Wednesday 21 June 2017

श्रीमद्भगवद्गीता___भक्तियोग

अर्जुन बोले___जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरन्तर आपके भजन ध्यान में लगे रहकर आप सगुणरूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म को ही अति श्रेष्ठ भाव से भजते हैं, उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन है ? श्रीभगवान् बोले___मुझमें मन को एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजन_ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं। परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अकथनीयस्वरूप और सदा एकरस रहनेवाले, नित्य, अचल, निराधार, अविनाशी सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूत के हित में कर और सब में समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं।उन सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्तवाले पुरुषों और जो मेरे परायण रहनेवाले भक्तजन संपूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्तियोग से  निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं; अर्जुन ! उन मुझमें चित्त लगानेवाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसारसमुद्र से उद्धारकरनेवाला होता हूँ। मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा; इसके उपरान्त तू मुझमें ही अंचल स्थापन करने के लिये समर्थ नहीं है तो अर्जुन ! अभ्यासरूप योग के द्वारा मुझको प्राप्त करने के लिये इच्छा कर। यदि तू उपर्युक्त अभ्यास में असमर्थ है तो केवल मेरे लिये कर्म करने के ही परायण हो जा। इस प्रकार मेरे निमित्त कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्तिरूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा। यदि मेरी प्राप्तिरूप योग के आश्रित होकर उपर्युक्त साधन को करने में भी तू असमर्थ है तो मन बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करनेवाला होकर सब कर्मों के फल का त्याग कर। कर्म को न जानकर किये हुए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप की ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है; क्योकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति होती है। जो पुरुष सब भूतों में द्वेषभाव से रहित, स्वार्थरहित सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, सुख_दुःखों की प्राप्ति में सम्मान और क्षमावान्___अपराध करनेवाले को भी अभय देनेवाला है; तथा जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मन इन्द्रियों सहित मन तो वश में किये हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चयवाला है, वह मुझमें अर्पण किये हुए मन_बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है। जिससे कोई भी जीव उद्वेग को नहीं प्राप्त होता; तथा जो हर्ष, असमर्थ, भय और उद्वेगादि से रहित है, वह भक्त मुझको प्रिय है। जो पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर_भीतर से शुद्ध, चतुर, पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है, वह सब आरम्भों का त्यागी इसके दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं। देवता भी सदा इस रूप के दर्शन की आकांक्षा करते रहते हैं। जिस प्रकार तुमने मुझको देखा है, इस प्रकार चतुर्भुज रूपवाला मैं न वेदों से, न तप से, न दान से और न यग्य से ही देखा जा सकता हूँ। परंतु परंतप अर्जुन ! अन्य भक्ति के द्वारा इस प्रकार चतुर्भुज रूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिये, तत्व से जानने के लिये तथा प्रवेश करने के लिये___एकीभाव से प्राप्त होने के लिये भी शक्य हूँ। अर्जुन ! जो पुरुष केवल मेरे ही लिये सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करनेवाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, आसक्तिरहित है और सम्पूर्ण भूतप्राणियों  में प्रभाव से रहित है___वह अनन्य_भक्तियुक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है।

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