पाण्डवों की दिग्विजय
एक
दिन अर्जुन ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा कि यदि आप आज्ञा दें तो मैं दिग्विजय के लिये
जाऊँ और पृथ्वी के सभी राजाओं से आपके लिये कर वसूल करूँ।युधिष्ठिर ने अर्जुन को उत्साहित
करते हुए कहा,अवश्य तुम्हारी विजय निश्चित है।युधिष्ठिर की आज्ञा प्राप्त करके चारों
भाइयों ने दिग्विजय-यात्रा की।अर्जुन ने उत्तर दिशा की विजय का भार लिया था। उन्होंने
पहले साधारण पराक्रम से ही आनर्त, कालकूट और कुलिन्द देशों पर विजय प्राप्त करके सेनासहित
सुमण्डल को जीत लिया।सुमण्डल को साथी बनाकर शाकलद्वीप और प्रतिविन्ध्य पर्वत के राजाओं
पर विजय प्राप्त की। सात द्वीप के राजाओं में से शाकलद्वीपवालों ने बड़ा घमासान युद्ध
किया। परन्तु अर्जुन के बाणों के सामने उन्हें हारना ही पड़ा।उकी सहायता से अर्जुन ने
प्राग्ज्योतिषपुर पर चढाई की।वहाँ के प्रतापी राजा का नाम भगदत्त था। भगदत्त के सहायक
किरात, चीन आदि बहुत से समुद्री देशों के लोग थे। आठ दिन तक भयंकर युद्ध होने के बाद
भी अर्जुन का पूर्ववत् उत्साह देखकर भगदत्त ने मुस्कुराते हुए कहा, महाबाहु अर्जुन,
तुम्हारा पराक्रम तुमहारे ही योग्य है। तुम देवराज इन्द्र के पुत्र हो न। इन्द्र से
मेरी मित्रता है और मैं उनसे कम वीर नहीं हूँ। बेटा, मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा,
बताओ क्या चाहते हो। अर्जुन ने कहा, धर्मराज युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ करना चाहते हैं।
मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि वे चक्रवर्ती सम्राट हों। आप उन्हें कर दीजिये। आप मेरे
पिता इन्द्र के मित्र और मेरे हितैषी हैं। इसलिये मैं आपको आज्ञा तो नहीं दे सकता,
आप प्रेम-भाव से ही उन्हें भेंट दीजिये। भगदत्त ने कहा, अर्जुन, धर्मराज युधिष्ठिर
भी तुम्हारे ही समान मेरे प्रेम-पात्र हैं। मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा। और कोई
बात हो तो कहो। वीर अर्जुन ने उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करके आगे की यात्रा की। अर्जुन
ने कुबेर द्वारा सुरक्षित उत्तर दिशा में बढकर पर्वतों के भीतर-बाहर और आस-पास के सब
स्थानों पर अधिकार कर लिया। उलूक देश के राजा बृहन्त ने घोर युद्ध करके हार मानी और
वह अर्जुन की शरण में आया। अर्जुन ने बृहन्त का राज्य उसे सौंपकर उसकी सहायता से सेनाबिन्दु
के देश पर धावा बोलकर उसे राजच्युत कर दिया। क्रमशः मोदापुर, बामदेव, सुदामा, सुसंकुल
और उत्तर उलूक देशों के राजाओं को वश में करके पंचगणों को अपने वश में किया। उन्होंने
पौरव नाम के राजा को तथा पहाड़ी लुटेरों और म्लेच्छों को,जो सात प्रकार के थे जीता।
कश्मीर के वीर क्षत्रिय और दस मण्डलों का अध्यक्ष राजा लोहित भी उनके अधीन हो गये।
त्रिगर्त, दारू और कोकनद के नरपति स्वयं शरनागत हुए। अर्जुन ने अभिसारी पर अधिकार करके
उरग देश के राजा रोचमान को हराया और बाह्लीक वीरों को अपने अधीन करके हरद,कम्बोज और
ऋषिक देशों को अपने अधीन किया। ऋषिक देश में तोते के उदर के समान हरे रंग के आठ घोड़े
लिये। निकूट और पूरे हिमालय पर विजयवैजन्ती फहराकर धवलगिरि पर सेना का पड़ाव डाला। अर्जुन
क्रमशः किम्पुरुषवर्ष अधिपति द्रुमपुत्र और हाटक देश के रक्षक गुह्यकों को हराकर मानसरोवर
