Sunday 24 January 2016

वनपर्व---राम का वनवास, खर-दूषण आदि राक्षसों का नाश और रावण का मारीच के पास जाना

राम का वनवास, खर-दूषण आदि राक्षसों का नाश और रावण का मारीच के पास जाना
युधिष्ठिर ने पूछा--मुनिवर ! आपने श्रीरामचन्द्रजी आदि सभी भाइयों के जन्म की कथा तो सुना दी, अब मैं उनके वनवास का कारण सुनना चाहता हूँ। मार्कण्डेयजी ने कहा---अपने पुत्रों के जन्म से राजा दशरथ को बड़ी प्रसन्नता हुई। उनके वे तेजस्वी पुत्र क्रमशः बढ़ने लगे। उन्होंने उपनयन के पश्चात् विधिवत् ब्रहमचर्य का पालन किया और विधिवत् वेद तथा रहस्यसहित धनुर्वेद के पारंगत विद्वान हुए। समयानुसार जब उनका विवाह हुआ, उस मय राजाविशेष प्रसन्न और सुखी हुए। चारों पुत्रों में राम सबसे ज्येष्ठ थे; वे अपने मनोहर रूप एवं सुन्दर स्वभाव से समस्त प्रजा को आनन्दित करते थे, सबका मन उनमें रमता था। राजा दशरथ बड़े बुद्धिमान थे, उन्होंने सोचा---'अब मेरी उम्र बहुत अधिक हो गयी, अतः राम को युवराज पद पर अभिषिक्त कर देना चाहिये।' इस विषय में उन्होंने अपने मंत्रियों और धर्मज्ञ पुरोहितों से भी सलाह की। सबने राजा के इस समयोचित प्रस्ताव का अनुमोदन किया। श्रीरामचन्द्रजी के सुन्दर नेत्र कुछ-कुछ लाल थे, भुजाएँ घुटनों तक लम्बी थीं, मस्त हाथी के समान चाल थी, छाती चौड़ी और सिर पर घुँघराले काले-काले बाल थे। देह की दिव कान्ति दमकती रहती थी। युद्ध में उनका पराकरम देवराज इन्द्र से कम नहीं था। संपूर्ण प्रजा का उनमें अनुराग था। वे सभी विद्याओं में प्रवीण, जितेन्द्रिय, दुष्टों को दण्ड देनेवाले, धर्मात्मा, विद्वान, विजयी और अजेय थे। ऐसे गुणवान् तथा माता कौशल्या का आनन्द बढ़ानेवाले पुत्र को देख-देखकर राजा दशरथ प्रसन्न रहा करते थे। श्रीरामचन्द्रजी के गुणों का स्मरण करते हुए राजा दशरथ ने पुरोहित को बुलाकर कहा, 'ब्रह्मण ! आज पुष्य नक्षत्र है, रात में बड़ा पवित्र योग आनेवाला है। आप राज्याभिषेक की सामग्री एकत्र कीजिये और राम को इसकी सूचना भी दे दीजिये।' राजा की बात मंथरा ने भी सुन ली। वह ठीक समय पर कैकेयी के पास जाकर बोली---'रानी कैकेयी ! आज राजा ने तुम्हारे लिये दुर्भाग्य की घोषणा की है। कौशल्या का ही भाग्य अच्छा है कि उसके पुत्र का राज्याभिषेक हो रहा है। तुम्हारे ऐसे भाग्य कहाँ ? तुम्हारा पुत्र तो राज्य का अधिकारी ही नहीं है !' मंथरा की बात सुनकर परम सुन्दर कैकेयी एकान्त में अपने पति राजा दशरथ के पास गयी और प्रेम जताती हुई हँस-हँसकर मधुर शब्दों में बोली, 'राजन् ! आप बड़े सत्यवादी हैं; पहले जो मुझे एक वर देने को कहा था, उसे दीजिये।' राजा ने कहा, 'लो, अभी देता हूँ; तुम्हारी जो इच्छा हो, माँग लो।' कैकेयी ने राजा को वचनबद्ध करके कहा, 'आपने राम के लिये जो राज्याभिषेक का सामान तैयार कराया है, उससे भरत का अभिषेक किा जाय और राम वन में चले जायँ।