Monday 24 August 2015

वनपर्व---नल का रूप बदलना, ऋतुपर्ण के यहाँ सारथी होना, भीमक द्वारा नल दमयन्ती की खोज और दमयन्ती का मिलना।

नल का रूप बदलना, ऋतुपर्ण के यहाँ सारथी होना, भीमक द्वारा नल दमयन्ती की खोज और दमयन्ती का मिलना।

   जिस समय राजा नल दमयन्ती को छोड़कर आगे बढ़े, उस समय वन में दावाग्नि लग रही थी। नल कुछ ठिठक गये, उनके कानों में आवाज आयी---'राजा नल ! शीघ्र दौड़ो। मुझे बचाओ।' नल ने कहा---'डरो मत।' वे दौड़कर दावानल में घुस गये और देखा कि नागराज कर्कोटक कुण्डली बाँधकर पड़ा हुआ है। उसने हाथ जोड़कर नल से कहा---'राजन् ! मैं कर्कोटक नाम का सर्प हूँ। मैने तेजस्वीऋषि नारद को धोखा दिया था। उन्होंने शाप दे दिया कि जबतक राजा नल तुम्हे न उठावें, तब तक यहीं पड़ा रह। उनके उठाने पर तुम शाप से छूट जायगा। उनके शाप के कारण मैं यहाँ से एक पल भी हट-बढ़ नहीं सकता। तुम शाप से मेरी रक्षा करो। मैं तुम्हे हित की बात बताऊँगा और तुम्हारा मित्र बन जाऊँगा। मेरे भार से डरो मत। मैं अभी हल्का हो जाता हूँ।' वह अँगूठे के बराबर हो गया। नल उसे उठाकर दावानल से बाहर ले आये। कर्कोटक ने कहा---'राजन् ! तुम अभी मुझे पृथ्वी पर न डालो। कुछ पगों तक गिनती करते हुए चलो।' राजा ने ज्यों ही पृथ्वी पर दसवाँ पग डाला और कहा 'दश', त्यों ही कर्कोटक नाग ने उन्हें डस लिया। उसका नियम था कि जब कोई 'दश' अर्थात् 'डसो' कहता तभी वह डसता, अन्यथा नहीं। कर्कोटक के डसते ही नल का पहला रूप बदल गया और कर्कोटक अपने रूप में हो गया। आश्चर्यचकित नल से उसने कहा---'राजन् ! तुम्हें कोई पहचान न कर सके, इसलिये मैंने तुम्हारा रूप बदल दिया है, कलयुग ने तुम्हे बहुत दुःख दिया है, अब मेरे विष से तुम्हारे शरीर में वह बहुत दुःखी रहेगा। तुमने मेरी रक्षा की है। अब तुम्हें हिंसक पशु-पक्षी-शत्रु और ब्रह्मवेत्ताओं से भी कोई भय नहीं रहेगा।अब तुमपर किसी भी विष का प्रभाव नहीं होगा और युद्ध में सर्वदा तुम्हारी जीत होगी।अब तुम अपना नाम बाहुक रख लो ध्यूत-कुशल राजा ऋतुपर्ण की नगरी अयोध्या में जाओ। तुम उन्हें घोड़ों की विद्या बतलाना और वे तुम्हे जूए का रहस्य बतला देंगे तथा तुम्हारे मित्र भी बन जायेंगे। जूए का रहस्य जान लेने पर तुम्हारी पत्नी, पुत्री, पुत्र, राज्य सबकुछ मिल जायगा। जब तुम अपने पहले रूप को धारण करना चाहो, तब मेरा स्मरण करना और मेरे दिये हुए वस्त्र धारण कर लेना।' यह कहकर कर्कोटक ने दो दिव्य वस्त्र दिये और वहीं अन्तर्धान हो गया। राजा नल वहाँ से चलकर दसवें दिन राजा ऋतुपर्ण की राजधानी अयोध्या में पहुँच गये। उन्होंने वहाँ राजदरबार में निवेदन किया कि 'मेरा नाम बाहुक है। मैं घोड़ों को हाँकने तथा उन्हें तरह-तरह की चालें सिखाने का काम करता हूँ। घोड़ों की विद्या में मेरे जैसा निपुण इस समय पृथ्वी पर और कोई नहीं है। अर्थ सम्बन्धी तथा अन्याय गम्भीर समस्याओं पर मैं अच्छी सम्मति देता हूँ और रसोई बनाने में भी बहुत ही चतुर हूँ, एवं हस्तकौशल में भी सभी काम तथा और दूसरे भी कठिन कामों को मैं करने की चेष्टा करूँगा। आप मेरी आजीविका निश्चित करके मुझे रख लीजिये।' ऋतुपर्ण ने कहा---'बाहुक ! तुम भले आये। तुम्हारे जिम्मे ये सभी काम रहेंगे। परंतु मैं शीघ्रगामी सवारी को विशेष पसंद करता हूँ, इसलिये तुम ऐसा उद्योग करो कि मेरे घोड़ों की चाल तेज हो जाय। मैं तुम्हे अश्वशाल का अध्यक्ष