पहुँचे। वहाँ ऋषियों के प्रमुख आश्रमों के दर्शन हुए। वहीं से हाटक देश के आसपास बसे
प्रन्तों पर भी अधिकार कर लिया। तदन्तर अर्जुन ने उत्तरी हरिवर्ष पर विजय प्राप्त करनी
चाही। परन्तु वहाँ प्रवेश करते-न-करते बड़े वीर और विशालकाय द्वारपालों ने आकर प्रसन्नता
से कहा, अवश्य ही आप कोई असाधारण पुरुष हैं। क्योंकि यहाँ तक पहुँचना सबके लिये सुगम
नहीं है। आप यहाँ आ गये यही विजय है। यहाँ की कोई भी वस्तु मनुष्य शरीर से नहीं देखी
जा सकती। इसलिये दिग्विजय की तो कोई बात ही नहीं है। हमलोग आप पर प्रसन्न हैं। आपका
कोई काम हो तो कर सकते हैं। अर्जुन ने हँसते हुए कहा, मैं अपने बड़े भाई धर्मराज युधिष्ठिर
को चक्रवर्ती सम्राट बनाने के लिये दिग्विजय कर रहा हूँ। यदि तुम्हारे इस देश में मनुष्यों
का आना जाना निषिद्ध है तो मैं इसमें नहीं घुसूँगा, तुमलोग केवल कुछ कर दे दो। हरिवर्ष
के लोगों ने अर्जुन को कर रूप में अनेकों दिव्य-वस्त्र, दिव्य आभूषण और मृगचर्म आदि
दिये। इस प्रकार उत्तर दिशा पर विजय प्राप्त करके वीरवर अर्जुन महान् चतुरंगिणी सेना
के साथ बड़ी प्रसन्नता से इन्दरप्रस्थ लौट आये और सारा धन एवं सारे वाहन धर्मराज को
सौंपकर उनकी आज्ञा से अपने महल में गये। अर्जुन के साथ ही भीमसेन भी धर्मराज की अनुमति
से बहुत बड़ी सेना लेकर पूर्व दिशा के लिये चल पड़े थे। दशार्ण देश के राजा सुधर्मा ने
बिना किसी शस्त्र के भीमसेन के साथ बाहुयुद्ध किया। भीमसेन ने उसे परास्त कर उसकी वीरता
से प्रसन्न हो अपना सेनापति बना लिया। उन्होंने क्रमशः अश्वमेध, पुलिन्दनगर और अधिकांश
प्राच्य राज्यों पर अधिकार कर लिया। चेदिदेश के राजा शिशुपाल से उन्हें युद्ध नहीं
करना पड़ा। उसने संबंध के कारण धर्मराज के संदेशमात्र से ही कर देना स्वीकार कर लिया। तदन्तर भीमसेन ने कुमार देश के राजा श्रेणीमान्
को, कोशल देश के स्वामी बृहद्बल को और अयोध्याधिपति महात्मा दीर्घयज्ञ को अनायास ही
वश में कर लिया। तत्पश्चात् उत्तर कोशल, मल्लदेश और हिमालयवर्ती जलोद्धवदेश के प्रान्त
अपने अधीन किये। काशीराज सुबाहु, सुपाश्रव, राजेश्वर, क्रथ, मत्स्य एवं मल्लदेश के
वीरों एवं वसुभूमि को भी अपने अधिकार में कर लिया। पूर्वोत्तर के देशों में मदधार,
सोमदेय एवं वत्सदेश को भी उन्होंने ही अपने कब्जे में लिया था। भर्गदेश के स्वामी निषादराज
और मणिमान् पर विजय प्राप्त करके दक्षिणमल्ल और भोग्वान् पर्वत पर भी उन्होंने कब्जा
कर लिया। शर्मक और वर्मक पर विजय प्राप्त करने के बाद मिथिलाधीश को अधीन किया और वहीं
से ही किरात राजाओं को भी अपने वश में कर लिया। पौण्ड्रक वासुदेव और कौशिक नदी के द्वीप
में रहनेवाला राजा भी पराजित हो गया।वंगदेश के राजा समुद्रसेन, चन्द्रसेन, कर्टाधिपति
ताम्रलिप्त और सभी समुद्रतटवर्ती म्लेच्छ भी उनके अधीन हो गये। इस प्रकार अनेक देशों
पर वजय प्राप्त करके वीर भीमसेन लौहित्य के पास आये। समुद्रतट और समुद्र के टापुओं
में रहनेवाले म्लेच्छों ने बिना युद्ध के ही उन्हें तरह-तरह के हीरे, मोती, मणि, माणिक्य,
सोना-चाँदी, ऊनी-सूती वस्त्र आदि दिये। उन्होंने धन से भीमसेन को संतुष्ट कर दिया।
भीमसेन सब धन लेकर इन्द्रप्रस्थ लौट आये और उन्होंने बड़े प्रेम से सारा-का-सारा धन
अपने बड़े भाई धर्मराज को सौंप दिया। उसी समय सहदेव ने भी बहुत बड़ी सेना के साथ दिग्विजय
