पाण्डवों द्वारा द्रौपदी
की रक्षा और जयद्रथ की पराजय
जब पाण्डव वन में से
आश्रम की ओर लौट रहे थे, उस समय एक गीदड़ बड़े जोर से रोता हुआ उनके वाम भाग से निकल
गया। इस अपशगुन पर विचार कर राजा युधिष्ठिर ने भीम और अर्जुन से कहा---'यह गीदड़ हमलोगों
के बायीं ओर आकर जो रोता है, इससे स्पष्ट जान पड़ता है कि पापी कौरवों ने यहाँ आकर कोई
महान् उपद्रव किया है।' इस प्रकार बातें करते हुये जब वे आश्रम पर आये तो देखते हैं
कि उनकी प्रिया द्रौपदी की दासी धात्रेयिका रो रही है। उसे उस अवस्था में देख इन्द्रसेन
सारथि रथ से उतर पड़ा और दौड़ते हुए उसके पास जाकर बोला---'तू इस तरह धरती पर पड़ी-पड़ी
क्यों रो रही है ? तेरा मुँह सूखा हुआ है, दीन हो रहा है। उन पापी कौरवों ने यहाँ आकर
राजकुमारी द्रौपदी को कोई कष्ट तो नहीं दिया ?'
दायी बोली--- इन्द्र के समान पराक्रमी इन पाँचों पाण्डवों
का अपमान करके जयद्रथ द्रौपदी को हर ले गया है। देखो, अभी उसके रथ की लीकें और सैनिकों
के पैरों के चिह्न नये बने हुए हैं। अभी राजकुमारी दूर नहीं गयी होगी; जल्दी रथ लौटाओ
और जयद्रथ का पीछा करो। अब यहाँ अधिक देर नहीं होनी चाहिये। पाण्डव बारम्बार क्रुद्ध सर्प की भाँति फुफकार छोड़ते और अपने
धनुष का टंकार करते हुए उसी मार्ग से चले। कुछ ही दूर जाने पर जयद्रथ की फौज के घोड़ों
की टापों से उड़ती हुई धूल दीख पड़ी। उन्होंने पैदल सेना के बीच में जाते हुए धौम्य मुनि
को भी देखा, जो भीम को पुकार रहे थे। पाण्डवों ने मुनि को आश्वासन दिया कि 'अब आप सुखपूर्वक
चलिये।' फिर जब उन्होंने एक ही रथ में अपनी प्रियतमा द्रौपदी और जयद्रथ को बैठे देखा
तो उनकी क्रोधाग्नि प्रज्जवलित हो उठी। फिर तो भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव---सबने जयद्रथ
को ललकारा। पाण्डवों को आया देख शत्रुओं के होश उड़ गये। पैदल सेना तो बहुत डर गयी,
हाथ जोड़ने लगी। पाण्डवों ने उसे तो छोड़ दिया;
किन्तु शेष जो सेना थी, उसे सब ओर से घेरकर इतनी वाणवर्षा की कि अन्धकार सा
छा गया। तब सिन्धुराज ने अपने साथ के राजाओं को उत्साहित करते हुए कहा--- 'शत्रुओं
के मुकाबले में डटकर खड़े हो जाओ; दौड़ो, मारो।' फिर उस युद्ध में महान् कोलाहल आरम्भ
हो गया। शिबि, सौवीर और सिन्धु देशों के सैनिक महाबलवान् व्याघ्र के समान भीम-अर्जुन
जैसे उत्कट वीरों को देखकर दहल उठे, उन्हें बड़ा विषाद होने लगा। भीम पर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा होने लगी, किन्तु वे विचलित नहीं हुए।
उन्होंने जयद्रथ की सेना के अग्रभाग में स्थित सवार सहित एक हाथी और चौदह पैदलों को
गदा से मार डाला। अर्जुन ने पाँच सौ महारथी वीरों का संहार किया। युधिष्ठिर ने सौ योद्धाओं
का नाश किया। नकुल हाथ में तलवार ले रथ से नीचे कूद पड़ा और शत्रुओं के मस्तक काटकरइस
भाँति बिखेर दिये, जैसे बीज बो रहा हो। सहदेव ने अपना रथ हाथी-सवारों से भिड़ा दिया
जैसे कोई शिकारी पेड़ पर बैठे हुए मोरों को मार-मारकर गिरावे उसी प्रकार वाणों से उन्हें
गिराने लगा। इतने
