Wednesday 21 June 2017

श्रीमद्भगवद्गीता___राजविद्या_राजगुह्ययोग

श्रीभगवान् बोले___तुझ दोषदृष्टिरहित भक्त के लिये इस परम गोपनीय विज्ञानसहित ज्ञान को भली_भाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू दुःखरूप संसार से मुक्त हो जायगा। यह विज्ञानसहित ज्ञान सब विद्याओं का राजा, सब गोपनीयों का राजा, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फलरूप, धर्मयुक्त, साधन करने में बड़ा सुगम और अविनाशी है। परंतप ! इस उपर्युक्त धर्म में श्रद्धारहित पुरुष मुझको न प्राप्त होकर मृत्युरूप संसारचक्र में भ्रमण करते रहते हैं। मुझ निराकार परमात्मा से यह सब जगत् जल से बर्फ के सदृश परिपूर्ण है और सब भूत मेरे अंतर्गत संकल्प के आधार स्थित हैं, इसलिये वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ और वे सब भूत मुझमें स्थित नहीं हैं; किन्तु मेरा ईश्वरीय योगशक्ति को देख कि भूतों का धारण_पोषण करनेवाला और भूतों को उत्पन्न करनेवाला भी मेरी आत्मा वास्तव में भूतों में स्थित नहीं है। जैसे आकाश से उत्पन्न सर्वत्र विचरनेवाला महान् वायु सदा आकाश में ही स्थित है, वैसे ही मेरे संकल्प द्वारा उत्पन्न होने से संपूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं___ऐसा जान। अर्जुन ! कल्पों के अन्त में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं और कल्पों के आदि में उनको मैं फिर रचता हूँ। अर्जुन ! उन कर्मों में आसक्तिरहित और उदासीन के सदृश स्थित हुए मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बाँधते। अर्जुन ! मुझ अधिष्ठाता के सकाश से प्रकृति चराचर सहित सर्वजगत् को रचती है और इस हेतु से ही यह संसारचक्र घूम रहा है। मेरे परमभाव को न जाननेवाले मूढ़लोग मनुष्य का शरीर धारणकरनेवाले मुझ संपूर्ण भूतों के महान् ईश्वर को तुच्छ समझते हैं। वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञानवाले विक्षिप्तचित्त अग्यानीजन राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृति को ही धारण किये हुए हैं।
परंतु कुन्तीपुत्र ! दैवी प्रकृति के आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्यमन से युक्त होकर निरन्तर भजते हैं। वे दृढ़ निश्चयवाले भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्ति के लिये यत्न करते हुए मुझको बार_बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं। क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ, मंत्र मैं हूँ, धृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूँ। इस संपूर्ण जगत् का धारण करनेवाला और कर्मों के फल को देनेवाला, पिता, माता, पितामह, माननेयोग्य, पवित्र, ‘ओंकार' तथा ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। प्राप्त होने योग्य परमधाम, भरण_पोषण  करनेवाला, सबका स्वामी, शुभाशुभ का देखनेवाला, सबका वासस्थान, शरण लेने योग्य, प्रत्युपकार न चाहकर हित करनेवाला, उत्पत्ति_प्रलयरूप, सबकी स्थिति का कारण, निधान और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ। मैं ही सूर्यरूप से तपता हूँ, वर्षा को आकर्षण करता हूँ और उसे बरसाता हूँ। अर्जुन ! मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत्_ असत् भी मैं ही हूँ। तीनों वेदों में विधान किये हुए सकामकर्मों को करनेवाले, सोमरस को पीनेवाले, पापों के नाश से पवित्र हुए पुरुष मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं; वे पुरुष अपने पुण्यों के फलस्वरूप स्वर्गलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं। वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के साधनरूप तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्म का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामनावाले पुरुष बार_बार आवागमन को प्राप्त होते हैं। जो अनन्य प्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरंतर चिन्तन करते हुए निष्कामभाव से भजते हैं, उस नित्य_निरन्तर मेरा चिन्तन करनेवाले पुरुषों का योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ। अर्जुन ! यद्यपि श्रद्धा से युक्त जो सकाम भक्त दूसरे देवताओं को पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं; किन्तु उनका यह पूजन अज्ञानपूर्वक है; क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ; परन्तु वे मुझ अधियज्ञस्वरूप  परमेश्वर को तत्व से नहीं जानते, इसी से गिरते हैं।
देवताओं को पूजनेवाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजनेवाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजनेवाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं। इसालिये भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता। जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र_पुष्पादि मैं सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ। अर्जुन ! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर। इस प्रकार, जिसमें समस्त कर्म मुझ भगवान् के अर्पण होते हैं___ऐसे सन्यासयोग से युक्त चित्तवाला तू शुभाशुभ फलस्वरूप कर्मबन्धन से मुक्त हो जायगा और उनसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगा। मैं सब भूतों में समभाव से व्यापक हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है; परंतु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ। यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है। वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शान्ति को प्राप्त होता है। अर्जुन ! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता। अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि___चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं। फिर इसमें तो कहना ही क्या है, जो पुण्यशील ब्राह्मण तथा राजर्षि भक्तजन परमगति को प्राप्त होते हैं। इसलिये तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर। मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो, मुझको प्रणाम कर। इस प्रकार आत्मा को मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा।

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