Friday 15 January 2016

वनपर्व---श्रीराम आदि का जन्म, कुबेर तथा रावण आदि की उत्पत्ति, तपस्या और वरप्राप्ति


श्रीराम आदि का जन्म, कुबेर तथा रावण आदि की उत्पत्ति, तपस्या और वरप्राप्ति

जयद्रथ को जीतकर उसके हाथ से द्रौपदी को छुड़ा लेने के पश्चात् धर्मराज युधिष्ठिर मुनि मण्डली के साथ बैठे थे। महर्षिलोग भी पाण्डवों पर आये हुए संकट के कारण बारम्बार शोक प्रकट कर रहे थे। उनमें से मार्कण्डेयजी को लक्ष्य करके युधिष्ठिर ने कहा---'भगवन् ! आप भूत, भविष्य और वर्तमान सबकुछ जानते हैं। देवर्षियों में भी आपका नाम विख्यात है। आपसे मैं अपने हृदय का एक संदेह पूछता हूँ, उसका निवारण कीजिये। यह सौभाग्यशालिनी द्रुपदकुमारी यज्ञ की वेदी से प्रकट हुई है, इसे गर्भवास का कष्ट नहीं सहना पड़ा है। महात्मा पाण्डु का पुत्रवधू होने का गौरव भी इसे मिला है। इसने कभी कभी पाप या निन्दित कर्म नहीं किया है। यह धर्म का तत्व जानती और उसका पालन करती है। ऐसी स्त्री का भी पापी जयद्रथ ने अपहरण किया। यह अपमान हमें देखना पड़ा। सगे-संबंधियों से दूर जंगल में रहकर हम तरह-तरह के कष्ट भोग रहे हैं। अतः पूछते हैं---आपने हमारे समान मन्दभाग्य पुरुष इस जगत् में कोई और देखा या सुना है ?'
मार्कण्डेयजी बोले---राजन् ! श्रीरामचन्द्रजी को भी वनवास और स्त्रीवियोग का महान् कष्ट भोगना पड़ा है। राक्षसराज दुरात्मा रावण मायाजाल बिछाकर आश्रम पर से श्रीरामचन्द्रजी की पत्नी सीता को हर ले गया था। जटायु ने उसके कार्य में विघ्न खड़ा किया तो उसने उसको मार डाला। फिर श्रीरामचन्द्रजी  सुग्रीव की सहायता से समुद्र पर पुल बाँधकर लंका में गये और अपने तीखे वाणों से लंका को भष्म कर सीता को वापस लाये। युधिष्ठिरने पूछा---मुनिवर ! मैं पुण्यकर्मा श्रीरामचन्द्रजी का चरित्र कुछ विस्तार के साथ सुनना चाहता हूँ।मार्कण्डेयजी बोले---इक्ष्वाकु के वंश में एक अज नाम के राजा हुये थे। उनके पुत्र थे---दशरथ, जो बड़े ही पवित्र आचरणवाले और स्वाध्यायशील थे। दशरथ के धर्म और अर्थ का तत्व जाननेवाले चार पुत्र हुए। राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। राम की माता कौशल्या थी और भरत की कैकेयी, तथा लक्ष्मण और शत्रुघ्न सुमित्रा के पुत्र थे। विदेह देश के राजा जनक की एक पुत्री थी, जिसका नाम था सीता। उसे स्वयं विधाता ने ही श्रीरामचन्द्रजी की प्यारी रानी होने के लिये रचा था। इस प्रकार यह मैने राम और सीता के जन्म का वृतांत बताया है। अब रावण के जन्म की कथा सुनो। संपूर्ण जगत् की सृष्टि करनेवाले स्वायम्भू ब्रह्माजी रावण के पितामह थे। उनके परमप्रिय मानसपुत्र पुलस्त्यजी थे। पुलस्त्यजी की पत्नी का नाम था गौ; उससे वैश्रवण ( कुबेर ) नाम का पुत्र हुआ। वह पिता को छोड़कर पितामह की सेवा में रहने लगा। इससे पुलस्त्य को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने (योगबल) से अपने आप को ही दूसरे शरीर