Wednesday 13 January 2016

वनपर्व---भीम के हाथों जयद्रथ की दुर्गति और बन्धन तथा युधिष्ठिर की दया से छूटकर तपस्या करके उसका वर प्राप्त करना

भीम के हाथों जयद्रथ की दुर्गति और बन्धन तथा युधिष्ठिर की दया से छूटकर तपस्या करके उसका वर प्राप्त करना
भीम और अर्जुन---दोनो भाइयोंको अपने वध के लिये तुले हुए देख जयद्रथ बहुत दुःखी हुआ और घबराहट छोड़कर प्राण बचाने की इच्छा से बहुत तेजी से भागने लगा। उसे भागते देख भीम भी रथ से कूद पड़े और वेगपूर्वक दौड़कर उसकी चोटी पकड़ ली। फिर क्रोध में भरे हुए भीम ने उसे ऊपर उठाकर जमीन पर पटक दिया और खूब कचूमर निकाला। उन्होंने उसका सिर पकड़कर कई चपत लगाये। जब उसने पुनः उठने की कोशिश की तो उसे सिर पर लात जमा दी। वह बहुत रोने-चिल्लाने लगा तो भी भीमसेन दोनो घुटने टेककर उसकी छाती पर चढ़ गये और घूसों से मारने लगे। इस प्रकार बड़े जोर की मार पड़ने से जयद्रथ उसकी पीड़ा सह न सका और अचेत हो गया। फिर भी भीम का क्रोध अभी शान्त नहीं हुआ। तब अर्जुन ने उन्हें रका और कहा---'दुःशला के वैधव्य का खयाल करके महाराज ने जो आज्ञा दी थी, उसका भी तो विचार कीजिये।' भीमसेन ने कहा---इस नीच पापी ने क्लेश पाने के अयोग्य द्रौपदी को कष्ट पहुँचाया है, अतः मेरे हाथ से अब इसका जीवित रहना ठीक नहीं है। लेकिन क्या करूँ ? राजा युधिष्ठिर सदा ही दयालु बने रहते हैं और तुम भी नासमझी के कारण मेरे ऐसे कामों में बाधा पहुँचाया करते हो ? ऐसा कहकर भीम ने जयद्रथ के लम्बे-लम्बे बालों को अर्धचन्द्राकार वाण से मूँड़कर पाँच चोटियाँ रख दीं और कटु वचनों से उसका तिरस्कार करते हुए कहा---'अरे मूढ़ ! यदि तू जीवित रहना चाहता है तो मेरी बात सुन।  तू राजाओं की सभा में सदा अपने आप को दास बताया कर; यह शर्त स्वीकार हो तो तुझे जीवनदान दे सकता हूँ।'जयद्रथ ने स्वीकार लिया। वह धूल में लथपथ और अचेत सा हो गया था। वह धरती से उठने की चेष्टा करने लगा। यह देख भीम ने उसे बाँधा और उठाकर अपनेरथ पर डाल लिया। फिर अर्जुन को साथ लिये आश्रम पर युधिष्ठिर के पास आये। भीमसेन ने जयद्रथ को उसी अवस्था में धर्मराज के सामने पेश किया, वे हँस पड़े और कहा---अच्छा, अब इसे छोड़ दो।' भीम ने कहा---'द्रौपदी से भी यह बात कह देनी चाहिये, अब यह पापी पाण्डवों का दास हो चुका है।' उस समय द्रौपदी ने युधिष्ठिर की ओर देखकर भीमसेन से कहा---'आपने इसका सिर मूँड़कर पाँच चोटियाँ रख दी हैं, तथा यह महाराज की दासता भी स्वीकार कर चुका है; अतः अब इसे छोड़ देना चाहिये। जयद्रथ बंधन से मुक्त कर दिया गया। उसने विह्वल होकर राजा युधिष्ठिर को तथा वहाँ बैठे हुए सभी मुनिों को प्रणाम किया। दयालु राजा ने उसी ओर देखकर कहा---जा, 'तुझे दासभाव से मुक्त कर दिया; फिर कभी ऐसा न करना। तू स्वयं तो नीच है ही, तेरे साथी भी वैसे ही नीच हैं। तूने परायी स्त्री को अपनाने की इच्छा की ! धिक्कार है तुझे ! भला, तेरे सिवा दूसरा कौन मनुष्य इतना अधम होगा जो ऐसा खोटा कर्म करे। जयद्रथ ! जा, अब कभी पाप में मन न लगाना; अपने रथ, घोड़े और पैदल---सब साथ लिये जा। युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर जयद्रथ बहुत लज्जित हुआ। वह मुँह नीचा किये हुये चला गया। पाण्डवों से पराजित और अपमानित होने के कारण उसे महान् दुःख हुआ, अतः अपने निवासस्थान को न जाकर वह हरद्वार चला गया। वहाँ भगवान् शंकर की शरण होकर उसने बहुत कड़ी तपस्या की। शिवजी उसपर प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रत्यक्ष प्रकट होकर उसकी पूजा स्वीकार की और स्वयं वर माँगने को कहा। जयद्रथ ने कहा---'मैं युद्ध में रथ सहित पाँचों पाण्डवों को जीत लूँ, यही वरदान दीजिये।' भगवान् शंकर बोले---'ऐसा नहीं हो सकता। पाण्डवों को न कोई युद्ध में जीत सकता है और न मर ही सकता है। केवल एक दिन तुम अर्जुन को छोड़ शेष चार पाण्डवों को युद्ध में पीछे हटा सकते हो। अर्जुन पर तुम्हारा वश इसलिये नहीं चलेगा कि वे देवताओं के स्वामी नर के अवतार हैं, जिन्होंने बदरीकाश्रम में भगवान नारायण के साथ तपस्या की है। उन्हें तो सारा विश्व भी नहीं जीत सकता, देवताओं के लिये भी वे अजेय हैं। मैने उन्हें पाशुपत नामक दिव्य वाण दिया है, जिसकी तुलना का कोई अस्त्र है ही नहीं। इसी प्रकार उन्होंने अन्य लोकपालों से भी वज्र आदि महान् अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किये हैं। इस समय दुष्टों का नाश और धर्म की रक्षा करने के लिये भगवान् विष्णु ने यदुवंश में अवतार लिया है। उन्हीं को लोग श्रीकृष्ण कहते हैं। वे अनादि, अनन्त, अजन्मा परमेश्वर ही वक्षःस्थल पर श्रीवत्स चिह्न और अंगों पर सुन्दर पीताम्बर धारण किये श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण के रूप में सदा अर्जुन की रक्षा करते हैं। इसलिये अर्जुन को देवता भी नहीं हरा सकते; फिर मनुष्यों में कौन ऐसा है, जो उन्हें जीत सकेगा।'  ऐसा कहकर पार्वती सहित भगवान् शंकर वहाँ से अन्तर्धान हो गये और मन्दबुद्धि राा जयद्रथ अपने घर को चला गया। पाण्डवलोग उसी काम्यकवन में निवास करते रहे।

No comments:

Post a Comment