Monday 19 June 2017

श्रीमद्भगवद्गीता___ज्ञान_कर्मसंन्यासयोग

श्रीभगवान् बोले___मैने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा। परंतप अर्जुन ! इस प्रकार परंपरा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, किन्तु उसके बाद यह योग बहुत काल से इस पृथ्वीलोक में लुप्तप्राय हो गया। तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिये वही यह पुरातन योग आज मैंने तुमको कहा है; क्योंकि यह योग बड़ा ही उत्तम रहस्य है। अर्जुन बोले___आपका जन्म तो अवार्चीन___अभी हाल का है और सूर्य का जन्म कल्प के आदि में हो चुका था; तब मैं इस बात को कैसे समझूँ कि आप ही ने कल्प के आदि में सूर्य से यह योग कहा था ? श्रीभगवान् बोले___परंतप अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता, किन्तु मैं जानता हूँ। मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ। भारत ! जब_जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब_तब मैं ही अपने रूप को रचता हूँ, साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिये, पाप_कर्म करनेवालों का विनाश करने के लिये और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिये मैं युग_युग में प्रकट हुआ करता हूँ। अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं___इस प्रकार जो मनुष्य तत्व से जान लेता है, वह शरीर को त्याग कर फिर जन्म ग्रहण नहीं करता किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है। पहले भी, जिनके राग भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गये थे और जो मुझमें अनन्य प्रेमपूर्वक स्थित रहते थे, ऐसे मेरे आश्रित रहनेवाले बहुत से भक्त उपर्युक्त ग्यानरूप तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप रो प्राप्त हो चुके हैं। अर्जुन ! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं। इस मनुष्यलोक में कर्मों के फल को चाहनेवाले लोग देवताओं का पूजन किया करते हैं; क्योंकि उनको कर्मों से उत्पन्न होनेवाली सिद्धि शीघ्र मिल जाती है।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र___इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टिरचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान। कर्मों के फल में मेरा स्पृहा नहीं है; इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते।_इसप्रकार जो मुझे तत्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता। पूर्वकाल के भुभुक्षुओं ने भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किये हैं। इसलिये तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किये जानेवाले कर्मों को ही कर। कर्म क्या है ? और अकर्म क्या है ?___इस प्रकार इसका निर्णय करने में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। इसलिये वह कर्मतत्व मैं तुझे भली_भाँति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू कर्मबन्धन से मुक्त हो जायगा। कर्म का स्वरूप ही जानना चाहिये और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्म की गति गहन है। जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान और वह योगी समस्त कर्मों को करनेवाला है। जिसके संपूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं तथा जिसके  समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भष्म हो गये हैं, उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं। जो पुरुष समस्त कर्मों में और उसके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और परमात्मा में नित्यतृप्त है, वह कर्मों में भली_भाँति बर्तता हुआ भी वास्तव में परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है। विवेकहीन तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है। उनमें भी संशययुक्त पुरुष के लिये तो न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है। धनंजय ! जिसने कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों का परमात्मा में अर्पण कर दिया है और जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है, ऐसे स्वाधीन अंतःकरणवाले पुरुष को कर्म नहीं बाँधते। इसलिये भरतवंशी अर्जुन ! तू हृदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय का विवेकज्ञानरूप तलवार द्वारा छद्म करके समत्वरूप कर्मयोग में स्थित हो जा और युद्ध के लिये खड़ा हो जा।

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