Monday 17 August 2015

सभापर्व---मायासुर की प्रार्थना-स्वीकृति एवं भगवान् श्रीकृष्ण का द्वारका-गमन

सभापर्व
मायासुर की प्रार्थना-स्वीकृति एवं भगवान् श्रीकृष्ण का द्वारका-गमन
     अब मायासुर ने श्रीकृष्ण के पास बैठे हुए अर्जुन की बार-बार प्रशंसा की और हाथ जोड़कर मधुर वाणी से कहा--वीरवर अर्जुन, भगवान् श्रीकृष्ण अपना चक्र चलाकर मुझे मार डालना चाहते थे और अग्निदेव चाहते थे कि इसे जला डालूँ। आपने मेरी रक्षा की। अब कृपा करके बतलाइये कि मैं आपकी क्या सेवा करूँ।अर्जुन ने कहा--असुरश्रेष्ठ, हमलोग तुमपर प्रसन्न हैं। तुम भी हमपर प्रसन्न रहना। अब तुम जा सकते हो। मायासुर ने कहा, कुन्तीनन्दन, आपका कहना आप जैसे श्रेष्ठ पुरुष के अनुरूप ही है। परन्तु मैं बड़े प्रेम से आपकी सेवा करना चाहता हूँ। मैं दानवों का विश्वकर्मा हूँ, प्रधान शिल्पी हूँ, आप मेरी सेवा स्वीकार कीजिये। अर्जुन ने कहा, मायासुर, तुम ऐसा समझते हो कि मैने प्राण संकट से तुम्हारी रक्षा की है। ऐसी अवस्था में मैं तुम्हारी कोई सेवा स्वीकार नहीं कर सकता। साथ ही मैं तुम्हारी अभिलाषा भी नष्ट करना नहीं चाहता। इसलिये तुम भगवान् श्रीकृष्ण की कुछ सेवा कर दो। इसी से मेरी सेवा हो जायगी। जब मायासुर ने भगवान् श्रीकृष्ण से प्रार्थना की, तब उन्होंने कुछ समय तक इस बात पर विचार किया कि मायासुर से कौन-सा काम लेना चाहिये। उन्होंने मन-ही-मन निश्चय करके मायासुर से कहा, मायासुर, तुम शिल्पिों में श्रेष्ठ हो। यदि तुम धर्मराज युधिष्ठिर का प्रिय कार्य करना चाहते हो तो अपनी रुचि के अनुसार उनके लिये एक सभा बना दो।वह सभा ऐसी हो कि चतुर शिल्पी भी देखकर उसकी नकल न कर सके। उसमें देवता, मनुष्य एवं असुरों का संपूर्ण कला कौशल प्रकट होना चाहिये। भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञा सुनकर मायासुर को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने वैसी ही सभा बनाने का निश्चय किया। इसके बाद  भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन ने यह बात धर्मराज युधिष्ठिर से कही और मायासुर को उनके पास ले गये। युधिष्ठिर ने उसका यथायोग्य सत्कार किया। मायासुर ने धर्मराज युधिष्ठिर को दैत्यों के विभिन्न चरित्र सुनाये। कुछ दिन वहाँ ठहरकर भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन की सलाह के अनुसार सभा बनाने के संबंध में विचार किया और फिर शुभ-मुहूर्त में मंगल अनुष्ठान, न आदि करके सर्वगुणसम्पन्न एवं दिव्य सभा का निर्माण करने के लिये दस हजार हाथ चौड़ी जमीन नाप ली। भगवान् श्रीकृष्ण कुछ दिन वहाँ रहकर द्वरका जाने का विचार किया और युधिष्ठिर की अनुमति प्राप्त की। भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी फूफी कुन्ती के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और उन्होंने उनका सिर सूँघकर उन्हें हृदय से लगा लिया। इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण अपनी बहिन सुभद्रा के पास गये। उस समय प्रेमवश उनके आँखों में आँसू छलछला आये थे। भगवान् ने अपनी मधुरभाषिणी सौभाग्यवती सुभद्रा को बहुत थोड़े में सत्य, प्रयोजनपूर्ण, हितकारी और युक्तियुक्त वचनों से जाने की आवश्यकता समझा दी। सौभाग्यवती सुभद्रा