Monday 19 June 2017

श्रीमद्भगवद्गीता___कर्मयोग

श्रीमद्भगवद्गीता___कर्मयोग
अर्जुन बोले___जमार्दन ! यदि आपको कर्मों की अपेक्षा  ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर केशव ! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं ? आप मिले हुए से वचनों से  मानो मेरी बुद्धि को मोहित कर रहे हैं। इसलिए उस एक बार को निश्चित करके कहिये, जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ। श्रीभगवान् बोले___निष्पाप ! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है। उनमें से सांख्ययोगियों की निष्ठा तो ज्ञानयोग से होती है और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है। मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को___योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न केवल कर्मों का स्वरूप को त्याग करने से सिद्धि को___सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है। निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता; क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिये बाध्य किया जाता है। जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी कहा जाता है। किन्तु अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ दसों इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।
तू शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म कर; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर_निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा। यज्ञ को निमित्त किये जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्यसमुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिये अर्जुन ! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भली_भाँति कर्तव्य_कर्म कर। प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि ‘ तुमलोग इस यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुमलोगों को इच्छुक भोग प्रदान करनेवाला हो। तुमलोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुमलोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक_दूसरे को उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे। यज्ञ के द्वारा बढ़ाये हुए देवता तुमलोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे।‘ इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिये हुए भोगों को जो पुरुष उसको बिना दिये स्वयं भोगता है, वह चोर ही है। यज्ञ से बचे हुए अन्न को खानेवाले श्रेष्ठ पुरुष सब प्रकार से मुक्त हो जाते हैं। और जो पापीलोग अपना शरीर पोषण करने के लिये अन्न पकाते  हैं, वे तो पाप ही खाते हैं। संपूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ निहित कर्मों से उत्पन्न होनेवाला है। कर्मसमुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही सत्य में प्रतिष्ठित है। पार्थ ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परंपरा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं बरतता___अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों के द्वारा भोगों में रमण करनेवाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है। परन्तु जो मनुष्य आत्मा में भ्रमण करनेवाला तथा आत्मा में ही तृप्ति तथा आत्मा में ही संतुष्ट हो,  उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है। उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा संपूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिंन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता। इसलिये तू आसक्ति से रहित होकर सदा कर्चव्यकर्म को भली_भाँति करता रह; क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे। इसलिये  तू कर्म करने के ही योग्य है। श्रेष्ठ पुरुष जो_जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा_वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य_समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है। अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकों में न कोई भी प्राप्त कहने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ; क्योंकि पार्थ ! यदि  कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि मनुष्यमात्र सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं। इसलिये यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट_भ्रष्ट हो जायँगी । भारत ! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी उसी प्रकार कर्म करे। परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिये कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्तिवाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम___कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे। किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भली_भाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे। वास्तव में संपूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अंतःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अग्यानी ‘मैं करता हूँ', ऐसा मानता है। परन्तु महाबाहो ! गुणविभाग और कर्मविभाग के तत्व को भली_भाँति जाननेवाला ज्ञानयोग संपूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता। प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझनेवाले मंदबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जाननेवाला ग्यानयोगी विचलित न करे। मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा संपूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और होकर युद्ध कर। जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी संपूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं। परंतु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नही चलते, उन मूर्खों को तू संपूर्ण अग्यानों में मोहित और नष्ट हुआ ही समझ। सभी प्राणी अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा। प्रत्येक इन्द्रिय के भोग में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याणमार्ग में विघ्न करनेवाले महान् शत्रु हैं। अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देनेवाला है। अर्जुन बोले___कृष्ण ! यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है ? श्रीभगवान् बोले___रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है; यह बहुत खानेवाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषय में वैरी जान। जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढका रहता है, वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढका रहता है और अर्जुन ! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होनेवाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वैरी के द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढका हुआ है। इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि___ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है। इसलिये अर्जुन ! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करनेवाले महान् पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल। इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर___श्रेष्ठ, बलवान् और सूक्ष्म कहते हैं; इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है। इस प्रकार बुद्धि से पर___सूक्ष्म, बलवान् और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके महाबाहो ! तू इस समय कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल।

No comments:

Post a Comment