वी टूक-टूक हो जाय और अग्नि अपने उष्ण स्वभाव का त्याग कर दे तो भी मैं श्रीरामचन्द्रजी का परित्याग नहीं कर सकती।' यह कहकर वह आश्रम में ज्योंहि प्रवेश करने लगी,रावण ने दौड़कर उसे रोक लिया और बड़े कठोर स्वर में डराने-धमकाने लगा। वह 'राम' का नाम ले-लेकर रो रही थी और रावण उसे हरकर लिये जा रहा था। इसी अवस्था में एक पर्वत की गुफा में रहनेवाले गीधराज जटायु ने सीता को देखा।

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