Tuesday 18 August 2015

सभापर्व---जरासन्ध की उत्पत्ति एवं शक्ति का वर्णन

जरासन्ध की उत्पत्ति एवं शक्ति का वर्णन
     धर्मराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण की बात सुनकर उनसे पूछा, ये जरासन्ध को इतना बल और पराक्रम कैसे प्राप्त हुआ। वह आपसे शत्रुता करके अभी तक कैसे बचा हुआ है। भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा, धर्मराज, जरासन्ध के बल-वीर्य का वर्णन मैं करता हूँ और यह भी बतलाता हूँ कि इतना अनिष्ट करने पर भी मैंने अबतक उसे क्यों छोड़ रखा हैं। कुछ समय पहले मगध देश में बृहद्रथ नाम के राजा राज्य करते थे। वे तीन अक्षौहिणियों के स्वामी, वीर, रुपवान, धनवान, शक्ति-सम्पन्न एवं याज्ञिक थे।वे तेजस्वी, क्षमाशील, दण्डधर एवं ऐश्वर्यशाली थे। उन्होंने काशीराज की दो सुन्दरी कन्याओं से विवाह किया और उनसे प्रतिज्ञा की कि मैं तुम दोनो के साथ समान प्रेम रखूँगा। इस प्रकार विषय-सेवन करते-करते उनकी जवानी बीत गयी। परंतु मंगलमय होम, पुत्रेष्टि-यज्ञ आदि करने पर भी उन्हें पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। एक दिन उन्होंने सुना कि गौतम कक्षीवान् के पुत्र महात्मा चण्डकौशिक तपस्या से उपराम होकर इधर आये हैं और एक वृक्ष के नीचे ठहरे हुए हैं। राजा बृहद्रथ अपनी दोनो रानियों के साथ उनके पास गये और रत्न आदि भेंट करके उन्हें संतुष्ट किया। सत्यवादी चण्डकौशिक ऋषि ने राजा बृहद्रथ से कहा, राजन् मैं तुमसे संतुष्ट हूँ, जो चाहो मुझसे माँग लो। राजा ने कहा, भगवन् मैं अभागा एवं संतानहीन हूँ, राज्य छोड़कर तपोवन में आ गया हूँ। भला अब मैं वर लेकर क्या करूँगा। राजा की कातर वाणी सुनकर चण्डकौशिक ऋषि कृपापरवश हो गये एवं ध्यान करने लगे। उसी समय जिस आम के पेड़ के नीचे वे बैठे हुए थे, उससे एक फल उनकी गोद में गिरा। वह फल तो था बड़ा सरस, परंतु फिर भी तोते की चोंच से अछूता था। महर्षि ने उसे उठाकर अभिमंत्रित किया और राजा को दे दिया। वास्तव में उन्हें पुत्र-प्राप्ति कराने के लिये ही वह गिरा था। महात्मा चण्डकौशिक ने राजा से कहा कि, अब तुम अपने घर लौट जाओ। शीघ्र ही तुम्हे पुत्र की प्राप्ति होगी। प्रणाम के पश्चात् बृहद्रथ अपनी राजधानी लौट आये और शुभ-मुहूर्त में वह फल दोनो रानियों को दे दिया। रानियों ने उसके दो टुकड़े किये और बाँटकर एक-एक टुकड़ा खा लिया। संयोग की बात, महर्षि की सत्यवादिता के प्रभाव से दोनो रानियों को गर्भ रह गया, राजा बृहद्रथ के प्रसन्नता की सीमा न रही। समय आने पर दोनो के गर्भ से शरीर का एक-एक टुकड़ा पैदा हुआ। प्रत्येक में एक आँख, एक बाँह, एक पैर आधा पेट आधा मुँह और आधी कमर थी। उन्हें देखकर दोनो रानियाँ काँप उठीं। उन्होंने दुःख से घबराकर यही सलाह की कि इन दोनो टुकड़ों को फेंक दिया जाय। दोनो की दासियों ने आज्ञा पाते ही दोनो सजीव टुकड़ों को भली-भाँति ढँककर रनिवास के बाहर डाल दिया। वहाँ एक राक्षसी रहती थी।उसका नाम था जरा।