Wednesday 21 June 2017

• श्रीमद्भगवद्गीता___दैवासुरसम्पद्धिभागयोग


श्रीभगवान् बोले___भय का सर्वथा अभाव, अन्तःकरण की पूर्ण निर्मलता, तत्वज्ञान के लिये ध्यानयोग में नित्य स्थिति और सात्विक दान, इन्द्रियों का दमन, भगवान्, देवता और गुरुजनों की पूजा और अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण एवं वेद_शास्त्रों का पठन_पाठन तथा भगवान् के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिये कष्टसहन और शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता, मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना अपकार करनेवालों पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में  कर्तापन के अभिमान का त्याग, अंतःकरण की उपरति, किसी की निन्दादि न करना, सब प्राणियों में हेतुरहित दया, इन्द्रियों का विषयों को साथ संयोग होने पर उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण, लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव, तेज, क्षमा, धैर्य, बाहर की शुद्धि और किसी से भी शत्रुभाव का न होना और अपने में पूर्णता के अभिमान का अभाव___ये सब तो अर्जुन ! दैवी सम्पदा को प्राप्त पुरुष के लक्षण हैं।
पार्थ ! दम्भ, घमण्ड और अभिमान तथा क्रोध, कठोरता और अज्ञान भी___ये सब आसुरी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं। दैवी सम्पदा मुक्ति के लिये और आसुरी सम्पदा बाँधने के लिये मानी गयी है। इसलिये अर्जुन ! तू शोक मत कर; क्योंकि तू दैवी सम्पदा को प्राप्त है। अर्जुन ! इस लोक में मनुष्य समुदाय दो ही प्रकार का है, एक तो दैवी प्रकृतिवाला और दूसरा आसुरी प्रकृतिवाला। उनमें से  दैवी प्रकृतिवाला तो विस्तारपूर्वक कहा गया, अब तू आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्य समुदाय को भी विस्तारपूर्वक मुझसे सुन। आसुर_स्वभाववाले मनुष्य प्रवृति और निवृत्ति___इन दोनों को ही नहीं जानते। इसलिये न उनमें बाहर_भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्यभाषण ही है। वे आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्य कहा करते हैं कि जगत् आश्रयरहित सर्वथा असत्य और बिना सत्य और बिना ईश्वर के, अपने आप केवल स्त्री_पुरुष के संयोग से उत्पन्न है, अतएव केवल भोगों के लिये ही है। इसके सिवा और क्या है ? इस मिथ्या ज्ञान को अवलम्बन करके___जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है तथा जिनकी बुद्धि मन्द है, वे सबका अपकार करनेवाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत् के नाश के लिये ही उत्पन्न होते हैं। वे दम्भ, मान और मद से युक्त मनुष्य किसी भी प्रकार पूर्ण न होनेवाली कामनाओं का आश्रय लेकर, अज्ञान से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण कर और भ्रष्ट आचरणों को धारण कर संसार में विचरते हैं तथा वे मृत्युपर्यन्त रहने वाली असंख्य चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले विषयभोगों के भोगने में तत्पर रहनेवाले ‘इतना ही आनन्द है' इस प्रकार माननेवाले होते हैं। वे आशा की सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए मनुष्य काम_क्रोध के परायण होकर विषयभोगों के लिये अन्यायपूर्वक धनादि पदार्थों को संग्रह करने का चेष्टा करते रहते हैं। वे सोचा करते हैं कि मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूँगा। मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह हो जायगा। वह शत्रु मरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा।
मैं ईश्वर हूँ, ऐश्वर्य को भोगनेवाला हूँ। मैं सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान् तथा सुखी हूँ। मैं बड़ा धनी और और बड़े कुटुम्बवाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है ? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और आमोद_प्रमोद करूँगा। इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहनेवाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्तवाले, मोहरूप जाल से समाप्त और विषयभोगों में अत्यन्त आसुरलोग महान् अपवित्र नरक में गिरते हैं। वे अपने_आपको ही श्रेष्ठ माननेवाला घमण्डी पुरुष धन और मान के मद से युक्त होकर केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्रविधि से रहित यजन करते हैं। वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निन्दा करनेवाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामी से द्वेष करनेवाले होते हैं। उन द्वेष करनेवाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बार_बार आसुरी योनियों में ही डालता हूँ। अर्जुन ! जन्म_जन्म में आसुरी योनि को  प्राप्त वे मूढ़ मुझको न प्राप्त होकर, उससे भी अति नीच गति को प्राप्त होते हैं___घोर नरकों में पड़ते हैं। काम, क्रोध तथा लोभ___ये आत्मा का नाश करनेवाले___उसको अधोगति में ले जानेवाले तीन प्रकार के नरक द्वार हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिये। अर्जुन ! इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है, इससे वह परमगति को जाता है___मुझको प्राप्त हो जाता है। जो पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परमगति को और न सुख को ही। इससे तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है। ऐसा जानकर तू शास्त्रविधि से नियत कर्म ही करने योग्य है।

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