Friday 21 August 2015

वनपर्व---पुरोहित धौम्य के आदेशानुसार युधिष्ठिर की सूर्योपासना और अक्षय-पात्र की प्राप्ति

पुरोहित धौम्य के आदेशानुसार युधिष्ठिर की सूर्योपासना और अक्षय-पात्र की प्राप्ति


 शौनकजी का यह उपदेश सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर अपने पुरोहित धौम्य के पास आ गये और अपने भाइयों के सामने उनसे कहने लगे 'भगवन् ! वेदों के बड़े-बड़े पारदर्शी मेरे साथ वन में चल रहे हैं। उनके पालन-पोषण की मुझमें सामर्थ्य नहीं है, इससे मैं बहुत दुःखी हूँ। न तो मैं उनका पालन-पोषण ही कर सकता हूँ और न उन्हें छोड़ ही सकता हूँ। ऐसी परिस्थिति में मुझे क्या करना चाहिये, आप कृपा करके बताइये।' धर्मराज युधिष्ठिर का प्रश्न सुनकर पुरोहित धौम्य ने योगदृष्टि से कुछ समय तक इस विषय पर विचार किया। तदन्तर धर्मराज को संबोधन करके कहा--'धर्मराज ! सृष्टि के प्रारंभ में जब सभी प्राणी भूख से व्याकुल हो रहे थे, तब भगवान् सूर्य ने दया करके पिता के समान अपने किरण-करों से पृथ्वी का रस सींचा और फिर दक्षिणायन के समय उसमें प्रवेश किया। इस प्रकार जब उन्होंने क्षेत्र तैयार कर दिया, तब चन्द्रमा ने उसमें औषधियों का बीज डाला और उसी के फलस्वरूप अन्न की उत्पत्ति हुई। उसी अन्न से प्राणियों ने अपनी भूख मिटायी। धर्मराज ! कहने का तात्पर्य यह है कि सूर्य की कृपा से अन्न उत्पन्न होता है। सूर्य ही समस्त प्राणियों की रक्षा करते हैं। वही सबके पिता हैं। इसलिये तुम भगवान् सूर्य की शरण ग्रहण करो और उनके कृपाप्रसाद से ब्राह्मणों का पोषण करो।' पुरोहित धौम्य ने धर्मराज को सूर्य की अराधन पद्धति बतलाते हुए कहा--'मैं तुम्हें सूर्य के एक सौ आठ नाम बतलाता हूँ। सावधान होकर श्रवण करो--सूर्य, अर्यमा, भग, त्वष्टा, पूषा, अर्क, सविता, रवि, गभस्तिमान, अज, काल, मृत्यु, धाता, प्रभाकर, पृथ्वी-जल-तेज-वायु-आकाश-स्वरूप, सोम, बृहस्पति, शुक्र, बुध, मंगल, इन्द्र, विवस्वान्, दीप्तांशु, शुचि, शौरी, शनैश्वर, ब्रह्मा, विष्णु,रुद्र, स्कंद, यम, वैद्युत, अग्नि, जाठर, अग्नि, ऐन्धन, तेजस्वी, धर्मध्वज, वेदकर्ता, वेदांग, वेदवाहन, सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि, कला, काष्ठा, महूर्त, क्षपा, याम, क्षण, संवत्सरकर, अश्र्वत्व, कालचक्र, विभावसु, शाश्वत पुरुष, योगी, व्यक्त, अव्यक्त, सनातन, कालाध्यक्ष, प्रजाध्यक्ष, विश्र्वकर्मा, तमोनुद, वरुण, सागर, अंश, जीमूत, जीवन, अरिह्य, भूताश्रेय, भूतपति, सर्वोलोकनमस्कृत, त्रष्टा, संवर्तक, वाह्लि, सर्वादि, अलोलुप, अनंत, कपिल, भानु, कामद, सर्वतोमुख, शय, विशाल, वरद, सर्वधातुनिषेचिता, मन, सुपर्ण, भूतादि, शीघ्रग, प्राणधारक, धन्वन्तरि, धूमकेतू, आदिदेव, अदितिपुत्र, द्वादशात्मा, अरविन्दाक्ष, माता-पिता-पितामह-स्वरूप, स्वर्गद्वार, प्रजाद्वार, मोक्षद्वार, त्रिविष्टप, देहकर्ता, प्रशान्तात्मा, विश्वत्मा, विश्र्व्तोमुख, चराचरात्मा, सूक्षात्मा, मैत्रेय और करुणान्वित। महर्षि धौम्य ने इस तरह सूर्य के एक सौ आठ नाम बताये। उन्होंने कहा कि ब्रह्माजी ने स्वयं इनका वर्णन किया है। जो मनुष्य सूर्योदय के समय एकाग्र होकर इसका पाठ करता है उसे स्त्री, पुत्र, धन, रत्नों की राशि, पूर्व-जन्म का स्मरण, धैर्य, और श्रेष्ठ-बुद्धि की प्राप्ति होती है। इन नामों का उच्चारण करके भगवान् सूर्य को नमस्कार करना चाहिये। जो मनुष्य पवित्र होकर शुद्ध और एकाग्र मन से भगवान् सूर्य की इस स्तुति का पाठ करता है, वह समस्त शोकों से मुक्त होकर अभीष्ट वस्तु प्राप्त करता है। पुरोहित धौम्य की बात सुनकर संयमी एवं दृढव्रती धर्मराज ने शास्त्रोकत सामग्रियों से भगवान् सूर्य की अराधना एवं तपस्या की। वे स्नान करके भगवान् सूर्य के सामने खड़े हुए और आचमन, प्राणायाम आदि करके भगवान् सूर्य की स्तुति करने लगे। युधिष्ठिर ने कहा--'सूर्यदेव ! आप सारे जगत् के नेत्र हैं। समस्त प्राणियों के आत्मा हैं। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, यक्ष सभीवर पाने की अभिलाषा से आपके दिव्य रथ के पीछे-पीछे चलते हैं। जितने भी ज्योतिर्मय पदार्थ हैं, वे सब आपके अन्तर्गत हैं। भगवान् विष्णु जिस चक्र के द्वारा असुरों का घमण्ड चूर करते हैं वह आपके ही अंश से बना हुआ है। आप ग्रीष्म ऋतु में अपनी किरणों से समस्त औषधि, रस और प्रणियों का तेज खींच लेते हैं और वर्षा ऋतु में लौटा देते हैं; बर्षा ऋतु में आपकी ही बहुत सी किरणें तपती हैं, जलाती हैं और गरजती हैं। वे ही बिजली बनकर चमकती हैं और बादलों के रूप में बरसती भी हैं। जाड़े से ठिठुरते हुए पुरुष को अग्नि से, ओढनों और कम्बलों से वैसा सुख नहीं मिलता जैसा आपकी किरणों से मिलता है। यदि आपका उदय न हो तो सारा जगत् अंधा हो जाय। जो सप्तमी अथवा षष्ठी के दिन प्रसन्नता और भक्ति से आपकी पूजा करता है तथा अहंकार नहीं करता उसे लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। आपके भक्त समस्त रोगों से रहित, पापों से मुक्त एवं चिरंजिवी होते हैं। युधिष्ठिर कहते हैं, हे अन्नपते ! मैं श्रद्धापूर्वक सबको अन्न देना और सबका आतिथ्य करना चाहता हूँ। मुझे अन्न की कामना है। आप कृपा करके मेरी अभिलाषा पूर्ण कीजिये। जब धर्मराज युधिष्ठिर ने भुवनभास्कर भगवान् अंशुमाली की इस प्रकार स्तुति की, तब उन्होंने प्रसन्न होकर अपने अग्नि के समान देदिप्यमान श्रीविग्रह से उनको दर्शन दिया और कहा, 'युधिष्ठिर ! तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण हो। देखो, यह ताँबे का बर्तन मैं तुम्हें देता हूँ। तुम्हारे रसोईघर में जो कुछ फल, मूल, शाक आदि चार प्रकार की भोजन सामग्री तैयार होगी वह तब तक अक्षय रहेगी जब तक द्रौपदी परसती रहेगी। आज के चौदहवें वर्ष में तुम्हे अपना राज्य मिल जायगा। ' इतना कहकर भगवान् सूर्य अन्तर्ध्यान हो गये। जो पुरुष संयम और एकाग्रता के साथ किसी अभिलाषा से इस स्तोत्र का पाठ करता है, भगवान् सूर्य उसकी इच्छा पूर्ण करते हैं। इस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान् सूर्य से वर प्राप्त किया। तदन्तर जल से बाहर निकलकर धौम्य को प्रणाम करके भाइयों से मिले। तदन्तर वह पात्र द्रौपदी को दे दिया। रसोई तैयार हुई। थोड़ा सा पकाया हुआ अन्न भी उस पात्र के प्रभाव से बढ जाता और अक्षय हो जाता। उसी से धर्मराज युधिष्ठिर ब्राह्मणों को भोजन कराने लगे। धर्मराज युधिष्ठिर ब्राह्मणों के भोजन के पश्चात् भाइयों को खिलाकर तब यज्ञ से बचे हुए अमृत के समान अन्न का भोजन करते। युधिष्ठिर के बाद द्रौपदी भोजन करती। तब उस पात्र का अन्न समाप्त हो जाता। इस प्रकार युधिष्ठिर भगवान् सूर्य से अक्षय पात्र प्राप्त करके ब्राह्मणों की अभिलाषा पूर्ण करने लगे। पर्वों पर यज्ञ होने लगे। कुछ दिनों बाद उन्होंने सबके साथ काम्यक वन की यात्रा की।।

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