से प्रकट किया। इस प्रकार आधे शरीर से रुपान्तर धारण कर पुलस्त्यजी विश्रवा नाम से विख्यात हुए। वे वैश्रवण पर सदा कुपित रहा करते थे। किन्तु बरह्माजी उसपर प्रसन्न थे; इसलिये उन्होंने उसको अमरत्व प्रदान किया, धन का स्वामी एवं लोकपाल बनाया, महादेवजी से उसकी मित्रता करायी और नलकबूतर नामक पुत्र प्रदान किया। उन्होंने राक्षसों से भरी लंका को कुबेर की राजधानी बनाया और उन्हें इच्छानुसार विचरनेवाला एक पुष्पक नाम का विमान दिया। इतना ही नहीं, ब्रह्माजी ने कुबेर को यक्षों का स्वामी बना दिया और उसे 'राजराज' की उपाधि भी दी। पुलस्त्य के आधे देह से जो  'विश्रवा' नामक मुनि प्रकट हुए थे, वे कुबेर को कुपित दृष्टि से देखने लगे।
 राक्षसों के स्वामी कुबेर को यह बात मालूम हो गयी कि मेरे पिता मुझपर नाराज हैं; अतः वे उन्हें प्रसन्न रखने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने तीन राक्षस कन्याओं को पिता की सेवा में नियुक्त किया। वे बड़ी सुन्दरी और नाचने-गाने में निपुण थीं। तीनों ही अपना भला चाहती थीं, इसलिये एक-दूसरी से लाग-डाँट रखकर सदा महात्मा विश्रवा को संतुष्ट रखने का प्रयत्न किया करती थीं। उनके नाम थे---पुष्पोत्कटा, राका और मालिनी। मुनि उनकी सेवाओं से प्रसन्न हो गये और प्रत्येक को लोकपालों के समान पराक्रमी पुत्र होने का वरदान दिया।पुष्पोत्कटा के दो पुत्र हुए---रावण और कुम्भकर्ण। इस पृथ्वी पर इनके समान बलवान् दूसरा कोई नहीं था। मालिनी से एक पुत्र विभीषण का जन्म हुआ। राका से एक पुत्र और एक पुत्री हुई। पुत्र का नाम खर था और पुत्री का नाम शूर्पणखा। विभीषण इन सब में अधिक सुन्दर, भाग्यशाली, धर्मरक्षक और सत्कर्मकुशल था। रावण के दस मुख थे, वह सबसे ज्येष्ठ था।उत्साह, बल और पराक्रम में भी वह महान् था। शारीरिक बल में कुम्भकरण सबसे बढ़ा-चढ़ा था। मायावी और रणकुशल तो था ही, देखने में भी बड़ा भयंकर था। खर का पराक्रम धनुर्विद्या में बढ़ा हुआ था। शूर्पणखा की आकृति बड़ी भयानक थी। एक दिन कुबेर महान् समृद्धि से युक्त हो पिता के साथ बैठे थे; रावण आदिने जब उनका यह वैभव देखा तो उनके मन में डाह पैदा हुई। उन सबने तपस्या करने का निश्चय किया। ब्रह्माजी को संतुष्ट करने के लिये उन्होंने घोर तपस्या आरम्भ की। रावण एक पैर से खड़ा हो पंचाग्नि तापता हुआ वायु के आहार पर रहकर एकाग्र चित्त से एक हजार वर्ष तक तपस्या करता रहा। कुम्भकरण ने भी आहार का संयम किया। वह भूमि पर सोता और कठोर नियमों का पालन करता था। विभीषण कवल एक सूखा पत्ता खाकर रहते थे। उनका भी उपवास में ही प्रेम था। कुम्भकर्ण और विभीषण ने भी उतने ही वर्षों तक कठोर तप किया। खर और शूर्पनखा---ये दोनो तपस्या में लगे हुए अपने भाइयों की प्रसन्न चित्त से सेवा करते थे। एक हजार वर्ष पूरे होने पर रावण ने अपने मस्तक काट-काटकर अग्नि में उनकी आहुति दे दी। उसके इस अद्भुत कर्म से ब्रह्माजी बहुत संतुष्ट हुए। उन्होंने स्वयं जाकर उन सबको तपस्या करने से रोका और सबको पृथक्-पृथक् वरदान का लोभ दिखाते हुए कहा, 'पुत्रों ! मैं तुम सबपर प्रसन्न हूँ, वर माँगो और तप से निवृत हो जाओ।
