Monday 19 June 2017

श्रीमद्भगवद्गीता___ज्ञान_विज्ञानयोग

श्रीभगवान् बोले___पार्थ ! अनन्यप्रेम से मुझमें आसक्तचित्त तथा अनन्यभाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से संपूर्ण विभूति_बल_ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशयरहित जानेगा, उसको सुन। मैं तेरे लिये इस विज्ञानसहित तत्वज्ञान को सम्पूर्णतया कहूँगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जाननेयोग्य शेष नहीं रह जाता। हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिये यत्न करता है और उन यज्ञ करनेवाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्व से जानता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन बुद्धि और अहंकार भी___ इस प्रकार यह आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है। यह आठ प्रकार के भेदोंवाली तो अपरा___मेरी जड प्रकृति है और महाबाहो ! इससे दूसरी को, जिससे कि यह संपूर्ण जगत् धारण किया जाता है, मेरी जीवरूपा परा___ चेतन प्रकृति जान। अर्जुन ! तू ऐसा समझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होनेवाले हैं और मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हूँ। धनन्जय ! मेरे सिवा दूसरी कोई भी वस्तु नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश मुझमें गुँथा हुआ है। अर्जुन ! मैं जल में रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूँ, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ। मैं पृथ्वी में पवित्र गन्ध और अग्नि में तेज हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूँ और तपस्वियों में तप हूँ। अर्जुन ! तू सम्पूर्ण भूतों का सनातन बीज मुझको ही जान। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ। भरतश्रेष्ठ ! मैं बलवानों का आसक्ति और भावनाओं से रहित बल हूँ और सब भूतों में धर्म के अनुकूल काम हूँ। और भी जो सत्वगुण से उत्पन्न होनेवाले भाव हैं और जो रजोगुण से तथा तमोगुण से होनेवाले भाव हैं, उन सबको तू ‘मुझसे ही होनेवाले हैं' ऐसा जान। परन्तु वास्तव में उनमें मैं और वे मुझमें नहीं हैं। गुणों के कार्यरूप सात्विक, राजस और तामस___इन तीनों प्रकार को भावों से यह सब संसार मोहित हो रहा है, इसलिये इन तीनों गुणों से परे मुझ अविनाशी को नहीं जानता; क्योंकि यह अलौकिक त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है; परंतु जो पुरुष केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं, वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं। माया के द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है___ऐसे आसुर_स्वभाव को धारण किये हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करनेवाले मूढ़लोग मुझको नहीं भजते। भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! उत्तम कर्म करनेवाले अर्थार्थी, आर्त्त, जिज्ञासु और ज्ञानी___ये चार प्रकार के भक्तजन मुझको भजते हैं। उनमें नित्य मुझमें एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेमभक्तिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है; क्योंकि मुझको तत्व से जाननेवाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ग्यानी मुझे अत्यन्त प्रिय है। ये सभी उदार हैं, परन्तु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है___ऐसा मेरा मत है; क्योंकि वह मद्गत मन_बुद्धिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें ही अच्छी प्रकार स्थित है। बहुत जन्मों के अन्त के जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त पुरुष, सबकुछ वासुदेव ही है___इस प्रकार मुझको भजता है; वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है। अपने स्वभाव से प्रेरित और उन_उन भोगों की कामना द्वारा जिसका ज्ञान हरा जा चुका है, वे लोग उस_उस नियम को धारण करके अन्य देवताओं को भजते हैं। जो_जो सकाम भक्त जिस_जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस_उस भक्त को मैं उसी देवता के प्रति श्रद्धा को स्थिर करता हूँ। वह पुरुष उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता का पूजन करता है और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किये हुए उन इच्छुक भोगों को निःसंदेह प्राप्त करता है। परन्तु उन अल्पबुद्धिवालों का वह फल नाशवान् है तथा वे देवताओं को पूजनेवाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजें, अन्त में वे मुझको ही प्राप्त होते हैं। बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अविनाशी परमभाव को न जानते हुए मन_इन्द्रियों से परे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्य की भाँति जन्मकर व्यक्तिभाव को प्राप्त हुआ मानते हैं। अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिये यह अज्ञानी जनसमुदाय मुझे जन्मरहित अविनाशी परमात्मा नहीं मानता। अर्जुन ! पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा आगे होनेवाले सब भूतों को मैं जानता हूँ, परन्तु मुझको कोई भी श्रद्धा_भक्तिरहित पुरुष नहीं जानता। भरतवंशी अर्जुन ! संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न सुख_दुःखादि द्वन्दरूप मोह से संपूर्ण प्राणी अत्यन्त अज्ञानता को प्राप्त हो रहे हैं। परन्तु निष्कामभाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करनेवाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है, वे राग_द्वेषजनित ज्ञानस्वरूप मोह से मुक्त दृढ़निश्चयी भक्त मुझको सब प्रकार से भजते हैं। जो मेरे शरण होकर जरा और मरणोपरांत से टूटने के लिये कर्म करते हैं वे पुरुष उस ब्रह्म को, संपूर्ण अध्यात्म को, संपूर्ण कर्म को और अधिभूत_अधिदैव के सहित एवं अधियग्य के सहित मुझको जानते हैं; और जो पुरुष इस प्रकार अनन्तकाल में भी जानते हैं, वे भी मुझको ही जानते हैं।

No comments:

Post a Comment