Monday 17 August 2015

सभापर्व---राजसूय यज्ञ के सम्बन्ध में विचार

 राजसूय यज्ञ के सम्बन्ध में विचार
    धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ राजसूय यज्ञ की चिंता में लग गये। उन्होंने अपने धर्म का विचार किया और जिस प्रकार प्रजा की भलाई हो वही करने लगे। वे किसी का भी पक्ष नहीं करते थे। उन्होंने आज्ञा कर दी कि क्रोध और अभिमान छोड़कर सबका पावना चुका दिया जाय। सारी पृथ्वी में युधिष्ठिर का जय-जयकार होने लगा। धर्मराज युधिष्ठिर के साधु-व्यवहार से प्रजा उनपर पिता के समान विश्वास करने लगी। उनके साथ किसी की शत्रुता न रही, इसलिए वे अजातशत्रु कहलाने लगे। युधिष्ठिर ने सबको अपना लिया। भीमसेन सबकी रक्षा में और अर्जुन शत्रुओं के संहार में तत्पर रहते। सहदेव धर्मानुसार शासन करते और नकुल स्वभाव से ही सबके सामने झुक जाते। उनकी प्रजा में वैर-विरोध, भय-अधर्म बिलकुल नहीं रहे। सभी अपने कर्तव्य में संलग्न थे। समय पर वर्षा होती,सब सुखी थे।उस समय यज्ञ की शक्ति,गो-रक्षा,खेती और व्यापार की उन्नति चरम सीमा पर पहुँच गयी। प्रजा पर कर बाकी नहीं रहता।रोग,अग्नि या मूर्छा का किसी को भय नहीं था।लुटेरे,ठगऔर मुँहलगे प्रजा पर किसी प्रकार का अत्याचार या उनके साथ झूठा व्यवहार नहीं कर पाते।धर्मात्मा युधिष्ठिर जिस राज्य पर अधिकार प्राप्त कर लेते वहाँ की सारी प्रजा उनसे प्रेम करने लगती थी।धर्मराज ने अपने मंत्री और भाइयों को बुलाकर पूछा कि राजसूय यज्ञ के संबंध में आपलोगों की क्या सम्मति है।मंत्रियों ने एक स्वर से कहा कि राजसूय यज्ञ के अभिषेक से राजा सारी पृथ्वी का एकछत्र स्वामी हो जाता है। राजसूय यज्ञ करने का यही अवसर भी है। जो बलवान् है वही इस यज्ञ का अधिकारी है। इसलिये आप अवश्य यह यज्ञ कीजिये।इसमें विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मंत्रियों की बात सुनकर धर्मराज ने अपने भाई, ऋत्विज, धौम्य एवं श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास आदि से परामर्श किया। सभी लोगों ने यही परामर्श दिया कि आप राजसूय महायज्ञ करने के सर्वथा योग्य है। सबकी सम्मति सुनकर परम बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर ने सबके कल्याण के लिये स्वयं मन-ही-मन विचार किया। बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि अपनी शक्ति,साधन,देश,काल,आय और व्यय पर भली-भाँति विचार करके सब कुछ निश्चय से ही तो यज्ञ नहीं हो जाता, यह समझकर ही यज्ञ का प्रयत्न करना चाहिये। इस प्रकार मन-ही-मन विचार करते-करते धर्मराज युधिष्ठिर इस निश्चय पर पहुँचे कि भक्त-वत्सल भगवान् श्रीकुष्ण ही इसका ठीक निर्णय निर्णय कर सकते हैं। वे जगत् के समस्त लोकों और लोगों से श्रेष्ठ है, उनका स्वरूप और ज्ञान अगाध है। उनकी शक्ति बेजोड़ है। उन्होंने अजन्मा होने पर भी जगत् का कल्याण करने के लिये लीला से ही जन्म ग्रहण किया है। वे सब-कुछ जानते और सब-कुछ कर सकते हैं। बड़े-से-बड़ा भार भी उनके लिये बहुत ही हल्का है। ऐसा सोचकर उन्होंने मन-ही-मन भगवान् की शरण ली और उनका निर्णय मानने का दृढ निश्चय किया। अब धर्मराज ने त्रिलोक शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण के लिये बड़े आदर से दूत भेजा। दूत शीघ्रगामी रथ पर सवार होकर द्वारका में भगवान् श्रीकृष्ण के पास पहुँचा। भगवान् श्रीकृष्ण ने दूत से बातचीत करके यही निश्चय किया कि धर्मराज युधिष्ठिर मुझसे मिलना चाहते हैं, अतः उनसे स्वयं मिलना चाहिये। उन्होंने उसी समय इन्द्रसेन दूत के साथ इन्द्रप्रस्थ की यात्रा कर दी। भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ शीघ्र ही पहुँचना चाहते थे। इसलिये शीघ्रगामी रथ पर सवार होकर अनेक देशों को पार करते हुए वे इन्द्रप्रस्थ में धर्मराज के पास जा पहुँचे। फुफेरे भाई धर्मराज और भीमसेन ने पिता के समान उनका स्वागत किया। तदन्तर भगवान् श्रीकृष्ण बड़ी प्रसन्नता से अपनी बुआ कुन्ती से मिले। वे अपने प्रेमी मित्र और संबंधियों के साथ बड़े आनन्द से रहने लगे।अर्जुन,सहदेव एवं नकुल गुरु-बुद्धि से उनकी पूजा करने लगे। फुफेरे भाई धर्मराज और भीमसेन ने पिता के समान उनका स्वागत किया। तदन्तर भगवान् श्रीकृष्ण बड़ी प्रसन्नता से अपनी बुआ कुन्ती से मिले। वे अपने प्रेमी मित्र और संबंधियों के साथ बड़े आनन्द से रहने लगे। अर्जुन, सहदेव एवं नकुल गुरु-बुद्धि से उनकी पूजा करने लगे।  

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