Wednesday 21 June 2017

श्रीमद्भगवद्गीता___क्षेत्र_क्षेत्रज्ञविभागयोग

श्रीभगवान् बोले___अर्जुन ! यह शरीर ‘क्षेत्र’ इस नाम से कहा जाता है; और इसको जो जानता है, उसको ‘क्षेत्रज्ञ’ इस नाम से उनको तत्व से जाननेवाले ज्ञानीजन कहते हैं। अर्जुन ! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ___जीवात्मा भी मुझे ही जान और क्षेत्र_क्षेत्रज्ञ का विकारसहित प्रकृति का और पुरुष का जो तत्व से जानना है, वह ज्ञान है___ ऐसा मेरा मत है। वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारोंवाला है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाववाला है___वह संक्षेप में मुझसे सुन। यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है और विविध वेद_मंत्रों द्वारा भी विभागपूर्वक कहा गया है तथा भली_भाँति निश्चय किये हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है। पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति भी; तथा दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच इन्द्रियों के विषय___ शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल देह का पिण्ड, चेतना और धृति___ इस प्रकार विचारों के सहित यह क्षेत्र संक्षेप में कहा गया। श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार न सताना, क्षमाभाव, मन वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा_भक्तिसहित गुरु की सेवा, बाहर_भीतर की शुद्धि, अंत:करण की स्थिरता और मन_इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह, इस लोक और परलोक के संपूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव; जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दु:ख_दोषों का बार_बार विचार करना; पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना, मुझ परमेश्वर में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना, अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थिति और तत्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना___यह सब ज्ञान है और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है___ ऐसा कहा है। जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानंद को प्राप्त  होता है, उसको भलीभाँति कहूँगा। वह आदिरहित परम ब्रह्म न सत् ही कहा जाता है, न असत् ही। वह सब ओर हाथ_पैरवाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुखवाला और सब ओर कानवाला है; क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है। वह संपूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जाननेवाला है, परंतु वास्तव में सब इन्द्रियों से रहित है तथा आसक्तिरहित और निर्गुण होने पर भी अपनी योगमाया से सबका धारण_पोषण करनेवाला और गुणों को भोगनेवाला है। वह चराचर सब भूतों के बाहर_भीतर परिपूर्ण है और चर_अचररूप भी वही है। और वह सूक्ष्म होने से अविजेय है तथा अति समीप में और दूर में भी स्थित वही है। और वह विभागरहित एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण होने पर भी  संपूर्ण भूतों में विभक्त_सा स्थित प्रतीत होता है। वह जाननेयोग्य परमात्मा विष्णुरूप से भूतों को धारण_पोषण करनेवाला और रुद्ररूप से संहार करनेवाला तथा ब्राह्मणरूप से सबको उत्पन्न करनेवाला है। वह ब्रह्म ज्योतियों का भी ज्योति एवं माया से अत्यन्त परे कहा जाता है। वह परमात्मा बोधस्वरूप, जानने के योग्य एवं तत्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है और सबके हदय में विशेष रूप से स्थित है। इस प्रकार क्षेत्र तथा ग्यान और जाननेयोग्य परमात्मा का स्वरूप संक्षेप से कहा गया। मेरा भक्त इसको तत्व से जानकर मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है। प्रकृति और पुरुष, इन दोनों को ही तू अनादि जान और राग_द्वेषादि विचारों को तथा त्रिगुणात्मक संपूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न जान। कार्य और कारण की उत्पत्ति में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख_दुःखों को भोगने में हेतु कहा जाता है। प्रकृति में स्थित ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा को अच्छी_बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है। यह पुरुष इस देह में स्थित होने पर भी पर ही है। केवल साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देनेवाला होने से अनुमन्ता, सबको धारण_पोषण करनेवाला होने से  भर्ता, जीवरूप से भोक्ता, ब्रह्मा आदि का स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा___ऐसा कहा गया है। इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है, वह सब प्रकार से कर्तव्य कर्म करता हुआ भी फिर नहीं जन्मता। उस परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के द्वारा हृदय में देखते हैं। परन्तु इनसे दूसरे स्वयं इस प्रकार न जानते हुए दूसरों से  सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैं और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसार सागर को निःसंदेह तर जाते हैं। अर्जुन ! जितने भी स्थावर_जंगम प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सबको तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न जान। जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में परमेश्वर को नाशरहित और समभाव से स्थित देखता है, वही यथार्थ देखता है; क्योंकि वह पुरुष सब में समभाव से स्थित परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता, इससे वह परम गति को प्राप्त होता है और जो पुरुष संपूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किये जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है, वही यथार्थ देखता है। जिस क्षण वह पुरुष भूतों के पृथक्_पृथक् भाव को एक परमात्मा में ही स्थित तथा उस परमात्मा से ही संपूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, उसी क्षण वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। अर्जुन ! अनादि होने से और निर्गुण होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होने पर भी वास्तव में न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है। जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता, वैसे ही देह में सर्वत्र स्थित आत्मा निर्गुण होने के कारण देह के गुणों से लिप्त नहीं होता। अर्जुन ! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस संपूर्ण ब्रह्मांड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा संपूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है। इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा कार्यसहित प्रकृति के अभाव को जो पुरुष ज्ञान_नेत्रों  द्वारा तत्व से जानते हैं, वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं।

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