वह खून पीती और माँस खाती थी। उसने उन टुकड़ों को उठाया और संयोगवश सुविधा से ले जाने के लिये एक साथ जोड़ दिया। बस, अब क्या, दोनो टुकड़े मिलकर एक महाबली और परम पराक्रमी राजकुमार बन गया। जरा राक्षसी आश्चर्यचकित हो गयी। वह दज्रकर्कश-शरीर कुमार को उठा तक न सकी। कुमार ने मुट्ठी बाँधकर मुँह में डाल ली और वर्षाकालीन मेघ की गर्जना के समान गम्भीर स्वर से रोना शुरु कर दिया। रनिवास के लोग वह शब्द सुनकर आश्चर्यचकित हो राजा के साथ बाहर निकल आये। यद्यपि रानियाँ पुत्र की ओर से निराश हो चुकी थीं, फिर भी उनके स्तनों में दूध उमड़ रहा था। वे उदास मुँह से पुत्र दर्शन की लालसा भरकर बाहर निकल आयीं। जरा राक्षसी राज-परिवार की स्थिति, ममता, लालसा और व्याकुलता तथा बालक का मुँह देखकर सोचने लगी कि, मैं इस राजा के देश में रहती हूँ। इसे संतान की बड़ी अभिलाषा है। साथ ही वह धार्मिक और महात्मा भी है। इसलिये इस नवजात सुकुमार कुमार को नष्ट करना अनुचित है। अब वह मनुष्यरूप धारण करके बालक को गोद में लिये राजा के पास आकर बोली--राजन् यह लीजिये आपका पुत्र। महर्षि के आशिर्वाद से यह आपको प्राप्त हुआ है। मैने इसकी रक्षा की है, आप इसे स्वीकार कीजिये। राक्षसी के इसप्रकार कहते-न-कहते रानियों ने उसे अपनी गोद में लेकर दूध से सींच दिया। राजा बृहद्रथ यह सब देखकर आनंद से फूल उठे। उन्होंने सोने-सी मनोहर मनुष्यरूपधारिणी राक्षसी से पूछा,अहो मुझे पुत्र देनेवाली तुम कौन हो। मुझको ऐसा जान पड़ता है कि तुम कोई देवी हो। क्या यह सच है।जरा ने कहा, राजन् मैं जरा नाम की राक्षसी हूँ। मैं आदरपूर्वक आराम से आपके घर में रहती हूँ। मैं सुमेरु सरीखे पर्वत को भी निगल सकती हूँ। आपके बच्चे में तो रखा ही क्या है। किन्तु मैं आपके घर में सर्वदा सत्कार पाती हूँ, आपसे प्रसन्न हूँ, इसलिये आपका पुत्र आपके हाथों में सौंप रही हूँ। जरा राक्षसी इतना कहकर अन्तर्ध्यान हो गयी और राजा बृहद्रथ नवजात शिशु को लेकर अपने महल में लौट आये। बालक के जातकर्मादि संस्कार विधिपूर्वक हुए, जरा राक्षसी के नाम पर सारे मगध देश में उत्सव मनाया गया। बृहद्रथ ने अपने पुत्र का नामकरण करते हुए कहा कि इस बालक को जरा ने संधित किया है(जोड़ा है)इसलिये इसका नाम जरासंध होगा। बालक जरासंध शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान एवं हवन की हुई आग के समान आकार और बल में दिन-दिन बढने लगा तथा अपने माँ-बाप को आनंदित करने लगा। कुछ समय बाद महर्षि चण्डकौशिक पुनः मगध देश में आये। राजा ने उनकी बड़ी आवभगत की।उन्होंने प्रसन्न होकर कहा,राजन्,जरासन्ध के जन्म की सारी बातें मुझे दिव्यदृष्टि से मालूम हो गयी थीं। तुम्हारा पुत्र बड़ा तेजस्वी, ओजस्वी, बलवान् एवं रूपवान् होगा। इसके बाहुबल के सामने कुछ भी अप्राप्य न होगा। कोई भी इसका मुकाबला नहीं कर सकेगा और विरोधी अपने-आप नष्ट हो जायेंगे। देवताओं के अस्त्र-शस्त्र भी इसे चोट नहीं पहुँचा सकेंगे। सभी लोग इसकी आज्ञा मानेंगे। और तो क्या, इसकी अराधना से प्रसन्न होकर स्वयं भगवान् शंकर इसे दर्शन देंगे। इतना कहकर महर्षि चण्डकौशिक चले गये। राजा बृहद्रथ ने जरासन्ध का राजसिंहासन पर अभिषेक किया और स्वयं वे रानियों के साथ वन में चले गये। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं, वास्तव में जरासन्ध की शक्ति महर्षि चण्डकौशिक के कहे-जैसी है। यद्यपि हमलोग बलवान् हैं, फिर भी अबतक नीति की दृष्टि से उसकी उपेक्षा करते है।

No comments:

Post a Comment