ने माता-पिता आदि से कहने के लिये संदेश दिये और अपने भाई श्रीकृष्ण का सत्कार करके उन्हें प्रणाम किया। भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी बहिन को प्रसन्न करके जाने की अनुमति ली और पुरोहित धौम्य के पास गये। पुरोहित धौम्य को प्रणाम करके द्रौपदी का ढाढस बढाया और उसे अनुमति लेकर पाण्डवों के पास गये। अपने फुफेरे भाई पाण्डवों के साथ श्रीकृष्ण की वैसी ही शोभा हुई, जैसी देवताओं के बीच देवराज इन्द्र की। भगवान् श्रीकृष्ण ने यात्रा के समय किये जानेवाले कर्म प्रारम्भ किये। उन्होंने स्नानादि से निवृत होकर आभूषण धारण किये और पुष्पमाला, गन्ध नमस्कार आदि से देवता एवं ब्राह्मणो की पूजा की। जब सब काम समाप्त हो चुका, तब वे बाहर की ड्योढी पर आये। फिर वे सोने के रथ पर सवार हुए। वह शीघ्रगामी रथ गरुड़चिह्न से चिह्नित ध्वजा, गदा, चक्र, तलवार आदि आयुधों से युक्त था। उसमें शैव्य, सुग्रीव आदि घोड़े जुते हुए थे। रथ के चलने के पूर्व राजा युधिष्ठिर बड़े प्रेम से उसपर चढ गये और भगवान् के श्रेष्ठ सारथी दारुक को हटाकर उन्होंने स्वयं घोड़े की रास अपने हाथ में ले ली। अर्जुन भी उछलकर उस रथ पर सवार हो गये और अपने हाथ में श्वेत चँवर की सोने की डाँड़ी पकड़कर उसे डुलाने लगे। भीमसेन, नकुल, सहदेव, ऋत्विज एवं पुरवासियों के साथ रथ के पीछे-पीछे चलने लगे। उस समय अपने फुफेरे भाइयों के साथ भगवान् श्रीकृष्ण की झाँकी ऐसी मनोहर हुई, मानो अपने प्रेमी शष्यों के साथ स्यंगुरुदेव ही यात्रा कर रहे हों। अर्जुन भगवान् के विछोह से बड़े ही व्यथित हो रहे थे। भगवान् ने उन्हें हृदय से लगाकर बड़ी कठिनाई से जाने की अनुमति दी। युधिष्ठिर और भीमसेन का सम्मान किया, उनलोगों ने उन्हें अपनेहृदय से लगाया। नकुल सहदेव ने उनके चरणों में नमस्कार किया। अचानक रथ दो कोस दूर जा चुका था। भगवान् ने इसी प्रकार युधिष्ठिर को लौटने के लिये राजी किया और धर्म के अनुसार उनके चरण छूकर नमस्कार किया। युधिष्ठिर ने उन्हें उठाकर सिर सूँघा और उनको जाने की अनुमति दी।भगवान् श्रीकृष्ण ने उनसे पुनः लौटने की प्रतिज्ञा की, किसी प्रकार अनुचरों के साथ उनको लौटाया और फिर द्वारका की यात्रा की।जहाँ तक रथ दीखता रहा, पाण्डवों के नेत्र उन्हीं की ओर एकटक लगे रहे और वे मन-ही-मन उनके पीछे चलते रहे। अभी पाण्डव का प्रेमपूर्ण मन अतृप्त ही था कि भगवान् श्रीकृष्ण उकी आँखों से ओझल हो गये। पाण्डवों के मन में कोई स्वार्थ नहीं था। फिर भी उनके मन की समस्त वृत्तियाँ श्रीकृष्ण की ओर ही बही जा रही थीं। उनके चले जानेपर वे चुपचाप लौटकर अपनी नगरी में चले आये। भगवान् श्रीकृष्ण का गरुड़ के समान शीघ्रगामी रथ भी द्वारका की ओर बढने लगा। उनके साथ दारुक सारथी के अतिरिक्त यदुवंशी वीर सात्यकि भी थे। कुछ ही समय में भगवान् श्रीकृष्ण बड़े आनन्द से द्वारका पहुँच गये।उग्रसेन आदि यदुवंशियों ने नगर के बाहर आकर उनका सम्मान किया। भगवान् ने राजा उग्रसेन, माता, पिता और भाई बलरामजी क क्रमशः नमस्कार किया और अपने पुत्र प्रद्युम्न, साम्ब, चारुदेष्ण आदि को हृदय से लगाकर गुरुजनों की आज्ञा के अनुसार रुक्मिणी के महल में प्रवेश किया।


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