श्रीभगवान् बोले___जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करनेयोग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है; और केवल अग्नि का त्याग करनेवाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करनेवाला योगी नहीं है। अर्जुन ! जिसको संन्यास ऐसा कहते हैं, उसीको तू योग जान; क्योंकि संकल्पों को त्याग न करनेवाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता। समत्वबुद्धिरूप कर्मयोग में आरूढ़ होने की इच्छावाले मननशील पुरुष के लिये योग की प्राप्ति में निष्कामभाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता है और उस योगारूढ पुरुष के लिये सर्वसंकल्पों का अभाव ही कल्याण में हेतु कहा जाता है। जिस काल में न तो इन्द्रियों के भोगों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में सर्वसंकल्पों का त्यागी पुरुष योगारूढ कहा जाता है। अपने द्वारा अपना संसार_समुद्र से उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले; क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है। जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्मा का तो आप ही मित्र है; और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रिय द्वारा शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिये वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है। सर्दी_गर्मी और सुख_दुःखादि में तथा मान और अपमान में जिसके अंतःकरण की प्रवृत्तियाँ भली_भाँति शान्त हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मावाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानन्दघन परमात्मा सभ्यक् प्रकार से स्थित हैं___उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं। जिसका अंतःकरण ज्ञान_विज्ञान से तृप्त है, उसकी स्थिति विकाररहित है, जिसकी इन्द्रियाँ भली_भाँति जीती हुई हैं और जिसके लिये मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण समान है, वह योगीयुक्त___भगवान् प्राप्त है, ऐसा कहा जाता है। सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और बन्धुगणों में, धर्मपत्नी में और पापियों में भी समान भाव रखनेवाला अत्यन्त श्रेष्ठ है।
मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखनेवाला, आशारहित और संग्रहसहित योगी अकेला ही एकान्त स्थान में स्थित होकर आत्मा को निरंतर परमेश्वर के ध्यान में लगावे। शुद्ध भूमि में, जिसके ऊपर क्रमशः कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं___ऐसे अपने आसन को, न बहुत ऊँचा और न बहुत नीचा, स्थिर स्थापना करके___उस आसन पर बैठकर, चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में करके तथा मन को एकाग्र करके अंतःकरण की शुद्धि के लिये योग का अभ्यास करे। काया, सिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर, अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ___ ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित, भयरहित तथा भली_भाँति शान्त अंतःकरण_वाला सावधान योगी मन को वश में करके मुझमें चित्तवाला और मेरे परायण होकर स्थित होवे। वश में किये हुए मन वाला योगी इस प्रकार आत्मा को निरन्तर मुझ परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ मुझमें रहनेवाली परमानंद की पराकाष्ठारूप शान्ति को प्राप्त होता है। अर्जुन ! यह योग न तो बहुत खानेवाले का, न बिलकुल न खानेवाला का, न बहुत शयन करने के स्वभाववालेवाले का और न बहुत जागनेवाला का ही सिद्ध होता है। अत्यन्त वश में किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही भली_भाँति स्थिर हो जाता है, उस काल में सम्पूर्ण भोगों से स्पृहारहित पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है। जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गयी है। योग को अभ्यास से निरुद्ध चित्त जिस अवस्था में हो जाता है, और जिस अवस्था मे परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात् करता हुआ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही संतुष्ट रहता है; इन्द्रियों से अतीत, केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्तो आनन्द है, उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है और जिस अवस्था में स्थित यह योगी परमात्मा के स्वरूप से विचलित होता ही नहीं; परमात्मा की प्राप्तिरूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मप्राप्तिरूप जिस अवस्था में स्थित योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता; जो दुःखरूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिये।
