Saturday 15 August 2015

आदिपर्व---द्रौपदी-स्वयंवर


द्रौपदी-स्वयंवर
पाण्डव अपनी माता के साथ द्रुपद के श्रेष्ठ देश, उनकी पुत्री द्रौपदी और उसके स्वयंवर महोत्सव को देखने के लिये रवाना हुए, तब मार्ग में एक साथ ही बहुत से मुनियों के दर्शन हुए। उन्होंने पाण्डवों से पूछा, आपलोग कहाँ से चलकर किस स्थान को जा रहे है। युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, हम सब भाई एक साथ ही रहते हैं और इस समय एकचक्र नगरी से आ रहे हैं। उन्होंने कहा, आपलोग आज ही राजा द्रुपद की राजधानी में चलिये, वहाँ बहुत बड़ा उत्सव होनेवाला है। हम भी वहीं चल रहे हैं । आइये साथ-साथ चलें। युधिष्ठिर ने उनकी बात स्वीकार कर ली और सभी साथ चलने लगे। कुछ आगे चलने पर उन्हें महर्षि वेदव्यास के भी दर्शन हुए। रास्ते में बहुत से हरे-भरे जंगल और खिले कमलों से शोभायमान सरोवर देखते हुये तथा स्थान-स्थान पर विश्राम करते हुए सब लोग आगे बढने लगे।साथियों के पाण्डवों के पवित्र चरित्र मधुर स्वभाव, मीठी वाणी और स्वाध्यायशीलता से बहुत प्रसन्नता हुई। जब पाण्डवों ने देखा कि द्रुपदनगर निकट आ गया है और उसकी चहारदीवारी स्पष्ट दीख रही है, तब उन्होंने एक कुम्हार के घर डेरा डाल दिया। वे वहाँ रहने लगे। किसी भी नागरिक को यह बात मालूम नहीं हुई कि ये पाण्डुपुत्र हैं। राजा द्रुपद के मन में इस बात की बड़ी लालसा थी कि मेरी पुत्री द्रौपदी का विवाह किसी-न-किसी प्रकार अर्जुन के साथ हो। परंतु उन्होने अपना यह विचार किसी पर प्रकट नहीं किया। अर्जुन को पहचानने के लिये उन्होंने एक ऐसा धनुष बनवाया, जो किसी दूसरे से झुक न सके। इसके अतिरिक्त उन्होंने आकाश में एक ऐसा यंत्र टंगवा दिया, जो चक्कर काटता रहता था। उसी के ऊपर वेधने का लक्ष्य रखा गया। द्रुपद ने घोषणा कर दी कि जो वीर रत्न इस धुष पर डोरी चढाकर इन सजे हुए बाणों से घूमनेवाले यंत्र के छिद्र में लक्षयवेध करेगा वही मेरी पुत्री को प्राप्त करेगा। स्वयंवर का मंडप नगर के ईशान कोण में एक समतल और सुन्दर स्थान पर बनवाया गया था। उसके चारों ओर बड़े-बड़े महल ,परकोटे,खाइयाँ और फाटक बने हुए थे। उनके चारों ओर बंदनवारें लटक रहीं थी।भीतों की ऊँचाई और रंग-बिरंगी चित्रकला के कारण वे महल हिमालय जैसे जान पड़ते थे। राजा द्रुपद द्वारा आमंत्रित नरपति और राजकुमार स्वयंवर-मंडप में आकर अपने लिये बनाये हुए विमानों के समान मंचों पर बैठने लगे। युधिष्ठिर आदि पाण्डव भी बराह्णों के साथ राजा द्रुपद के वैभव देखते हुए वहाँ आये और उन्हीं के साथ बैठ गये।वह उत्सव का सोलहवाँ दिन था। द्रुपदकुमारी कृष्णा सुन्दर वस्त्र और आभूषणों से सज-धज कर हाथ में सोने का वरमाला लिये मंद-गति से रंग-मण्डप में आयी। धृष्टधुम्न ने अपनी बहिन के पास खड़े होकर गम्भीर, मधुर और प्रिय वाणी से कहा, स्वयंवर के उद्देश्य से समागत नरपतियों और राजकुमारों, आपलोग ध्यान देकर सुनें। यह धनुष है, ये वाण हैं और यह आपलोगों के सामने लक्ष्य है। आपलोग घूमते हुए यंत्र के छिद्र में से अधिक-से-अधिक पाँच वाणों के द्वारा लक्ष्यवेध कर दें। जो बलवान्, रूपवान और कुलीन पुरुष यह महान् कर्म करेगा, मेरी प्यारी बहिन द्रौपदी उसकी अर्धांगिनी बनेगी। मेरी बात कभी झूठी नहीं हो सकती। यह घोषणा करने के अनन्तर धृष्टधुम्न ने द्रौपदी की ओर देखकर कहा, बहिन देखो, धृतराष्ट्र के बलवान् पुत्र दुर्योधन, दुर्विषह, विकर्ण, युयुत्सु आदि वीरवर कर्ण को साथ लेकर तुम्हारे लिये यहाँ आये हैं। बड़े-बड़े यशस्वी और कुलीन नरपति जिसमें शकुनि, वृषक्, बृहद्वल आदि प्रधान हैं स्वयंवर में तुम्हे पाने के लिये यहाँ आये हैं। अश्त्थामा, भोज, मणिमान्, जयत्सेन, विराट, चेकितान, भगदत्त, शल्य, शिशुपाल, जरासन्ध और बहुत से सुप्रसिद्ध महाराजा यहाँ उपस्थित हैं। धृष्टधुम्न का वक्तव्य सुनकर दुर्योधन, शाल्व, शल्य आदि राजा और राजकुमारों ने अपने बल, शिक्षा, गुण और क्रम के अनुसार धनुष को झुकाकर डोरी चढाने की चेष्टा की, परन्तु उन्हें ऐसा झटका लगा कि वे धमाक-धमाक धरती पर जा गिरे। बेहोशी के कारण उनका उत्साह तो टूट ही गया, साथ ही उनके मुकुट और हार भी गिर पड़े।दम फूल गया। वे द्रौपदी को पाने की आशा छोड़कर अपने-अपने स्थान पर बैठ गये। दुर्योधन आदि को निराश और उदास देखकर कर्ण उठा। उसने धनुष के पास जाकर झटपट उसे उठाया और देखते-देखते डोरी चढा दी। वह क्षणभर में ही लक्ष्य को वेध देता कि द्रौपदी जोर से बोल उठी, मैं सूतपुत्र को नहीं वरूँगी। कर्ण ने यह सुनकर ईर्ष्याभरी हँसी के साथ सूर्य को देखा और फड़कते हुए धनुष को नीचे रख दिया। जब इस प्रकार बहुत से लोग निराश हो गये, तब शिशुपाल धनुष उठाने के लिये आया। किन्तु धनुष उठाने के समय ही वह घुटनों के बल नीचे जा पड़ा। जरासन्ध की भी वही दशा हुई और वह उसी समय राजधानी के लिये प्रस्थान कर गया। मद्र देश के राजा शल्य की भी वही गति हुई, जो शिशुपाल की हुई थी। जब इस प्रकार बड़े-बड़े प्रभावशाली राजा लक्ष्यवेध न कर सके, सारा समाजसहम गया, लक्ष्यवेध की बातचीत तक बन्द हो गयी। उसी समय अर्जुन के मन में यह संकल्प उठा कि अब मैं चलकर लक्ष्यवेध करूँ।     






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