Sunday 16 August 2015

आदिपर्व---कुन्ती की आज्ञा पर द्रौपदी के विषय में पाण्डवों का विचार तथा श्रीकृष्ण और बलरामजी से भेंट

कुन्ती की आज्ञा पर द्रौपदी के विषय में पाण्डवों का विचार तथा श्रीकृष्ण और बलरामजी से भेंट
                                                    भीमसेन और अर्जुन द्रौपदी को साथ लेकर अपने निवासस्थान कुम्हार के घर की ओर चले।भिक्षा लेकर लौटने का समय बीत चुका था। माता कुन्ती अपने पुत्रों के समय पर न लौटने से तरह-तरह की आशंकाएँ कर रही थी। माता के स्नेहमय हृदय का यह स्वभाव ही है। वे एक बार सोचतीं कि कहीं दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र के पुत्रों ने उनका कुछ अनिष्ट तो नहीं कर दिया, कहीं राक्षसों से तो मुठभेड़ नहीं हो गयी। उसी समय तीसरे पहर भीमसेन और अर्जुन द्रौपदी को साथ लिये कुम्हार के घर पर आये। भीमसेन और अर्जुन ने द्रौपदी के साथ कुम्हार के घर में प्रवेश कर अपनी माता से कहा, माँ, आज हमलोग यह भिक्षा लाये हैं। माता कुन्ती उस समय घर के भीतर थीं। उन्होंने अपने पुत्रों और भिक्षा को देखे बिना ही कह दिया कि, बेटा पाँचों भाई मिलकर उसका उपभोग करो। बाहर निकलकर जब कुन्ती ने देखा कि यह तो साधारण भिक्षा नहीं, राजकुमारी द्रौपदी है, तब उन्हें बड़ा पश्चाताप हुआ। वे कहने लगीं, हाय, हाय मैने क्या किया। वे तुरंत द्रौपदी का हाथ पकड़कर युधिष्ठिर के पास ले गयीं और बोलीं---बेटा, जब भीमसेन और अर्जुन इस राजकुमारी द्रौपदी को लेकर भीतर आये, तब मैनें बिना देखे ही कह दिया कि तुम सब मिलकर उसका उपभोग करो। मैने आजतक कभी कोई बात झूठ नहीं कही है। अब तुम कोई ऐसा उपाय बताओ, जिससे द्रौपदी को तो अधर्म न हो और मेरी बात झूठी भी न हो। युधिष्ठिर ने क्षणभर विचार करके माता कुन्ती को ऐसा ही करने का आश्वासन दिया और अर्जुन को बुलाकर कहा, भाई, तुमने मर्यादा के अनुसार द्रौपदी को प्राप्त किया है। अब विधिपूर्वक अग्नि प्रज्जवलित करके उसका पाणिग्रहण करो। अर्जुन ने कहा,भाईजी आप मुझे अधर्म का भागी मत बनाइये।सत्पुरुषों ने कभी ऐसा आचरण नहीं किया है। पहले आप, तब भीमसेन, तदन्तर मैं विवाह करूँ। फिर मेरे बाद नकुल और सहदेव का विवाह हो। इसलिये इस राजकुमारी का विवाह तो आपके ही साथ होना चाहिये। साथ ही यह भी निवेदन है कि आप अपनी बुद्धि से धर्म, यश और हित के लिये जैसा उचित समझें, वैसी आज्ञा दें। हमलोग आपके आज्ञाकारी हैं। सभी पाण्डव अर्जुन का प्रेम और ममता से भरा वचन सुनकर द्रौपदी को दखने लगे। उस समय द्रौपदी भी उन्हीं लोगों को देख रही थी। द्रौपदी के सौन्दर्य, माधुर्य और सौशील्य से मुग्ध होकर पाँचों भाई एक-दूसरे की ओर देखने लगे। उनके मन में द्रौपदी बस गयी। युधिष्ठिर ने अपने भाइयों की मुखाकृति से उनके मन का भाव जानकर और महर्षि व्यास के वचनों का स्मरण करके निश्चयपूर्वक कहा कि द्रौपदी हम सब भाइयों की पत्नी होगी। इससे सभी  भाइयों को बड़ी प्रसन्नता हुई।