Wednesday 21 June 2017

• श्रीमद्भगवद्गीता___गुणत्रयविभागयोग

श्रीभगवान् बोले___ ज्ञानों में भी अति उत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर करूँगा, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं। इस ज्ञान को आश्रय करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते। अर्जुन ! मेरी ब्रह्मरूप प्रकृति___अव्याकृत  माया संपूर्ण भूतों की योनी है और मैं उस चेतनसमुदायरूप गर्भ को स्थापन करता हूँ। उस जड़_चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है। अर्जुन ! नाना प्रकार की सब योनियों में जितने शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं, अव्याकृत माया तो उन सबकी गर्भ कारण करनेवाली माता है और मैं बीज को स्थापना करनेवाला पिता हूँ।
अर्जुन ! सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण___ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं। हे निष्पाप ! उन तीनों गुणों में सर्वांगीण तो निर्मल होने के कारण प्रकाश करनेवाला और विकारयुक्त है, वह सुख के सम्बन्ध से और ग्यान के अभिमान से बाँधता है। अर्जुन ! रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा को कर्मों के और उनके फल के सम्बन्ध से बाँधता है।
अर्जुन ! सब देहाभिमानियों को मोहित करनेवाले तमोगुण को अज्ञान से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा को प्रमाद, आलस्य और निद्रा को द्वारा बाँधता है।
अर्जुन ! सत्वगुण सुख में लगाता है और रजोगुण कर्म में तथा तमोगुण तो ग्यान तो ढँककर प्रमाद में ही लगाता है।अर्जुन ! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्वगुण, सत्वगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण, वैसे ही सत्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण स्थित होता है।इस देह में तथा अंतःकरण तथा इन्द्रियों में चेतनता और विवेकशक्ति उत्पन्न होती है, उस समय ऐसा जानना चाहिये कि सत्वगुण बढ़ा है। अर्जुन ! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृति, सब प्रकार के कर्मों का समभाव से आरम्भ, अशांति और विषय भोगों की लालसा___ये सब उत्पन्न होते हैं।अर्जुन ! तमोगुण को बढ़ने पर अंतःकरण और इन्द्रियों में अप्रकाश, कर्तव्य कर्मों में अप्रवृति और प्रमाद तथा निद्रादि अंतःकरण की मोहिनी वृत्तियाँ___ये सब ही उत्पन्न होते हैं। जब यह जीवात्मा सत्वगुण का वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब तो उत्तम कर्म करनेवालों के निर्मल दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है। रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर मनुष्य कर्मों के आसक्तिवाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरा बुआ पुरुष कीट, पशु आदि मूढ़ योनियों में उत्पन्न होता है।
सात्विक कर्म का तो सात्विक___सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है। सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुण से निःसंदेह लोभ तथा तमोगुण से प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं और अज्ञान भी होता है। सत्वगुण में स्थित पुरुष सुवर्णादि उच्च लोकों में जाते हैं, रजोगुण में स्थित राज्य पुरुष मध्य में___मनुष्यलोक में ही रहते हैं और तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रसाद और आलस्यादि में स्थित रामसिंह पुरुष अधोगति को___कीट, पशु आदि  नीच योनियों तथा नरकादि को प्राप्त होते हैं। जिस समय द्रष्टा तीनों गुणों को अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और तीनों गुणों से अत्यन्त परे सच्चिदानन्दघनस्वरूप मुझ परमात्मा को तत्व से जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है। यह पुरुष स्थूल शरीर की उत्पत्ति के कारणरूप इन तीनों गुणों को उल्लंघन करके जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकार के दुःखों से मुक्त होकर परमानंद को प्राप्त होता है।अर्जुन बोले___इन तीनों गुणों से अतीत पुरुष किन_किन लक्षणों से युक्त होता है और किस प्रकार के आचरणोंवाला होता है तथा प्रभो ! मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत होता है ? श्रीभगवान् बोले___ अर्जुन ! जो पुरुष सत्वगुण के कार्यरूप प्रकाश को और रजोगुण को कार्यरूप प्रवृति को तथा तमोगुण के कार्य रूप मोह को भी न तो प्रवृत्ति होने पर बुरा समझता है और न निवृत होने पर उनकी आकांक्षा करता है; जो साक्षी के सदृश स्थित हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और गुण ही गुणों में बरतते हैं___ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानन्दघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से कभी विचलित नहीं होता; और जो निरन्तर आत्मभाव में