Saturday 15 August 2015

आदिपर्व---अर्जुन का लक्ष्यवेध और उनके तथा भीमसेन के द्वारा अन्य राजाओंकी पराजय

अर्जुन का लक्ष्यवेध और उनके तथा भीमसेन के द्वारा अन्य राजाओंकी पराजय           अर्जुन खड़े हो गये। परम सुन्दर और वीर अर्जुन को धनुष चढाने के लिये तैयार देखकर ब्राह्मण लोग चकित रह गये। कोई सोचने लगा कि कहीं यह हमारी हँसी न करा दे। कहीं राजा लोग इसी के कारण ब्राह्मणों से द्वेष न करने लगे। कोई-कोई कहने लगा कि यह उत्साही वीर है, इसका मनोरथ पूर्ण होगा। देखो यह सिंह के समान चलता है, गजराज के समान बलवान है, यह सबकुछ कर सकता है। यदि इसमें शक्ति न होती तो ऐसी हिम्मत क्यों करता। ब्राह्मण अपनी शक्ति से छोटे बड़े सभी तरह के काम कर सकता है। परशुराम ने युद्ध में क्षत्रियों को जीत लिया, अगस्त्य ने समुद्र पी लिया। इसे आपलोग आशीर्वाद दें कि वह लक्ष्यवेध कर ले। जिस समय इस तरह की बातें हो रही थीं अर्जुन धनुष के पास पहुँच गये। उन्होंने धनुष की प्रदक्षिणा की, भगवान् शंकर और श्रीकृष्ण को सिर झुकाकर मन-ही-मन प्रणाम किया और धनुष को उठा लिया। जिस धनुष को बड़े-बड़े वीर नहीं उठा सके, उसी धनुष को अर्जुन बिना परिश्रम उठा लिया और बात-ही-बात में डोरी चढा ली। अभी लोगों की आँखें अर्जुन पर ठीक-ठीक जम भी नहीं पायी थीं कि उन्होंने पाँच बाण उठाकर उनमें से एक लक्ष्य पर चलाया और वह यन्त्र के छिद्र में होकर जमीन पर गिर पड़ा। चारों तरफ कोलाहल होने लगा, अर्जुन के सिर पर दिव्य पुष्प की वर्षा होने लगी। अर्जुन को देखकर द्रुपद की प्रसन्नता की सीमा न रही। उन्होंने मन-ही-मन निश्चय कर लिया कि अवसर पड़ने पर मैं अपनी संपूर्ण सेना के साथ इस वीर की सहायता करूँगा। जब युधिष्ठिर ने देखा कि अर्जुन ने अपना काम कर लिया तब वे झट नकुल और सहदेव को लेकर वहाँ से अपने निवासस्थान पर चले गये। द्रौपदी हाथ में वरमाला लेकर प्रसन्नता के साथ अर्जुन के पास गयी और उसे उनके गले में डाल दिया। ब्राह्मणों ने अर्जुन का सत्कार किया और वे द्रौपदी के साथ रंगभूमि से बाहर निकले। जब राजाओं ने देखा कि राजा द्रुपद तो अपनी कन्या का विवाह एक ब्राह्मण के साथ करना चाहते हैं,तब वे बहुत क्रोधित हुए और एक-दूसरे से कहने लगे---देखो तो सही,राजा द्रुपद हमलोगों को तिनके की तरह तुच्छ समझकर अपनी श्रेष्ठ कन्या का विवाह एक  ब्राह्मण के साथ कर देना चाहता है। हमलोगों को बुलाकर ऐसा तिरस्कार तो नहीं करना चाहिये न। यह हमें कछ नहीं समझता, इसलिये इसकी परवा न करके इसको मार डालना ही उचित है। इस राजद्रोही दुरात्मा को छोड़ने का कोई कारण नहीं। क्या हमलोगों में से एक भी ऐसा नहीं है जिसे यह अपनी पुत्री के योग्य समझे। स्वयंवर क्षत्रियों के लिये है, उसमें ब्राह्मण के आने का कोई अधिकार नहीं। यदि यह कन्या हमलोगों का वरण नहीं करती तो इसे आग में डाल दिया जाय। ब्राह्मणकुमार ने चपलतावश हमलोगों का अप्रिय किया है। परंतु उसे तो ब्राह्मण के नाते छोड़ देना ही उचित है। राजाओं ने ऐसा निश्चय करके अपने-अपने शस्त्र उठा लिये और द्रुपद को मार डालने के लिये दौड़े। राजाओं को क्रधित देखकर द्रुपद डर गये। वे ब्राह्मणों की शरण में गये।