Sunday 16 August 2015

आदिपर्व---इन्द्रप्रस्थ में देवर्षि नारद का आगमन, सुन्द-उपसुन्दकी कथा

इन्द्रप्रस्थ में देवर्षि नारद का आगमन, सुन्द-उपसुन्दकी कथा

महातेजस्वी सत्यवादी धर्मराज युधिष्ठिर अपनी पत्नी द्रौपदी के साथ इन्द्रप्रस्थ में सुखपूर्वक रहकर भाइयों की सहायता से संपूर्ण प्रजा का पालन करने लगे। सारे शत्रु उनके वश में हो गये। धर्म और सदाचार का पालन करने के कारण उनके आनन्द में किसी प्रकार की कमी नहीं थी। एक दिन की बात है, सभी पाण्डव राजसभा में बहुमूल्य आसनों पर बैठे हुए राजकाज कर रहे थे। उसी समय स्वेच्छा से विचरते हुए देवर्षि नारद वहाँ आ पहुँचे। युधिष्ठिर ने अपने आसन से उठकर उनका स्वागत किया और उन्हें बैठने के लिये श्रेष्ठ आसन दिया। देवर्षि नारद की विधिपूर्वक पूजा की गयी। युधिष्ठिर ने बड़ी नम्रता से उन्हें अपने राज्य की सब बातें निवेदन की। नारदजी ने उनके सम्मानार्थ पूजा स्वीकार करके उन्हें बैठने की आज्ञा दी। द्रौपदी को देवर्षि नारद के शुभागमन का समाचार भेज दिया गया। शीलवती द्रौपदी बड़ी पवित्रता और सावधानी के साथ देवर्षि नारद के पास आयी और प्रणाम करके बड़ी मर्यादा के साथ हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी। देवर्षि नारद ने आशीर्वाद देकर द्रौपदी को रनिवास में जाने की आज्ञा दे दी। द्रौपदी के चले जाने पर देवर्षि नारद ने पाण्डवों को एकान्त में बुलाकर कहा, वीर पाण्डवों यशस्विनी द्रौपदी तुम पाँचों भाइयों की एकमात्र धर्मपत्नी है, इसलिये तुमलोगों को कुछ ऐसा नियम बना लेना चाहिये जिससे आपस में किसी प्रकार का झगड़ा-बखेड़ा न खड़ा हो। प्राचीन काल की बात है, असुर वंश में सुन्द और उपसुन्द नाम के दो भाई थे। उनमें इतनी घनिष्ठता थी कि उनपर कोई हमला नहीं कर सकता था। वे एक साथ राज्य करते, एक साथ सोते-जागते और एक साथ ही खाते-पीते थे। परन्तु वे दोनो तिलोत्तमा नाम की एक ही स्त्री पर रीझ गये और एक दूसरे के प्राणों के ग्राहक बन गये। इसलिये तुमलोग ऐसा नियम बनाओ, जिससे आपस का हेल-मेल और अनुराग कभी कम न हो और न कभी आपस में फूट पड़े। युधिष्ठिर के विस्तार से पूछने पर देवर्षि नारद ने सुन्द और उपसुन्द की कथा आरंभ की। उन्होंने कहा कि हिरण्यकशिपु के वंश में निकुम्भ नाम का एक महाबली और प्रतापी दैत्य था। उसके दो पुत्र थे--सुन्द और उपसुन्द। दोनो बड़े शक्तिशाली, पराक्रमी, क्रूर और दैत्यों के सरदार थे। उनके उद्देश्य, कार्य, भाव, सुख और दुःख एक ही प्रकार के थे। एक के बिना दूसरा न तो कहीं जाता और न कुछ खाता-पीता ही था। अधिक तो क्या--वे एक प्राण दो देह थे। दोनो की वृद्धि एक-सी होने लगी। उन्होंने त्रिलोकी को जीतने की इच्छा से विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण करके विन्ध्याचल पर तपस्या प्रारंभ की। वे भूखे और प्यासे रहकर जटा-वल्कल धारण किये हुए केवल हवा पीकर तपस्या करने लगे। उनके शरीर पर मिट्टी का ढेर लग गया। केवल एक अंगूठे के बल पर खड़े होकर दोनो हाथ ऊपर उठाये वे सूर्य की ओर एकटक निहारते रहते। बहुत दिनों