Wednesday 13 January 2016

वनपर्व---दुर्योधन के द्वारा दुर्बासा का आतिथ्य-सत्कार और वरदान पाना

दुर्योधन के द्वारा दुर्बासा का आतिथ्य-सत्कार और वरदान पाना
जिस समय महात्मा पाण्डव वन में निवास कर ऋषि-मुनियों के साथ अत्यन्त विचित्र कथा वार्ताएँ सुनते हुए अपना समय आनन्दपूर्वक व्यतीत कर रहे थे उस समय दुःशासन, कर्ण और शकुनि की राय से चलनेवाले पापाचारी दुर्योधन आदि ने यह सुना कि पाण्डवलोग तो वन में भी उसी प्रकार आनन्द से रहते हैं, जैसे नगर के निवासी रहा करते हैं, तो उनकी बुराई करने का विचार किया। इसी बीच में महान यशस्वी महर्षि दुर्बासाजी अपने दस हजार शिष्यों के साथ लिये हुए वहाँ आ गये। परम क्रोधी दुर्बासा ऋषि को घर पर पधारा देख दुर्योधन बहुत विनय दिखाता हुआ भाइयोंसहित उनके पास गया और नम्रतापूर्वक उन्हें अतिथिसत्कार के लिये निमंत्रित किया। बड़ी विधि से उनकी पूजा की और स्वयं दास की भाँति उनकी सेवा में खड़ा रहा। दुर्बासाजी कई दिन वहाँ ठहरे रहे। दुर्योधन आलस्य छोड़कर रातदिन उनकी सेवा करता रहा। भक्तिभाव के कारण नहीं, उनके शाप से डरकर वह सेवा करता था। मुनि का भी स्वभाव विचित्र था। कभी कहते--'मुझे भूख लगी है, राजन् ! शीघ्र भोजन तैयार कराओ।' ऐसा कहकर नहाने चले जाते और लौटते खूब देर कर। आनेपर कहते 'आज तो बिलकुल भूख नहीं है, नहीं खाऊँगा।' यह कहकर दृष्टि से ओझल हो जाते। इस प्रकार का वर्ताव उन्होंने बारंबार किया तो भी दुर्योधन के हृदय में न कोई विकार हुआ न क्रोध ही। इससे दुर्बासाजी प्रसन्न हो गये और बोले--'मैं तुम्हे वर देना चाहता हूँ; जो इच्छा हो माँग लो।' दुर्बासा की यह बात सुनकर दुर्योधन ने मन-ही-मन ऐसा समझा मानो उसका नया जन्म हुआ है ! मुनि संतुष्ट हों तो उनसे क्या माँगना चाहिये---इस बात के लिये कर्ण दुःशासन आदि के साथ पहले ही सलाह हो चुकी थी। जब मुनि ने वर माँगने को कहा तो उसने बड़े प्रसन्न होकर यह वरदान माँगा। 'ब्रह्मन् ! हमारे कुल में सबसे बड़े हैं युधिष्ठिर। वे इस समय अपने भाइयों के साथ वन में निवास करते हैं। बड़े गुणवान् और सुशील हैं। जैसे अपने शिष्यों के साथ आप आज हमारे अतिथि हुए हैं, उसी प्रकार उनके भी अतिथि होइए। यदि आपकी मुझपर कृपा हो तो मेरी एक और प्रार्थना पर ध्यान रखकर जाइयेगा। जिस समय राजकुमारी द्रौपदी सब ब्राह्मणों और अपने पतियों को भोजन कराकर स्वयं भी भोजन करने के पश्चात् विश्राम कर रही हो, उस समय आप वहाँ पधारें।' 'तुमपर प्रेम होने के कारण मैं ऐसा करूँगा।' यही कहकर दुर्बासाजी जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। दुर्योधन ने समझा 'अब मैने बाजी मार ली।' उसने प्रसन्न होकर कर्ण से हाथ मिलाया। कर्ण ने भी कहा--बड़े सौभाग्य की बात है; अब तो काम बन गया। राजन् ! तुम्हारी इच्छा पूरी हुई और तुम्हारे शत्रु दुःख के महासागर में डूब गये--यह सब कितने आनन्द की बात है।

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