में त्रिगर्त देश का राजा धनुष लेकर अपने विशाल रथ से नीचे उतर पड़ा और गदा के प्रहार
से राजा युधिष्ठिर के चारों घोड़ों को मार डाला। उसको अपने निकट आया देख राजा युधिष्ठिर
ने अर्धचन्द्राकार बाण से उसकी छाती को चीर डाला। इससे वह रक्त वमन करता हुआ गिरकर
मर गया। घोड़े मर जाने से युधिष्ठिर अपने सारथी इन्द्रसेन के साथ रथ से उतरकर सहदेव
के विशाल रथ पर बैठ गये।भीमसेन ने देखा मेरे ऊपर राजा कोटिकास्य चढ़ा आ रहा है; उन्होंने
छुरा मारकर अपने सारथी का मस्तक काट लिया, किन्तु उसे पता तक न चला। सारथी के मरने
से उसके घोड़े रणभूमि में इधर-उधर भागने लगे। कोटिकास्य को विमुख होकर भागते देख भीम
ने प्रास नामक शस्त्र से उसे मार डाला। अर्जुन ने अपने तीखे वाणों से सौवीर देश के
बारह राजाओं के धनुष और मस्तक काट लिये।उन्होंने शिबि और इक्ष्वासु वंश के राजाओं तथा
त्रिगर्त और सिन्धु देशों के नृपतियों का भी संहार किया। इन सब वीरों के मारे जाने
पर जयद्रथ बहुत डर गया। उसने द्रौपदी को नीचे उतार दिया और स्वयं प्राण बचाने के लिये
वन की ओर भाग गया। धर्मराज ने देखा कि धौम्य को आगे करके द्रौपदी आ रही है तो सहदेव
के द्वारा उसे रथ पर चढ़वा लिया। युद्ध समाप्त होने पर भीम ने युधिष्ठिर से कहा---
'भैया ! शत्रुओं के प्रधान-प्रधान वीर मारे गये। बहुत से इधर-उधर भाग भी गये हैं। आप
नकुल, सहदेव और महात्मा धौम्य मुनि के साथ आश्रम पर जाइये और द्रौपदी को शान्त कीजिये।
मैं तो उस मूर्ख जयद्रथ को जीवित नहीं छोड़ सकता। भले ही वह पाताल मेंजाकर छिप गया हो
अथवा स्वयं इन्द्र सारथी बनकर उसकी सहायता करने आ गया हो।'युधिष्ठिर ने कहा---महाबाहु
भीम ! यद्यपि सिन्धुराज जयद्रथ बड़ा दुष्ट है, तो भी बहिन दुःशला और यशस्विनी गांधारी
का खयाल करके उसको जान से मत मारना। तदनन्तर राजा युधिष्ठिर द्रौपदी को लेकर पुरोहितजी
के साथ आश्रम पर आये। इधर भीम और अर्जुन को यह पता चला कि जयद्रथ एक कोस आगे निकल गया
है, तब वे अपने ही हाथों से घोड़ों को हाँकते हुए बड़े वेग से दौड़े। यहाँ अर्जुन ने एक
अद्भुत पराक्रम दिखाया; यद्यपि जयद्रथ दो मील आगे था तो भी उन्होंने अभिमंत्रित किये
हुए वाण चलाकर उसके घोड़ों को मार डाला।घोड़ों के मरने से जयद्रथ बहुत दुःखी हुआ और अर्जुन
को ऐसे अद्भुत पराक्रम करते देख उसने भाग जाने में ही अपना उत्साह दिखाया। वह वन की
ओर दौड़ने लगा। अर्जुन ने देखा जयद्रथ तो अब भागने में ही अपना पराक्रम दिखा रहा है
तो उन्होंने उसका पीछा करते हुए कहा---'राजकुमार ! लौटो, लौटो; तुम्हारा भागना उचित
नहीं है। क्या इसी बल पर परायी स्त्री को जबरदस्ती ले जाना चाहते थे ? अरे ! अपने सेवकों
को शत्रुओं के बीच में छोड़ कैसे भागे जा रहे हो ?' अर्जुन के इस प्रकार कहने पर भी
सिन्धुराज नहीं लौटा। तब महाबली भीम ने वेग से दौड़कर उसका पीछा किया और कहा---'खड़ा
रह, खड़ा रह !' अर्जुन को जयद्रथ पर दया आ गयी, उन्होंने कहा--'भैया ! उसे जान से न
मारना।'
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