द्रुपद को भयभीत और राजाओं को आक्रमण करते देख भीमसेन और अर्जुन उनके बीच में आ गये, राजाओं ने उन्हीं पर धावा बोल दिया। ब्राह्मणों ने एक स्वर से मृगचर्म और कमण्डलु हिलाते हुए कहा, डरना नहीं, हम तुम्हारे शत्रुओं के साथ लड़ेंगे। अर्जुन ने मुस्कुराकर कहा, आपलोग एक ओर खड़े होकर तमाशा देखते रहिये। इनलोगों के लिये तो मैं ही बहुत हूँ। अर्जुन धनुष चढाकर भीमसेन के साथ पर्वत के समान अविचल भाव से खड़े हो गये। मदोन्नत कर्ण आदि वीरों को सामने आते देख वे उनपर टूट पड़े। अर्जुन और कर्ण का सामना हुआ। अर्जुन ने ऐसे बाण खींच-खींचकर मारे कि कर्ण युद्धभूमि में ही अचेत सा हो गया। दोनो बड़ी वीरता से एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से अपने-अपने हाथों की सफाई दिखलाने लगे। कर्ण ने कहा, अजी आप तो ब्राह्मण होने पर भी ऐसे हाथ दिखलाये कि मेरी प्रसन्नता की सीमा न रही। आपके मुँह पर विषाद का कोई चिह्न नहीं है और हस्त-कौशल भी बड़ा विलक्षण है। आप स्वयं धनुर्वेद अथवा परशुराम तो नहीं हैं। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि मानो स्वयं विष्णु या इन्द्र ही अपने को छिपाकर मुझसे युद्ध कर रहे है। मेरा निश्चय है कि यदि मैं क्रोध में भरकर युद्ध करूँ तो देवराज इन्द्र और पाण्डुनन्दन अर्जुन के सिवा कोई भी मेरा सामना नहीं कर सकता। अर्जुन ने कहा, कर्ण मैं साक्षात् धनुर्वेद या परशुराम नहीं हूँ। मैं समस्त शास्त्रों का रहस्यज्ञ एक श्रष्ठ ब्राह्मण योद्धा हूँ। श्रीगुरुदेव के प्रताप से ब्रह्मास्त्र और इन्द्रास्त्र का मुझे अच्छा अभ्यास है। मैं तुम्हे जीतने के लिये जमकर खड़ा हूँ। तुम अपना जोर आजमाओ। महारथी कर्ण ब्रह्मास्त्रविशारद प्रतिद्वन्दी को अजेय समझकर युद्ध से स्वयं हट गया। जिस समय कर्ण और अर्जुन एक-दूसरे से भिड़े हुए थे, उसी समय दूसरे स्थान पर शल्य और भीमसेन एक-दूसरे को ललकारते हुए मतवाले हाथियों की तरह युद्ध कर रहे थे। आगे खींचकर, पीछे झोंककर एक-दूसरे को गिराने का प्रयत्न करते और तरह-तरह के दाँव करके घूँसों की चोट करते। पत्थरों के टकराने की तरह दोनों के शरीर चटचटा रहे थे। दो घड़ी तक लड़-भिड़कर भीमसेन ने शल्य को धरती पर गिरा दिया। उन्होंने शत्रु को जमीन पर गिराकर भी उसे मारा नहीं। इस प्रकार जब भीमसेन ने शल्य को पछाड़ दिया और कर्ण भी युद्ध से हट गया तब सभी लोग सशंक हो गये। सर्वसम्मति से युद्ध बंद कर दिया गया। भगवान् श्रीकृष्ण ने पहले ही पहचान लिया था कि ये तो पाण्डव हैं, इसलिये उन्होंने सब राजाओं को नम्रता के साथ समझाया कि इस व्यक्ति ने धर्म के अनुसार द्रौपदी को प्राप्त किया इसलिये इससे युद्ध करना उचित नहीं है। भगवान् श्रीकृष्ण के समझाने-बुझाने और भीमसेन के पराक्रम से विस्मित होकर सब लोग युद्ध बन्द करके अपने-अपने निवासस्थान पर लौट गये।


  

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