Wednesday 21 June 2017

श्रीमद्भगवद्गीता___श्रद्धात्रयविभागयोग

अर्जुन बोले___कृष्ण ! जो श्रद्धायुक्त पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर देवादि का पूजन करते हैं, उनकी स्थिति कौन सी है ? यांत्रिकी है अथवा राजसी किंवा तामसी ? श्रीभगवान् बोले___मनुष्यों की वह शास्त्रीय संस्कारों से रहित केवल स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा सात्विकी और राजसी तथा तामसी___ऐसे तीनों प्रकार की होती है। उसको तू मुझसे सुन। भारत ! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अंतःकरण के अनुरूप होती है।  जो पुरुष जैसा श्रद्धावान् है, वह स्वयं भी वही है। सात्विक पुरुष दोनों को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं। जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित केवल मनःकल्पित घोर तप को करते हैं तथा घमण्ड और अहंकार से युक्त हैं, जो शरीर रूप ये स्थित भूतसमुदाय को और अंतःकरण में स्थित मुझ अन्तर्यामी को भी कृश करनेवाले हैं, उन अज्ञानियों को तू आतुर प्रभावशाली जान। भोजन भी सबको अपनी_अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन_तीन प्रकार के होते हैं। उनके इस पृथक्_पृथक् भेद को तू मुझसे सुन।
आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ानेवाले, प्रयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय___ऐसे आहार सात्विक  पुरुष को प्रिय होते हैं। कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख, चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करनेवाले आहार राजस पुरुष को प्रिय होते हैं। जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन कमाल पुरुष को प्रिय होता है।
जो शास्त्रविधि से नियत यज्ञ करना ही कर्तव्य है___इस प्रकार मन को समाधान करके, फल न चाहनेवाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह सात्विक है। परन्तु अर्जुन ! जो यज्ञ केवल दम्भाचरण के लिये अथवा फल को भी दृष्टि में रखकर, किया जाता है, उस यज्ञ को तू राजस जान। शास्त्रविधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मंत्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा किये जानेवाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं। देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा___यह शरीर संबंधी तप कहा जाता है। जो उद्वेग को न करनेवाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है तथा जो वेद_शास्त्रों के पठन एवं परमेश्वर के नाम_जप का अभ्यास है, वही वाणी_सम्बन्धी तप कहा जाता है। मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवच्चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण की पवित्रता___इस प्रकार यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है। फल को न चाहनेवाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किये हुए उस तीन प्रकार के तप को सात्विक कहते हैं। जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिये अथवा केवल पाखण्ड से ही किया जाता है, वह अनिश्चित एवं क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है। जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है। दान देना ही कर्तव्य है___ऐसे भाव से जो दान देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर उपकार न करनेवाले के प्रति दिया जाता है, वह दान सात्विक कहा गया है। किन्तु जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टि में रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है। जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश_काल में और कुपात्र के प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है। ऊँ, तत्, सत्___ऐसे तीन प्रकार का सच्चिदानन्दघन ब्रह्म का नाम कहा गया है; उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा ज्ञानी रचे गये। इसलिये वेदमंत्रों का उच्चारण करनेवाले श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्रविधि से नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा ‘ऊँ’  इस परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरम्भ होती है। ‘तत्’ नाम से कहे जानेवाले परमात्मा ही यह सब है___इस भाव से फल को न चाहता नाना प्रकार की यज्ञ_तमरूप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ  कल्याण की इच्छावाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं। ‘सत्’ यह परमात्मा का नाम प्रभावों और श्रेष्ठ भाव में प्रयोग किया जाता है। तथा यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी ‘सत्’ इस प्रकार से कही जाती है और उस परमात्मा के लिये किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक ‘सत्’___ऐसे कहा जाता है। अर्जुन ! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं पता हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ कर्म है, वह समस्त ‘असत्'___इस प्रकार कहा जाता है; इसलिये वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के बाद ही।

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