वह योग न उकताए हुए___धैर्य और उत्साहरूप चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है। संकल्प से उत्पन्न होनेवाली संपूर्ण कामनाओं को निःशेषरूप से त्यागकर और मन के द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सभी ओर से भली_भाँति रोककर___क्रम_क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरामता को प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे। यह स्थिर न रहनेवाला और चंचल मन जिस_जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरता है, उस_उस विषय से रोककर इसे बार_बार परमात्मा में ही निरुद्ध करे; क्योंकि जिसका मन भली प्रकार शान्त है, जो पाप से रहित है और जिसका रजोगुण शान्त हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को साथ एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनन्द प्राप्त होता है। वह पापरहित योगी इस प्रकार निरन्तर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक परमब्रह्म परमात्मा की प्राप्तिरूप अनन्त आनन्द को अनुभव करता है। सर्वव्यापी अनन्त चेतन में एकीभाव से स्थितरूप योग से युक्त आत्मावाला तथा सब में समभाव से देखनेवाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में देखता है। जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता। जो पुरुष एकीभाव में स्थित होकर सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ मुझमें ही बरतता है। अर्जुन ! जो योगी अपनी भाँति संपूर्ण भूतों में सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।
अर्जुन बोले___मधुसूदन ! जो यह योग आपने समत्वभाव सेे कहा है, मन के चंचल होने से मैं नित्य स्थिति को नहीं देखता हूँ; क्योंकि श्रीकृष्ण ! यह मन बड़ा चंचल स्वभाववाला, बड़ा दृढ़ और बलवान् है। इसलिये उसका वश में करना मैं वायु के रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ। श्रीभगवान् बोले___महाबाहो ! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होनेवाला है; परंतु कुन्तीपुत्र अर्जुन ! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है। जिसका मन वश में किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है और वश में किये हुए मनवाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन करने से उसका प्राप्त होना सहज है___ यह मेरा मत है। अर्जुन बोले___श्रीकृष्ण ! जो योग में श्रद्धा रखनेवाला है, किन्तु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अन्तकाल में योग से विचलित हो गया है___ऐसा साधक योग की सिद्धि को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है ? महाबाहो ! क्या वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रयरहित पुरुष छिन्न_भिन्न बादल का भाँति देने ओर से भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता ? श्रीकृष्ण ! मेरे इस संशय को संपूर्णरूप से छेदन करने के लिये आप ही योग्य हैं; क्योंकि आपके सिवा दूसरा इस संशय का छेदन करनेवाला मिलना संभव नहीं है।
श्रीभगवान् बोले___पार्थ ! उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न परलोक में ही; क्योंकि प्यारे ! आत्मोद्धार के लिये कर्म करनेवाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता। योगभ्रष्ट पुरुष विद्वानों के लोकों को प्राप्त होकर, उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके फिर शुद्ध आचरणवाले श्रीमान् पुरुषों के घर में जन्म लेता है। अथवा वैराग्यवान् पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान् योगियों के ही कुल में जन्म लेता है। परंतु इस प्रकार जो यह जन्म है, सो इस संसार में अत्यन्त दुर्लभ है। वहाँ उस शरीर में पहले संग्रह किये हुए बुद्धि_संयोग को__समत्वबुद्धियोग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और कुरुनन्दन ! उसके प्रभाव से वह फिर परमात्मा की प्राप्तिरूप सिद्धि के लिये पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है। वह श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट प्रारूप हुआ भी उस पहले के अभ्यास से ही निःसंदेह भगवान् की ओर आकर्षित किया जाता है, तथा समत्वबुद्धियोग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए सकाम कर्मों के फल को उल्लंघन कर जाता है। परंतु प्रयत्न_पूर्वक अभ्यास करनेवाला योगी तो पिछले अनेक जिनमें के संस्कारबल से इसी जन्म में संसिद्ध होकर संपूर्ण पापों से रहित हो तत्काल ही परमगति को प्राप्त हो जाता है। योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करनेवालों से भी योगी श्रेष्ठ है; इससे अर्जुन ! तू योगी हो। संपूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान् योगी मुझमें लगे हुए अन्तरात्मा से मुझसे निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परमश्रेष्ठ मान्य है।
Monday 19 June 2017
श्रीमद्भगवद्गीता___आत्मसंयमयोग
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment