Monday 24 August 2015

वनपर्व---धौम्य द्वारा तीर्थों का वर्णन

धौम्य द्वारा तीर्थों का वर्णन

धर्मराज युधिष्ठिर ने देवर्षि नारद से तीर्थों का महात्म्य सुनकर अपने भाइयों से सलाह की और उनकी सम्ति जानकर वे अपने पुरोहित धौम्य के पास गये ओर बोले---'भगवन् ! मेरा भाई अर्जुन और श्रीकृष्ण नर-नरायण के अवतार हैं। अर्जुन की शक्ति और अधिकार समझकर ही मैने उसे देवराज इन्द्र के पास अस्त्रविद्या ग्रहण करने के लिये भेजा है। यह तो अर्जुन की बात हुई। कौरवों का ध्यान आते ही सबसे पहले भीष्मपितामह और द्रोणाचार्य पर दृष्टि जाती है। अश्त्थामा और कृपाचार्य भी दुर्जय हैं। दुर्योधन ने पहले से ही इन महारथियों को अपनी ओर से लड़ने का वचन लेकर बाँध रखा है। सूतपुत्र कर्ण भी महारथी है और दिव्य अस्त्रों का प्रयोग करना जानता है। परंतु मेरा विश्वास है कि श्रीकृष्ण की सहायता से अर्जुन इन्द्र से अस्त्र-विद्या सीख आने के बाद सब लगों के लिये अकेला ही पर्याप्त है। उसकी शूरता और सामर्थ्य पर हमारा विश्वास है। हम सभी अर्जुन के लिये चंचल हैं। आप कृपा करके कोई ऐसा पवित्र और रमणीय वन बतलाइये जिसमें अन्न, फल-फूल आदि की अधिकता हो और पुण्यात्मा सत्पुरुष रहते हों। हमलोग वहीं चलकर कुछ दिनों तक रहें और अर्जुन की प्रतिक्षा करें। पुरोहित धौम्य ने कहा---'धर्मराज युधिष्ठिर ! मैं तुम्हे पवित्र आश्रम और तीर्थ का वर्णन सुनता हूँ जिसके श्रवण से द्रौपदी और तुमलोगों की उदासी दूर हो जायगी। उन्होंने सभी तीर्थ का विस्तार से वर्णन किया और कहा कि तुम अपने भाइयों और द्रौपदी के साथ तीर्थों की यात्रा करो। इससे तुम्हारे मन का दुःख मिटेगा और अभिलाषा पूर्ण होगी। पुरहित धौम्य इस परकार पण्डवों से कह ही रहे थे, उसी समय परम तजस्वी लोमश ऋषि के दर्शन हुए। सभी पाण्डव लोमश ऋषि के आवभगत में जुट गये। सेवा-सत्कार हो जाने के बाद युधिष्ठिर ने पूछा कि 'भगवन् ! किस उद्देश्य से आपका शुभागमन हुआ है ? लोमश मुनि ने प्रसन्नता के साथ प्रिय वाणी से कहा---'पाण्डुनन्दन ! मैं स्वच्छंद रूप से स्वेच्छानुसार सभी लोकों में घूमता रहता हूँ। एक बार मैं इन्द्रलोक में जा पहुँचा। वहाँ मैने देखा कि देवसभा में देवराज इनद्र के आधे सिंहासन पर तुम्हारे भाई अर्जुन बैठे हुए हैं । अर्जुन को इन्द्र के आधे सिंहासन पर बैठे देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। देवराज इन्द्र ने अर्जुन की ओर देखकर मुझसे कहा कि 'देवर्षे ! तुम पाण्डवों के पास जाओ और अर्जुन का कुशल-मंगल सुनाओ। इसी से मैं तुमलोगों के पास आया हूँ। तुमलोगों की अनुमति लेकर अर्जुन जिस अस्त्रविद्या को प्राप्त करने गये थे, वह उन्होंने शिवजी से प्राप्त कर ली है। भगवान् शंकर ने उस दिव्य-अस्त्र को अमृत में से प्राप्त किया था और वही अर्जुन को मिला है। उसके प्रयोग और प्रत्यावर्तन की विद्या भी अर्जुन ने सीख ली है। उससे यदि निरपराधियों की मृत्यु हो जाय तो उसका प्रायश्चित भी उन्होंने जान लिया है। उस अस्त्र से भष्म हुए बगीचे को वे पुनः हरा-भरा कर सकते हैं। उस अस्त्र के निवारण का कोई उपाय नहीं है। महाशक्तिशाली अर्जुन ने उस दिव्य अस्त्र के साथ ही यम, कुबेर, वरुण और इन्द्र से भी दिव्य अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किये हैं। चित्रसेन गन्धर्व से उन्होंने गीत, नृत्य, वाद्य आदि भी भली-भाँति सीख लिये हैं। वे आनन्दपूर्वक अमरावती में निवास कर रहे हैं। इन्द्र ने तुमसे कहने के लिये यह संदेश कहा है---'युधिष्ठिर ! तुम्हारा भाई अस्त्रविद्या में निपुण हो गया है और अब उसे यहाँ निवातकवच नाम के असुरों को मारना है। यह काम इतना कठिन है कि इसे बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते। यह काम करके अर्जुन तुम्हारे पास चला जायगा। तुम अपने भाइयों के साथ तपस्या करके आत्मबल का उपार्जन करो। तप से बढकर कोई वस्तु नहीं है। मैं जानता हूँ कि तुम्हारे मन में कर्ण की धाक बैठ गयी है। परंतु यह बात मैं स्पष्ट कह देता हूँ कि कर्ण अर्जुन के सोलहवें हिस्से के बराबर भी नहीं है। तुम्हारे मनमें तीर्थ-यात्रा करने का जो संकल्प है, उसकी पूर्ति में लोमश ऋषि तुम्हारी सहायता करेंगे।' तीन रात तक काम्यक वन में निवास करके धर्मराज युधिष्ठिर ने तीर्थ-यात्रा की तैयारी की। उसी समय भगवान् वेदव्यास भी वहाँ पधारे। उन्होंने कहा---शारीरिक शुद्धि और मानसिक शुद्धि दोनो की ही आवश्यकता है। मन की शुद्धि ही पूर्ण शुद्धि है। इसलिये अब तुमलोग किसी के प्रति द्वेषबुद्धि न रखकर सबके प्रति मित्रबुद्धि रखो। पाण्डव और द्रौपदी सबके चरण छुए और सभी के साथ तीर्थ-यात्रा आरंभ की। 

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