Wednesday 21 June 2017

श्रीमद्भगवद्गीता___विश्वरूपदर्शनयोग

अर्जुन बोले___मुझपर अनुग्रह करने के लिये आपने जो परम गोपनीय अध्यात्मविषयक वचन कहा, उससे मेरा यह अज्ञान नष्ट हो गया है; क्योंकि कमलनेत्र ! मैंने आपसे भूतों की उत्पत्ति और प्रलय विस्तारपूर्वक सुने हैं तथा आपकी अविनाशी महिमा भी सुनी है। परमेश्वर ! आप अपने को जैसा कहते हैं, यह ठीक ऐसा ही है; परन्तु पुरुषोत्तम ! आपके ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज से युक्त ऐश्वर्यरूप को मैं प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ। प्रभु ! यदि मेरे द्वारा आपका वह रूप देखा जाना शक्य है___ऐसा आप मानते हैं तो योगेश्वर ! उस अविनाशी स्वरूप का मुझे दर्शन कराइये। श्रीभगवान् बोले___ पार्थ ! अब तू मेरे सैकड़ों_हजारों नाना प्रकार के और नाना वर्ण तथा नाना आसक्तिवाले अलौकिक रूप को देख। भरतवंशी अर्जुन ! मुझमें अदिति के द्वादश पुत्रों को, आठ वसुओं को, एकादश रुद्रों को, दोनों अश्विनीकुमारों को और इन चार मरुद्गणों को देख तथा और भी बहुत से पहले न देखे हुए आश्चर्यमय रूपों को देख। अर्जुन ! अब इस मेरे शरीर में एक जगह स्थित चराचर सहित संपूर्ण जगत् को देख तथा और भी जो कुछ देखना चाहता है, सो देख। परंतु मुझको तू इन अपने प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने में निःसंदेह समर्थ नहीं है; इसी से मैं तुझे दिव्य चक्षु देता हूँ; उससे तू मेरी ईश्वरीय योगशक्ति को देख। संजय बोले___राजन् ! महायोगेश्वर और सब पापों के नाश करनेवाले भगवान् ने इस प्रकार कहकर उसके पश्चात् अर्जुन को परम ऐश्वर्यरूप दिव्य स्वरूप दिखलाया। अनेक मुख और नेत्रों से युक्त,अनेक अद्भुत् दर्शनोंवाले, बहुत_से दिव्य भूषणों से युक्त और बहुत से दिव्य शस्त्रों को हाथों में उठाते हुए, दिव्य माला और वस्त्रों को धारण किये हुए और दिव्य गंध का सारे शरीर में लेप लिये हुए, सब प्रकार के आश्चर्यों से युक्त, सीमारहित और सब ओर मुख किये हुए विराट्स्वरूप परमदेव परमेश्वर को अर्जुन ने देखा। आकाश में हजार सूर्यों के एक साथ उदय होने से उत्पन्न जो प्रकाश हो, वह भी उस विश्वरूप परमात्मा के प्रकाश के सदृश कदाचित् ही हो। पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उस समय अनेक प्रकार से विभक्त संपूर्ण जगत्  को देवों के देव श्रीकृष्णभगवान् के उस शरीर में एक जगह जगह स्थित देखा। उसके अनन्तविजय वह आश्चर्य से चकित और पुलकित शरीर अर्जुन प्रकाशमय विश्वरूप परमात्मा को श्रद्धा_हतोत्साहित सिर से प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोला___हे देव ! मैं आपके शरीर में सम्पूर्ण देवों को तथा अनेक भूतों के  समुदायों को, कमल के आसन पर विराजित ब्रह्मा को, महादेव को और सम्पूर्ण ऋषियों को तथा दिव्य सर्पों को देखता हूँ। सम्पूर्ण विश्व के स्वामिन् ! आपको अनेक भुजा, पेट, मुख, और नेत्रों से युक्त तथा सब ओर से अनन्त रूपोंवाला देखता हूँ। विश्वरूप ! मैं आपके न अन्त को देखता हूँ मध्य को और न आदि को ही। आपको मैं मुकुटयुक्त, गदायुक्त और चक्रयुक्त तथा सब ओर से प्रकाशमान तेज के पुंज, प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के सदृश ज्योतियुक्त, कठिनता से देखे जाने योग्य और सब ओर से अप्रमेयस्वरूप देखता हूँ। आप ही जानने योग्य परम ब्रह्म परमात्मा हैं, आप ही इस जगत् के परम आश्रय हैं, आप ही अनादि धर्म के रक्षक हैं और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं। ऐसा मेरा मत है। आपको आदि अन्त और मध्य से रहित, अनन्त सामर्थ्य से युक्त, अनन्त भुजावाले, चन्द्र_सूर्यरूप नेत्रोंवाले, प्रज्वलित अग्नि रूप मुखवाले और अपने तेज से इस जगत् को संतप्त करते हुए देखता हूँ। महात्मन् ! यह स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का संपूर्ण आकाश तथा सब दिशाएँ एक आपसे ही परिपूर्ण हैं; तथा आपके इस अलौकिक और भयंकर रूप को देखकर तीनों लोक अति व्यथा को प्राप्त हो रहे हैं। वे ही सब देवताओं का समूह आपमें प्रवेश करते हैं और कुछ भयभीत होकर हाथ जोड़े आपके नाम और गुणों का उच्चारण करते हैं तथा महर्षि और सिद्धों के समुदाय ‘कल्याण हो' ऐसा कहकर उत्तम_उत्तम स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं। जो ग्यारह रुद्र और बारह आदित्य तथा आठ वसु, साध्यगण, अश्विनीकुमार तथा मरुद्गणों और पितरों का समुदाय तथा, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और सिद्धों के समुदाय हैं___वे सभी विस्मित होकर आपको देखते हैं। महाबाहो ! आपके बहुत मुख और नेत्रोंवाले, बहुत हाथ, बहुत उदरोंवाले और बहुत_सी दाढ़ोंवाले, अतएव विकराल स्वरुप को देखकर सब लोक व्याकुल हो रहे हैं तथा मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ; क्योंकि विष्णो ! आकाश को स्पर्श करनेवाले, देदीप्यमान, अनेक वर्णों से युक्त तथा फैलाये हुए मुख और प्रकाशमान विशाल नेत्रों से युक्त आपको देखकर मैं दिशाओं को नहीं जानता हूँ और सुख भी नहीं पाता हूँ। इसलिये हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप प्रसन्न हों। ये सभी धृतराष्ट्र के पुत्र राजाओं के समुदाय सहित आपमें प्रवेश कर रहे हैं और भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य तथा वह कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं के सहित सब_के_सब बड़े वेग से दौड़ते हुए आपके विकराल  दाढ़ोंवाले भयानक मुखों में प्रवेश कर रहे हैं और कई  सिरों सहित आपके दाँतों के बीच में लगे हुए दीख रहे हैं। जैसे नदियों के बहुत_से जल के प्रवाह स्वाभाविक ही समुद्र के सम्मुख दौड़ते हैं, वैसे ही वे नरलोक के वीर भी आपके प्रज्वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं। जैसे पतंग मोहवश नष्ट होने के लिये प्रज्वलित अग्नि में अति वेग से दौड़ते हुए प्रवेश करते हैं, वैसे ही यह सब लोग भी अपने नाश के लिये आपके मुखों में अति वेग से दौड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं। आप उन संपूर्ण लोकों को प्रज्वलित मुखों द्वारा ग्रास करते हुए सब ओर से चाट रहे हैं। विष्णो ! आपका उग्र प्रकाश  सम्पूर्ण जगत् को तेज के द्वारा परिपूर्ण करके तपा रहा है। मुझे बतलाइये कि आप उग्र रूप वाले कौन हैं ? देवों में श्रेष्ठ ! आपको नमस्कार हो। आप प्रसन्न जाइये। आदिपुरुष आपको मैं विशेषरूप से जानना चाहता हूँ; क्योंकि मैं आपकी प्रवृत्ति को नहीं जानता। श्रीभगवान् बोले___मैं लोकों का नाश करनेवाला बढ़ा हुआ महाकाल हूँ। इस समय इन लोगों को नष्ट करने के लिये प्रवृत्त हुआ हूँ। इसलिये जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित योद्धालोग हैं, वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे। अतएव तू उठ। यश प्राप्त कर और शत्रुओं को जीतकर धन_धान्य से सम्पन्न राज्य भोग। ये सब शूरवीर पहले से ही मेरे ही द्वारा मारे हुए हैं। सव्यसाचिन् ! तू केवल निमित्तमात्र बन जा। द्रोणाचार्य और भीष्मपितामह तथा जयद्रथ  और कर्ण तथा और भी  बहुत से मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीर योद्धाओं को तू मार। निःसंदेह तू युद्ध में जीतेगा। इसलिये युद्ध कर। संजय बोले___केशवभगवान् के इस वचन को सुनकर मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़कर काँपते हुआ नमस्कार करके, फिर अत्यन्त भयभीत होकर प्रणाम करके भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति गद्गद् वाणी से बोला___अन्तर्यामिन् ! यह योग्य ही है कि आपके नाम, गुण और प्रभाव को कीर्तन से यह जगत् अति हर्षित हो रहा है और अनुराग को भी प्राप्त हो रहा है। तथा भयभीत राक्षसलोग दिशाओं में भाग रहे हैं और सब सिद्धगणों के समुदाय नमस्कार कर रहे हैं। महात्मन् ! ब्रह्मा के भी आदिकर्ता और सबसे बड़े आपके लिये वे कैसे नमस्कार न करें; क्योंकि हे अनन्त ! हे देवेश ! हे जगन्निवास ! जो सत्, असत् और उनसे परे सच्चिदानन्दघन ब्रह्म है, वह आप ही हैं। आप आदिदेव और सनातन पुरुष हैं, आप इस जगत् के परम आश्रय और जाननेवाले तथा जाननेयोग्य और परमधाम हैं। अनन्तरूप ! आपसे यह सब जगत् व्याप्त है। आप वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, प्रजा के स्वामी ब्रह्मा और ब्रह्मा के भी पिता हैं। आपके लिये हजारों बार नमस्कार ! नमस्कार हो ! आपके लिये फिर भी बार_बार नमस्कार ! नमस्कार !! हे अनन्तविजय सामर्थ्यवाले ! आपके लिये आगे से और पीछे से भी नमस्कार ! सर्वात्मन् ! आपके लिये सब ओर से नमस्कार हो; क्योंकि अनन्तविजय पराक्रमशाली आप सब संसार को व्याप्त किये हुए हैं, इससे आप ही सर्वरूप हैं। आपके इस प्रभाव को न जानते हुए, आप मेरे सखा हैं___ऐसा मानकर प्रेम से अथवा प्रमाद से भी मैंने ‘कृष्ण !’ ‘यादव !’ ‘सखे !’ इस प्रकार जो हठपूर्वक कहा है और अच्युत ! आप जो मेरे द्वारा विनोद के लिये विहार, शय्या, आसन और भोजनादि में अकेले अथवा उन सखाओं के सामने भी अपमानित किये गये हैं___वह सब अपराध अचिन्त्य प्रभावलाले आपसे मैं क्षमा करवाता हूँ। आप इस चराचर जगत् के पिता और सबसे बड़े गुरु एवं अति पूजनीय हैं। हे अनुपम प्रभाववाले ! तीनों लोकों में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर अधिक तो कैसे हो सकता है। अतएव प्रभो ! मैं शरीर को भलीभाँति चरणों में निवेदित कर, प्रणाम करके, स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को प्रसन्न होने के लिये प्रार्थना करता हूँ। देव, पिता जैसे पुत्र के, सखा जैसे सखा के और पति जैसे प्रियतमा पत्नी के अपराध सहन करते हैं, वैसे ही आप भी मेरे अपराध को सहन करने योग्य हैं। मैं पहले न देखे हुए आपके इस आश्चर्यमय रूप को देखकर हर्षित हो रहा हूँ और मेरा मन भय से अति व्याकुल भी हो रहा है; इसलिये आप उस अपने चतुर्भुज विष्णुरूप को ही मुझे दिखलाइये। हे देवेश ! हे जगन्निवास ! प्रसन्न होइये। मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण किये हुए तथा गदा और चक्र हाथ में लिये हुए देखना चाहता हूँ। इसलिये हे विश्वरूप ! हे सहस्त्रबाहो ! आप उसी चतुर्भुज रूप से प्रकट होइये।
श्रीभगवान् बोले___अर्जुन ! अनुग्रहपूर्वक मैंने अपनी योगशक्ति के प्रभाव से यह मेरा परम तेजोमय, सबका आदि और सीमारहित विराट रूप तुझको दिखलाया है, जिसे तेरे अतिरिक्त दूसरे किसी ने पहले नहीं देखा था। अर्जुन ! मनुष्यलोक में इस प्रकार विश्व रूप वाला मैं न वेद और यज्ञों के अध्ययन से, न दान से न क्रियाओं से और न उग्र तपों से ही मेरे अतिरिक्त दूसरे के द्वारा देखा जा सकता हूँ। मेरे इस प्रकार के इस विकराल रूप को देखकर तुझको व्याकुल नहीं होनी चाहिये और मूढ़भाव भी नहीं होना चाहिये। तू भयरहित और प्रीतियुक्त मन वाला उसी मेरे इस शंख_चक्र_गदा_पद्मयुक्त चतुर्भुज रूप को फिर देख। संजय बोले____वासुदेव भगवान् ने अर्जुन के प्रति इस प्रकार कहकर फिर वैसे ही अपने चतुर्भुज रूप को दिखलाया और फिर महात्मा श्रीकृष्ण ने सौम्यमूर्ति होकर इस भयभीत अर्जुन को धीरज दिया। अर्जुन बोले___ जनार्दन ! आपके इस अति शान्त मनुष्यरूप को देखकर अब मैं स्थितचित्त हो गया हूँ और अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त हो गया हूँ। श्रीभगवान् बोले____मेरा जो चतुर्भुज रूप तुमने देखा है, उसके दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं। देवता भी सदा इस रूप के दर्शन की आकांक्षा करते रहते हैं। जिस प्रकार तुमने मुझको देखा है, इस प्रकार चतुर्भुज रूपवाला मैं न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ से ही देखा जा सकता हूँ। परंतु परंतप अर्जुन ! अनन्य भक्ति के द्वारा इस प्रकार चतुर्भुज रूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिये, तत्व से जानने के लिये तथा प्रवेश करने के लिये___ एकीभाव से प्राप्य होने के लिये भी शक्य हूँ। अर्जुन ! जो पुरुष केवल मेरे ही लिये___ एकीभाव से प्राप्त होने के लिये सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को करनेवाला है, मेरे नारायण है, मेरा भक्त है, आसक्तिरहित है और सम्पूर्ण भूतप्राणियों में वैरभाव से रहित है___वह अनन्य_भक्तियुक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है।

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