वे अपने मन में इसी बात पर विचार करने लगे। भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वयंवर में ही पाण्डवों को पहचान लिया था। अब वे बड़े भाई बलरामजी के साथ पाण्डवों के निवासस्थान पर आये उन्होंने वहाँ पाँचों भाइयों को देखकर पहले धर्मराज युधिष्ठिर के चरणों का स्पर्श किया और अपने-अपने नाम बतलाये। पाण्डवों ने बड़े प्रेम से उनका स्वागत सत्कार किया। दोनों भाइयों ने अपनी बुआ कुन्ती के चरणों में प्रणाम किया। युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण से कुशल-प्रश्न के अनन्तर पूछा कि, भगवन्, हमलोग तो यहाँ छिपकर रह रहे हैं। आपने हमें कैसे पहचान लिया। भगवान् श्रीकृष्ण  ने हँसते हुए कहा, महाराज, क्या लोग छिपी हुई आग को नहीं ढूँढ लेते। आज भीमसेन और अर्जुन ने जिस पराक्रम का परिचय दिया है वह पाण्डवों के अतिरिक्त किसमें सम्भव है। यह बड़े सौभाग्य और आनंद की बात है कि दुर्योधन और उसके मंत्री पुरोचन की अभिलाषा पूरी न हुई। आपलोग लाक्षाभवन की आग से बच निकले। आपके संकल्प पूर्ण हो, आपका निश्चय सार्थक हो। अब हमलोग यहाँ अधिक देर तक रहेंगे तो लोगों को पता चल जायगा। इसलिये हमलोगों को अपने डेरे पर जाने की अनुमति दीजिये। युधिष्ठिर की अनुमति से भगवान् श्रीकृष्ण और बलदेव उसी समय लौट गये। जिस समय भीमसेन और अर्जुन द्रौपदी को साथ लेकर कुम्हार के घर जा रह थे,उस समय राजकुमार धृष्टधुम्न छिपकर उनके --दुर्योधन, सुन, यदि महायुद्ध में तेरी यह जाँघ भीमसेन ने अपनी गदा से नहीं तोड़ दी तो वह अपने पूर्वपुरुषों के समान सद्गति न प्राप्त करे। पीछे-पीछे चलने लगा था। उसने सब ओर अपने कर्मचारियों को नियुक्त कर दिया और स्वयं सजग होकर पाण्डवों के पास ही बैठ रहा। वह पाण्डवों के सब काम बड़ी सावधानी से देख रहा था। चारों भाइयों ने भिक्षा लाकर अपने बड़े भाई युधिष्ठिर के सामने रख दी।कुन्ती ने द्रौपदी से कहा, कल्याणी, पहले तुम इस भिक्षा में से देवताओं का अंश निकालो, आश्रितों को बाँटो। बचे हुए अन्न का आधा भीमसेन को दे दो। आधे में छः हिस्से करके हमलोग खा लें। साध्वी द्रौपदी ने अपनी सास की आज्ञा से किसी प्रकार की शंका किये बिना प्रसन्नता से उसका पालन किया। भोजन के पश्चात् सबके लिये कुशासन बिछाया। सबने अपने-अपने मृगचर्म बिछाये और धरती पर ही पड़े रहे। पाण्डवों ने अपना सिरहाना दक्षिण दिशा की ओर किया। सिर की ओर माता कुन्ती और पैरों की ओर राजकुमारी द्रौपदी सोयीं। सोते समय वे लोग आपस में रथ, हाथी, तलवार, गदा आदि की ऐसी विचित्र-विचित्र बातें कर रहे थे, मानो कोई सेनाधिकारी हों।

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