Monday 17 August 2015

सभापर्व---देव-सभाओं का कथन और स्वर्गीय पाण्डु का संदेश

देव-सभाओं का कथन और स्वर्गीय पाण्डु का संदेश
     देवर्षि नारद के उपदेश सुनकर धर्मराज ने उनका बहुत ही स्वागत सत्कार किया। विश्राम के पश्चात् फिर उनके पास उपस्थित होकर धर्मराज ने यह प्रश्न किया, देवर्षे, आप सदा-सर्वदा मन के समान पर्यटन करते रहते हैं। आपने कहीं ऐसी या इससे अच्छी सभा देखी है। कृपा करके बतलाइये। धर्मराज युधिष्ठिर का यह प्रश्न सुनकर देवर्षि नारद ने मुस्कुराते हुए मधुर वाणी से कहा, धर्मराज, मनुष्य-लोक में ऐसी मणिमयी सभा न देखी है और न तो सुनी है। उन्होंने यमराज, वरुण ,इन्द्र, कुबेर और ब्रह्मा की सभाओं का वर्णन करते हुए कहा कि सूक्ष्म तत्वों से बनी होने के कारण एक-एक सभा अनेक रूपों में दीखती है। देवता, पितर, याज्ञिक, वेद, यज्ञ, ऋषि, मुनि आदि उनमें मूर्तिमान् होकर निवास करते हैं। दिव्य सभाओं का वर्णन सुनकर धर्मराज ने देवर्षि नारद से कहा, भगवन् आपने यमराज की सभा में प्राय सभी राजाओं की उपस्थिति का वर्णन किया। वरुण की सभा में नाग, दैत्यराज, नदी और समुद्रों की स्थिति बतलायी। कुबेर की सभा में यक्ष, राक्षस और रुद्रदेव की उपस्थिति, ब्रह्मा की सभा में ऋषि, मुनि, देवता और शास्त्र-पुराण निवास करते हैं। देवराज इन्द्र की सभा में देवता, गन्धर्व और ऋषि-मुनि निवास करते हैं। वहाँ राजर्षियों में केवल हरिश्चन्द ही रहते हैं। आखिर हरिश्चन्द ने कौन सा ऐसा सत्कर्म, तपस्या अथवा व्रत किया है, जिसके फलस्वरूप वे इन्द्र के समकक्ष हो गये हैं। इसकी भी कहानी इस प्रकार है। हरिश्चन्द्र धीर-वीर एवं एकछत्र सम्राट थे। पृथ्वी के सभी नरपति उनसे झुके रहते थे। उन्होंने अकेले ही सबपर दिग्विज प्राप्त की थी और महान यज्ञ राजसूय का अनुष्ठान किया था। सब राजाओं ने उन्हें कर दिया और उनके यज्ञ में परसने का काम किया। याचकों ने उनसे जितना माँगा उसका पाँचगुणा उन्होंने दिया। उन्होंने सभी को मुँहमाँगी वस्तुएँ देकर इस प्रकार प्रसन्न कर लिया कि वे देश-विदेश में उनके बड़प्पन की घोषणा करने लगे। यज्ञ के फल एवं सभी के आशीर्वाद स्वरूप हरिश्चन्द सम्राट पद पर अभिषिक्त हुए। जो राजा राजसूय यज्ञ करता है ,संग्राम में पीठ दिखाये बिना मर मिटता है और तीव्र तपस्या के द्वारा शरीर का परित्याग करता है, वह देवराज इन्द्र की सभा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करता है। देवर्षि नारद कहते हैं, युधिष्ठिर, आपके पिता पाण्डु स्वर्गीय हरिश्चन्द का ऐश्वर्य देखकर विस्मित हो गये। जब उन्होंने देखा कि मैं मनुष्यलोक जा रहा हूँ तब उन्होंने आपके लिये यह संदेश भेजा--युधिष्ठिर, तुम्हारे भाई तुम्हारे वश में हैं। इसलिये तुम सारी पृथ्वी जीतने में समर्थ हो। मेरे लिये तुम्हे महान् यज्ञ राजसूय करना चाहिये। युधिष्ठिर, तुम मेरे पुत्र हो। यदि तुम राजसूय यज्ञ करोगे तो मैं भी देवराज इन्द्र की सभा में हरिश्चन्द्र के समान चिरकालपर्यन्त आनन्द भोगूँगा। धर्मराज, आपके पिता के सामने मैने यह स्वीकार कर लिया कि मैं आपसे यह संदेश कहूँगा। राजन् आप अपने पिता का संकल्प पूर्ण करें। इस यज्ञ के फलस्वरूप केवल आपके पिता को ही नहीं, स्वयं आपको भी वही स्थान प्राप्त होगा। इसमें संदेह नहीं कि इस यज्ञ में बड़े-बड़े विघ्न आते हैं।और यज्ञद्रोही राक्षस वैसे अवसर की प्रतीक्षा में रहते हैं। थोड़ा सा भी निमित्त मिल जाने पर बड़ा भयंकर क्षत्रियकुलान्तक युद्ध हो जाता है। धर्मराज, यह सब सोच-विचारकर अपने लिये जो कल्याणकारी समझिये, वही कीजिये। सावधान रहकर चारों वर्णो की रक्षा करते हुए उन्नति और आनंद प्राप्त कीजिये। आपके प्रश्न का उत्तर हो चुका। अब मुझे अनुमति दीजिये। मैं भगवान कृष्ण की नगरी द्वारका जाऊँगा। देवर्षि नारद इतना कहकर अपने साथी ऋषियों सहित वहाँ से चले गये।

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