स्थित, दु:ख_सुख को समान समझनेवाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाववाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक_सा मारनेवाला और अपनी निन्दा_स्तुति में भी समान भाव वाला है; जो मान और अपमान में सम है एवं मित्र और वैरी पक्ष में भी सम है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है और जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मुझको निरन्तर भजता है, वह इन तीनों गुणों को भलीभाँति बाँधकर सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त होने के लिये योग्य बन जाता है; क्योंकि उस अविनाशी परम ब्रह्म का और अमृत का तथा नित्य धर्म का और आनन्द का आश्रय मैं हूँ।इस संसार वृक्ष का स्वरूप  जैसा कहा गया है, वैसा यहाँ विचारधारा में नहीं पाया जाता; क्योंकि इसका न तो आदि है, न अंत है तथा न इसकी अच्छी प्रकार से स्थिति ही है। इसलिये इस अहंता, ममता, और वासनारूप अति दृढ़ नेत्रोंवाले संसाररूप पीपल के वृक्ष को दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्र द्वारा काटकर, उसके पश्चात् उस परमपदरूप परमेश्वर को भलीभाँति खोजना चाहिये, जिसमें गये हुए पुरुष फिर लौटकर संसार में नहीं आते; और जिस परमेश्वर से इस पुरातन संसारवृक्ष की प्रवृति विस्तार को प्राप्त हुई है, उसी आदिपुरुष नारायण के मैं शरण हूँ___इस प्रकार दृढ़निश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और निदिध्यासन करना चाहिये।जिसका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्तिरूप दोष को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएँ पूर्णरूप से नष्ट हो गयी हैं___वे सुख_दुःखादि नामक द्वन्दों से विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं। जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते___उस स्वयंप्रकाश परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही; वही मेरा परम धाम है। इस देह में जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और वही इस त्रिगुणमयी माया में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षण करता है। वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है उससे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है उसमें जाता है। वह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा को तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके विषयों को सेवन करता है। शरीर को छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को और विषयों को भोगते हुए को अथवा तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानीजन नहीं जानते, केवल ज्ञानरूप नेत्रोंवाले ज्ञानीजन ही तत्व से जानते हैं।े योगीजन भी अपने हृदय में स्थित इस आत्मा को तत्व से जानते हैं। किन्तु जिन्होंने अपने अंतःकरण को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानीजन तो कर्म करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं जानते।
•सूर्य में स्थित जो तेज  संपूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है और जो अग्नि में है, उसको तू मेरा ही तेज जान। मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूँ और रसस्वरूप____ अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण औषधियों को___वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ। मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित रहनेवाला प्राण और अपान से संयुक्त अग्निरूप होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ और मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामीरूप से स्थित हूँ और मुझमें ही स्मृति,  ज्ञान और अपोहन होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ तथा वेदान्त का कर्ता और वेदों को जाननेवाला मैं ही हूँ। इस संसार में नाशवान् और अविनाशी भी, ये दो प्रकार के पुरुष हैं। इनमें संपूर्ण भूतप्राणियों के शरीर तो नाशवान् और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है। इन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका  धारण_पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा___इस प्रकार कहा गया है; क्योंकि मैं नाशवान् जडवर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूँ और माया में स्थित अविनाशी जीवात्मा में भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ। भारत ! इस प्रकार तत्व से जो ज्ञानी पुरुष मुझको पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजत्ता है। निष्पाप अर्जुन ! इस प्रकार सब अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान् और कृतार्थ हो जाता है।

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