तक ऐसी तपस्या करने से विन्ध्य पर्वत भी प्रभावित हो गया। उनकी तपस्या का फल देने के लिये स्वयं ब्रह्माजी प्रकट हुए और उनसे वर माँगने को कहा। सुन्द-उपसुन्द ने ब्रह्माजी को देख, हाथ जोड़कर कहा---प्रभो, यदि आप हमारी तपस्या से प्रसन्न हैं और हमें वर देना चाहते हैं तो ऐसी कृपा कीजिये कि हम दोनो श्रेष्ठ मायावी, अस्त्र-शस्त्रों के जानकार, स्वेच्छानुसार रूप बदलनेवाले, बलवान् एवं अमर हो जायँ। ब्रह्माजी ने कहा, अमर होना तो देवताओं की विशेषता है। तुम्हारी तपस्या का यह उद्देश्य भी नहीं था। इसलिये अमर होने के सिवा जो कुछ तुमने माँगा है, वह प्राप्त होगा। दोनो भाइयों ने कहा, पितामह, अब आप हमें ऐसा वर दीजिये कि हम संसार के किसी भी प्राणी या पदार्थ के द्वारा न मरें। हमारी मृत्यु कभी हो तो एक-दूसरे के हाथ से ही हो। ब्रह्माजी ने उन्हें यह वर दे दिया और फिर अपने लोक को चले गये तथा वे दोनो वर पाकर अपने घर लौट आये। सुन्द और उपसुन्द के बन्धु-बान्धवों के प्रसन्नता की सीमा न रही। दोनो भाई सज-धज कर उत्सव मनाने लगे। खाओ-पीयो, मौज-उड़ाओ की आवाज से उनका नगर गूँज उठा। जब नगर में घर-घर इस प्रकार उत्सव होने लगा तब सुन्द और उपसुन्द ने बड़े-बूढे की सलाह से दिग्विजय के लिये यात्रा की। उन्होंने इन्द्रलोक, यक्ष, राक्षस, नाग, म्लेच्छ आदि सबपर विजय प्राप्त करके सारी पृथ्वी अपने वश में करने की चेष्टा की। दोनो भाइयों की आज्ञा से असुर-गण घूम-घूमकर ब्रम्हर्षि और राजर्षियों का सत्यानाश करने लगे।वे अग्निहोत्र का अग्नि उठाकर पानी में फेंक देते। तपस्वियों के आश्रम उजड़ गये। उनमें टूटे-फूटे कमण्डलु और कलश के ही दर्शन होते थे। जब ऋषि लोग दुर्गम स्थान में जा-जाकर छिपने लगे तब वे दोनो असुर, हाथी सिंह और बाघ बनकर उनकी हत्या करने लगे। ब्राह्मण और क्षत्रियों का विध्वंस होने लगा। यज्ञ, स्वाध्याय और उत्सवों के बन्द होने से चारों ओर हाहाकार मच गया। बाजार के कारोबार बन्द हो गये। संस्कारों का लोप और हड्डियों का ढेर लग जाने से पृथ्वी भयंकर हो गयी। इस भयानक हत्याकाण्ड को देखकर जितेन्द्रिय ऋषि-मुनि और महात्माओं को बहुत कष्ट हुआ। सब मिलकर ब्रह्मलोक में गये। उस समय ब्रह्माजी के पास महादेव, इन्द्र, अग्नि, वायु, सूर्य चन्द्र आदि देवता, वैखानस वालखिल्य आदि सभी विद्यमान थे। महर्षियों और देवताओं ने बड़ी नम्रता के साथ ब्रह्माजी के सामने यह निवेदन किया कि सुन्द और उपसुन्द ने प्रजा को किस प्रकार चौपट किया है और कितने निष्ठुर कर्म किये हैं। ब्रह्माजी ने क्षणभर सोचकर विश्वकर्मा को बुलाया और कहा कि तुम एक ऐसी अनुपम सुन्दरी स्त्री बनाओ, जो सभी को लुभा ले।विश्वकर्मा ने सोच-विचारकर एक त्रिलोक-सुन्दरी अप्सरा का निर्माण किया। संसार के श्रेष्ठ रत्नोंका तिल-तिलभर अंश लेकर उसका एक-एक अंग बनाया गया था। इसलिये ब्रह्माजी ने उस सन्दरी का नाम तिलोत्तमा रखा। तिलोत्तमा ने ब्रह्माजी के सामने हाथ जोड़कर पूछा कि भगवन्, मुझे क्या आज्ञा है। ब्रह्माजी ने कहा, तिलोत्तमे,तुम सुन्द और उपसुन्द के पास जाओ और अपने मनोहर रूप से उन्हें लुभा लो।