बनाता हूँ। तुम्हे हर महीने दस हजार सोने की मुहरें मिला करेंगी। इसके अतिरिक्त वाष्णेर्य (नल का पुराना सारथी) और जीवल हमेशा तुम्हारे पास उपस्थित रहेंगे। तुम आनंद से मेरे दरबार में रहो।' राजा ऋतुपर्ण से सत्कार पाकर राजा नल बाहुक के रूप में वाष्णेर्य और जीवल के साथ अयोध्या में रहने लगे। जब विदर्भ नरेश भीमक को यह समाचार मिला कि मेरे दामाद नल राजच्युत होकर मेरी पुत्री के साथ वन में चले गये हैं, तब उन्होंने ब्राह्मणों को बुलवाया और उन्हें बहुत-सा धन देकर कहा कि आपलोग पृथ्वी पर सर्वत्र जा-जाकर पता लगाइये और उन्हें ढ़ूँढ़ लाइये। सुदेव नाम का ब्राह्मण नल-दमयन्ती का पता लगाने क लिये चेदिनरेश की राजधानी में गया। उसने एक दिन राजमहल में दमयन्ती को देख लिया। उस समय राजा के महल में पुण्याहवाचन हो रहा था और दमयन्ती सुनन्दा के साथ बैठकर ही वह मंगलकृत्य देख रही थी। सुदेव ब्राह्मण ने दमयन्ती को देखकर सोचा कि वास्तव में यही भीमक-नन्दनी है। मैने इसका जैसा रूप पहले देखा था, वैसा ही अब भी देख रह हूँ। बड़ा अच्छा हुआ, इसे देखलेने से मेरी यात्रा सफल हो गयी। सुदेव दमयन्ती के पास गया और बोला---'विदर्भनन्दिनी ! मैं तुम्हारे भाई का मित्र सुदेव ब्राह्मण हूँ। राजा भीमक की आज्ञा से तुम्हें ढ़ूँढ़ने यहाँ आया हूँ। तुम्हारे माता-पिता और भाई सानंद हैं। तुम्हारे दोनो बच्चे भी विदर्भ देश में सकुशल हैं। तुम्हारे विछोह से सभी कुटुम्बी प्राणहीन-से हो रहे हैं और तुमहें ढ़ूँढ़ने के लिये सैकड़ों ब्राह्मण पृथ्वी पर घूम रहे हैं।' दमयन्ती ने ब्राह्मण को पहचान लिया। वह क्रम-क्रम से सबका कुशल-मंगल पूछने लगी और पूछते-पूछते ही रो पड़ी। सुनन्दा दमयन्ती को बात करते रोते देखकर घबरा गयी और अपनी माता के पास जाकर सब हाल कहा। राजमाता तुरत अंतःपुर से बाहर निकल आयीं और और पूछने लगीं कि 'महाराज' ! यह किसकी पत्नी है, किसकी पुत्री है, अपने घरवालों से कैसे बिछुड़ गयी है ? तमने इसे पहचाना कैसे ?' सुदेव ने नल-दमयन्ती का पूरा चरित्र सुनाया और कहा कि जैसे राख में दबी हुई आग गर्मी से जान ली जाती है, वैसे ही इस देवी के सुन्दर रूप और ललाट से मैने इसे पहचान लिया है। सुनन्दा ने अपने हाथों से दमयन्ती का ललाट धो दिया, जिससे उसकी भौंहों के बीच का लाल चिह्न चन्द्रमा के समान प्रकट हो गया। ललाट का तिल देखकर सुनन्दा और राजमाता दोनो ही रो पड़ीं। उन्होंने दो घड़ी तक दमयन्ती को अपनी छाती से सटाये रखा। राजमाता ने कहा---'दमयन्ती ! मैने इस तिल से पहचान लिया कि तुम मेरी बहिन की पुत्री हो। तुम्हारी माता मेरी सगी बहिन है। हम दोनो दशार्ण देश के राजा सुदामा की पुत्री हैं। तुम्हारा जन्म मेरे पिता के घर में ही हुआ था, उस समय मैने तुम्हे देखा था। जैसे तुम्हारे पिता का घर तुम्हारा है, वैसे ही यह घर भी तुम्हारा ही है। दमयन्ती बहुत प्रसन्न हुई। उसने अपनी मौसी को प्रणाम करके विदर्भ देश जाने की इच्छा प्रकट की।राजमाता बहुत प्रसन्न हुईं। उन्होंने अपने पुत्र से कहकर पालकी मँगवायी। भोजन वस्त्र और बहुत सी वस्तुएँ देकर एक बड़ी सेना के संरक्षण में दमयन्ती को विदा कर दिया। विदर्भ देश में दमयन्ती का बड़ा सत्कार हुआ। दमयन्ती अपने भाई, बच्चे, माता-पिता और सखियों से मिली। राजा भीमक को अपनी पुत्री के मिल जाने से बड़ी प्रसन्नता हुई।



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