के लिये दक्षिण की यात्रा की थी। उन्होंने क्रमशः मथुरा, मत्स्यदेश और अधिराज के अधिपतियों
को वश में करके करद सामन्त बना लिया। राजा सुकुमार और सुमित्र के बाद निषादभूमि, गोश्रृंखपर्वत
और श्रेणिमान् राजा को अपने वश में कर लिया। नरराष्ट्र पर विजय प्राप्त कर लेने के
बाद कुन्तीभोज पर आक्रमण किया और उन्होंने सहर्ष धर्मराज का शासन स्वीकार कर लिया।
इसके बाद सहदेव नर्मदा की ओर बढे। उधर उज्जैन के प्रसिद्ध वीर विन्द और अनुविन्द को
हराकर वश में कर लिया। नाटकीय और हेरम्बकों को परास्त कर मारुध पर अधिकार कर लिया।
उन्होंने क्रमशः अबुर्द, वातराज और पुलिंदों को हराकर पाण्ड्यनरेश पर विजय प्राप्त
की और किष्किन्धा के मैंद एवं द्वीद को जीता तथा महिष्मती पर धावा बोल दिया। भयंकर
युद्ध के बाद महाराज नील उनके करद सामन्त बन गये। आगे बढकर त्रिपुर-रक्षक और पौरवेश्वर
को वश में किया।सुराष्ट्र देश के स्वामी कौशिकाचार्य आकृति पर विजय प्राप्त करके भोजकट
के रुक्मी और निषद के भीष्मक के पास दूत भेजा। उनलोगों ने श्रीकृष्ण के सम्बन्ध के
कारण बड़े प्रेम से सहदेव की आज्ञा मान ली। पाण्ड्य, द्रविड, उण्ड, केरल, आन्ध्र, तालवन,
कलिंग, उष्टकर्णक, आटवीपुरी और आक्रमणकारी यवनों की राजधानियाँ भी उनके वश में हो गयीं।
सहदेव ने दूत के द्वारा लंकाधिपति के पास संदेश भेजा और विभीषण ने बड़े प्रेम से उसे
स्वीकार कर लिया। सभी स्थानों से उन्हें अनेकों प्रकार की वस्तुएँ उपहार के रूप में
प्राप्त हुईं थी। सब कुछ लेकर सबको सामन्त बनाकर बड़ी शीघ्रता से बुद्धिमान सहदेव इन्द्रप्रस्थ
लौट आये और सारी वस्तुएँ धर्मराज को सौंपकर वे सुखपूर्वक इन्द्रप्रस्थ में रहने लगे।
नकुल ने भी उसी समय बड़ी भारी सेना लेकर पश्चिम दिशा की विजय के लिये प्रस्थान किया
था। स्वामीकार्तिक के प्यारे धन, धान्य, गोधन आदि से परिपूर्ण रोहितक देश में वहाँ
के मत्तमयूर शासकों के साथ उनका घोर संग्राम हुआ। अन्त में नकुल ने मरुभूमि, शैरीषक
और अन्न के भण्डार महेत्थदेश पर पूर्ण अधिकार कर लिया। राजर्षि आक्रोश को वश में करके
दशार्ण, शिबि, त्रिगर्त, अम्बष्ठ, मालव, मध्यमक,वाटधान और द्वीजों को जीत लिया। वहाँ
से लौटकर पुष्कर वन के निवासी उत्सव-संकेतों को सिन्धुवती गन्धर्वों को तथा सरस्वती
तटवर्ती सूद्रों को और अभीरों को वश में कर लिया। सम्पूर्ण पंचनद, अमर-पर्वत, उत्तर
ज्योतिष, दिव्यकट नगर और द्वारपाल उनके क्षेत्र में आ गया। पश्चिम के रामठ, हार और
हूण आदि राजा अर्जुन की आज्ञा-मात्र से उनके अधीन हो गये। द्वारकावासी यदुवंशी और श्रीकृष्ण
ने बड़े प्रेम से नकुल का शासन स्वीकार किया। नकुल के मामा शल्य भी प्रेम से उनके अधीन
हो गये। सबसे धन-रत्न की भेंट लेकर नकुल ने समुद्र के टापुओं में रहने वाले भयंकर म्लेच्छ
,बर्बर, किरात, यवन और शंकराजों को वश में किया। सभी से सुन्दर-सुन्दर वस्तुओं की भेंट
लेकर वे खाण्डवप्रस्थ लौट आये। नकुल ने कर और उपहार में जो धन-राशि प्राप्त की थी उसे
दस हजार हाथी बड़ी कठिनता से ढो सकते थे। इन्द्रप्रस्थ में आकर उन्होंने वरुण द्वारा
सुरक्षित और श्रीकृष्ण द्वारा अधिकृत सारा पश्चिम दिशा की जीत का सारा धन अपने बड़ भाई
युधिष्ठिर को सौंप दिया।
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