कैकेयी की अप्रिय बात सुनकर राजा को बड़ा दुःख हुआ, वे मुँह से कुछ बोल सके। राम को जब मालूम हुआ कि पिताजी कैकेयी को वरदान देकर मेरा वनवास स्वीकार कर चुके हैं, तो उनके सत्य की रक्षा के लिये वे स्वयं वन की ओर चल दिये। लक्ष्मण भी हाथ में धनुष लिये भाई के पीछे हो लिये तथा सीता ने भी राम का साथ दिया। राम के वन चले जाने पर राजा दशरथ ने शरीर त्याग कर दिया। तदनन्तर कैकेयी ने भरत को ( ननिहाल से ) बुलवाया और कहा---'राजा स्वर्गवासी हो गये और राम लक्ष्मण वन में हैं; अब यह विशाल साम्राज्य निष्कण्टक हो गया है, तुम इसे ग्रहण करो।' भरत बड़े धर्मत्मा थे। वे माता की बात सुनकर बोले---'कुलघातिनी ! धन के लालच में तूने कितनी क्रूरता का काम किया है। पति की हत्या की और इस वंश का सत्यानाश कर डाला ! मेरे माथे पर कलंक का टीका लगा दिया।' यह कहकर वे फूट-फूटकर रोने लगे। उन्होंने सारी प्रजा के निकट अपनी सफाई दी कि इस षडयंत्र में मेरा बिलकुल हाथ नहीं था। फिर वे श्रीरामचन्द्रजी कोलौटा लाने की इच्छा से कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी को आगे करके शत्रुघ्न के साथ वन को चले। साथ में वशिष्ठ वामदेव आदि बहुत से ब्राह्मण और हजारों पुरवासी भी थे। चित्रकूट पर्वत पर जाकर भरत ने लक्ष्मण सहित राम को धनुष हाथ में लिये तपस्वी के वेष में देखा। भरत के अनुनय-विनय करने पर भी राम लौटने को को राजी न हुए। पिता की आज्ञा का पालन करना था, इसलिये उन्होंने भरत को ही समझा-बुझाकर वापस कर दिया। भरतजी अयोध्या न जाकर नन्दीग्राम में रहने लगे और भगवान श्रीराम की चरण-पादुका सामने रखकर राज्य का प्रबंध देखने लगे। राम ने सोचा, यदि यहाँ रहूँगा तो नगर और प्रान्त के लोग बराबर आते-जाते रहेंगे। इसलिये वे शरभंग मुनि के आश्रम के पास घोर जंगल में चले गये। शरभंग का आदरसत्कार करके वे दण्डकारण्य में जाकर गोदावरी नदी के सुरम्य तट पर रहने लगे। वहाँ से पास ही जनस्थान नामक वन का एक भाग था जिसमें 'खर' राक्षस रहता था। शूर्पनखा के कारण राम का उसके साथ वैर हो गया। श्रीरामचन्द्रजी ने वहाँ के तपस्वियों की रक्षा के लिये चौदह हजार राक्षसों का संहार किया। महाबलवान् खर और दूषण का वध करके उन्होंने उस स्थान को धर्मारण्य और निर्भय बना दिया। शूर्पनखा  के नाक और होंठ काट लिये थे, इसी के कारण यह विवाद खड़ा हुआ था। जब जनस्थान के वे सब राक्षस मारे गये तो शूर्पनखा लंका में गयी और दुःख से व्याकुल होकर रावण के चरणों पर गिर पड़ी। उसके मुख पर अब भी लोहू के दाग बने हुए थे, जो सूख गये थे। अपनी बहिन को इस विकृत दशा में देखकर रावण विह्वल हो उठा और दाँत कटकटाता हुआ सिंहासन से कूद पड़ा। उसने मंत्रियों को वहाँ ही छोड़ एकान्त में जाकर सूर्पनखा से कहा, 'कल्याणी ! बताओ तो किसने मेरी परवा न करके, मुझे अपमानित करके तुम्हारी यह दशा की है। कौन तीखा त्रिशूल लेकर अपने सारे शरीर में चुभोना चाहता है ? कौन सिंह की दाढ़ों में हाथ डालकर बेखटके खड़ा है ?' इस प्रकार बोलते हुए रावण के कान, नाक और आँख आदि छिद्रों से आग की लपटें निकलने लगीं। शूर्पनखा ने राम के पराक्रम और खर-दूषण सहित समस्त राक्षसों के संहार का सारा वृतांत कह सुनाया। उसने अपनी बहिन को शान्त्वना दी और उस समय का कर्तव्य निश्चित करके नगर की रक्षा आदि का प्रबंध कर आकाशमार्ग से उड़ा। उसने गहरे महासागर को पार किया, फिर ऊपर-ही-ऊपर गोकर्ण तीर्थ में पहुँचा। वहाँ आकर रावण अपने भूतपूर्व मंत्री मारीच से मिला, जो श्रीरामचन्द्रजी के डर से ही वहाँ छिपकर तपस्या कर रहा था।

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