तुम्हारी सुन्दरता और कौशल से उनमें फूट पड़ जाय,ऐसा उपाय करो।तिलोत्तमा ने ब्रह्माजी की आज्ञा स्वीकार करके प्रणाम किया और सब देवताओं की प्रदक्षिणा की। उसके रूप की शोभा देखकर देवताओं और ऋषियों ने समझ लिया कि अब काम बनने में अधिक विलम्ब नहीं है।इधर दोनो दैत्य पृथ्वी पर विजय प्राप्त करके निश्चिन्त भाव से निष्कंटक राज्य करने लगे।उनका सामना करनेवाला तो कोई था नहीं इसलिये वे आलसी और विलासी हो गये। एक दिन दोनो भाई विन्ध्याचल की उपत्यकाओं में रंग-विरंगे पुष्पों से लदे सुगन्धिमय लता वृक्षों की झुरमुट में आमोद-प्रमोद कर रहे थे।उसी समय तिलोत्तमा नाज-नखरे के साथ कनेर के पुष्पों को चुनती हुई सामने आ निकली।वे दोनो शराब पीकर नशे में बेहोश हो रहे थे। उनकी आँखें चढी हुईं थीं। तिलोत्तमा पर दृष्टि पड़ते ही वे काममोहित हो गये और अपने स्थान से उठकर तिलोत्तमा के पास आ गये। वे इतने कामान्ध हो गये थे कि उन्होंने बिना कुछ सोचे-विचारे तिलोत्तमा के हाथ पकड़ लिये।सुन्द ने दायाँ हाथ पकड़ा और उपसुन्द ने बायाँ हाथ। वे दोनो शारीरिक बल-धन नशे और उन्माद में एक दूसरे से कम न थे। इसलिये कामातुर होकर आपस में ही तनातनी करने लगे। सुन्द ने कहा, अरे, यह तो मेरी पत्नी है, तेरी भाभी लगती है। उपसुन्द ने कहा, यह तो मेरी पत्नी है, तुम्हारी पुत्रवधू के समान है। दोनो ही अपनी-अपनी बात पर अकड़ गये और तेरी नही मेरी कहकर झगड़ा करने लगे। क्रोध के आवेग में दोनो अपने स्नेह और सौहार्द को भूल गये। गदाएँ उठीं और पहले मैने इसका हाथ पकड़ा है, पहले मैने इसका हाथ पकड़ा है, ऐसा कहते हुए दोनो एक-दूसरे पर टूट पड़े। दोनो के शरीर खून से लथ-पथ हो गये। कुछ ही क्षणों में दोनो भयंकर असुर पृथ्वी पर गिरते हुए दिखायी पड़े। उनकी यह दशा देखकर उनके साथी स्त्री-पुरुष पाताल में भाग गये देवता महर्षि और स्वयं ब्रह्माजी ने तिलोत्तमा की प्रशंसा की और उसे यह वर दिया कि किसी भी मनुष्य की दृष्टि तुझपर अधिक देर तक नहीं टिक सकेगी। इन्द्र को राज्य मिला, संसार की व्यवस्था ठीक हो गयी, ब्रह्माजी अपने लोक को चले गये। नारदजी ने कहा, सुन्द और उपसुन्द एक-दूसरे से अत्यंत हिले-मिले तथा एक प्राण दो देह थे। परंतु एक स्त्री उन दोनो की फूट और विनाश का कारण बनी। मेरा तुमलोगों पर अतिशय अनुराग और स्नेह है। इसलिये मैं तुमलोगों से यह बात कह रहा हूँ कि तुम ऐसा नियम बना लो, जिससे द्रौपदी के कारण तुमलोगों में झगड़ा होने का कोई अवसर ही न आये। देवर्षि नारद की बात सुनकर पाण्डवों ने उसका अनुमोदन किया और उनके सामने ही यह प्रतिज्ञा की कि एक नियमित समय तक हर एक भाई के पास द्रौपदी रहेगी। जब एक भाई द्रौपदी के साथ एकान्त में होगा, तब दूसरा भाई वहाँ न जायगा। यदि कोई भाई वहाँ जाकर द्रौपदी के एकान्तवास को देख लेगा तो उसे ब्रह्मचारी होकर बारह वर्ष तक वन में रहना होगा। पाण्डवों के नियम कर लेने पर नारदजी प्रसन्नता के साथ वहाँ से चले गये। 

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