एक अमरत्व छोड़कर जो इच्छा हो, माँग ले; वह पूर्ण होगी। ( फिर रावण की ओर लक्ष्य करके कहा--- ) 'तुमने महत्वपूर्ण पद प्राप्त करने की इच्छा से अपने जिन मस्तकों की आहुति दी है, वे सब पूर्ववत् तुम्हारे शरीर में जुड़ जायेंगे। तुम इच्छानुसार रूप धारण कर सकोगे तथा युद्ध में शत्रुओं पर विजयी होगे---इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। रावण बोला---गन्धर्व, देवता, असुर, यक्ष, राक्षस, सर्प, किन्नर तथा भूतों से कभी मेरी पराजय न हो। ब्रह्माजी ने कहा---तुमने जिन लोगों का नाम लिया है, इनमें से किसी से भी तुम्हे भय नहीं होगा। केवल मनुष्य से हो सकता है। उनके ऐसा कहने पर रावण बहुत प्रसन्न हुआ।उसने सोचा---मनुष्य मेरा क्या कर लेंगे, मैं तो उनका भक्षण करनेवाला हूँ। इसके बाद ब्रह्माजी ने कुम्भकरण से वरदान माँगने को कहा। उसकी बुद्धि मोह से ग्रस्त थी, इसलिेये उसने अधिक काल तक नींद लेने का वरदान माँगा।  ब्रह्माजी उसे 'तथास्तु' कहकर विभीषण के पास गये और बारम्बार कहा---'बेटा ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, तुम भी वर माँगो।' विभीषण बोेले---भगवन् ! बहुत बड़ा संकट आने पर भी कभी मेरे मन में पाप का विचार न उठे तथा बिना सीखे ही मेरे हृदय में 'ब्रह्मास्त्र के प्रयोग की विधि' स्फुरित हो जाय। ब्रह्माजी ने कहा---राक्षस योनि में जन्म लेकर भी तुम्हारा मन अधर्म में नहीं लगा है, इसलिये मैं तुम्हे 'अमर होने' का भी वर दे रहा हूँ। इस प्रकार वरदान प्राप्त कर लेने पर रावण ने सबसे पहले लंका पर ही चढ़ाई की और कुबेर को युद्ध में जीतकर लंका से बाहर कर दिया। भगवान् कुबेर लंका छोड़कर कुबेर, यक्ष, राक्षस और किन्नरों के साथ गन्धमादन पर आकर रहने लगे। रावण ने उनका पुष्पक विमान भी छीन लिया। इससे रुष्ट होकर कुबेर ने शाप दिया कि 'यह विमान तुम्हारी सवारी में नहीं आ सकता; जो युद्ध में तुम्हे मार डालेगा, उसी को यह वहन करेगा। मैं तुम्हारा बड़ा भाई और मान्य था, फिर भी तुमने मेरा अपमान किया है; इसका फल यह होगा कि बहुत जल्द तुम्हारा नाश हो जायगा।' विभीषण धर्मात्मा था, वह सत्पुरुषों के धर्म का विचार करके सदा कुबेर का अनुसरण किया करता था। इससे प्रसन्न होकर कुबेर ने अपने भाई विभीषण को यक्ष और राक्षों की सेना का सेनापति बना दिया। इधर, मनुष्यभक्षी राक्षस और महाबलीपिशाचों ने मिलकर रावण को अपना राजा बना लिया।
दशानन बड़ा उत्कट बलवान् था; उसने चढ़ाई करके दैत्यों औरदेवताओं के पास जितने रत्न थे, सबका अपहरण कर लिया। सारे संसार को रुलाने के कारण उसका 'रावण' नाम सार्थक हआ। देवताओं को तो वह सदा भयभीत किये रहता था।

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