व्यासजी का युधिष्ठिर
के पास आना और उन्हें तप और उन्हें तप एवं दान का महत्व बताना
वन में रहते हुए महात्मा
पाण्डवों के ग्यारह वर्ष बड़े कष्ट से बीते। वे फल-मूल खाकर रहते थे। सुःख भोगने के
योग्य होकर भी महान् दुःख सहते थे। एक समय की बात है, सत्वतीनन्दन व्यासजी पाण्डवों
को वहाँ देखने के लिये आये। उन्हें आते देख युधिष्ठिर आगे बढ़कर बड़े सत्कार के साथ लिवा
लाये। उन्हें आदरपूर्वक एक स्थान पर बैठाया और स्वयं विनयपूर्वक उनके पास ही बैठ गये।
अपने पौत्रों को वनवास के कष्ट से दुर्बल एवं जंगली फल-फूल खाकर जीवन निर्वाह करते
देख व्यासजी की आँखों में आँसू भर आये। वे गद्गद् कण्ठ से बोले---'महाबाहु युधिष्ठिर
! सुनो, संसार में तपस्या के बिना किसी को भी उच्च कोटि का सुख नहीं मिलता। ऐसी कोई
वस्तु नहीं है जो तपस्या से न मिल सके। सत्य, सरलता, क्रोध का अभाव, देवता और अतिथिों
को देकर अन्नादि ग्रहण करना, इन्द्रियों और मन को वश में रखना, दूसरों के दोष न देखना,
किसी जीव की हिंसा न करना, बाहर-भीतर की पवित्रता रखना---ये सतगुण मनुष्य को पवित्र
करनेवाले हैं। जो लोग इन धर्मों का पालन न कर अधर्म में रुचि रखते हैं वे कभी सुख नहीं
पाते।युधिष्ठिर ने पूछा---महामुने ! दान और तपस्या में किसका फल अधिक है ? और इन तीनों
में कौन कठिन है ? व्यासजी ने कहा---राजन् ! दान से बढ़कर कठिन कार्य इस पृथ्वी पर दूसरा
कोई नहीं है। लोगों का धन का लोभ विशेष होता है, धन मिलता भी बड़े कष्ट से है। उत्साही
मनुष्य धन के लिये अपने प्यारे प्राणों का भी मोह छोड़कर जंगलों में भटकते हैं, समुद्र
में गोते लगाते हैं। कोई खेती करते हैं और कोई दूसरे की दासता भी स्वीकार कर लेते हैं।
इस प्रकार कष्ट सहकर कमाये हुए धन का त्याग करना बड़ा कठिन होता है। अतः दान से दुःष्कर
कोई कार्य नहीं है।उसमें भी यदि धन न्याय से कमाया गया हो और उत्तम देश, काल तथा पात्र
का विचार करके उसका दान दिा जाय तो उसे और भी अधिक महत्व समझना चाहिये। अन्यायपूर्वक
प्राप्त किेये हुए धन से जो दान-धर्म किया जाता है, वह कर्ता की महान् भय से रक्षा
नहीं करता। युधिष्ठिर ! यदि अच्छे समय पर शुद्धभाव से सत्पात्र को थोड़ा भी दान दिया
जाय तो उसका परलोक में अनन्त फल होता है।इस विषय में जानकार लोग एक पुराने इतिहास का
उदाहरण दिया करते हैं कि मुद्गल ऋषि ने एक द्रोण ( एक माप जो करीब पंद्रह किलो ) धान
का दान करके महान् फल प्राप्त किया था।
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