Tuesday 18 August 2015

सभापर्व---राजसूय-यज्ञ का प्रारम्भ

  राजसूय-यज्ञ का प्रारम्भ 
    धर्मराज की सत्यनिष्ठा, प्रजापालन में अनुराग और शत्रुसंहार देखकर सारी प्रजा अपने-आप अपने-अपने धर्म का पालन करने लगी। शास्त्र के अनुसार कर की वसूली और धर्मपूर्वक शासन करने से समय पर मनचाही वर्षा होने लगी। राष्ट्र सुख और समृद्धि से भर गया। प्रजा में परस्पर की धोखेबाजी, चोरी और झूठ नहीं बोलते थे। जब धर्मराज ने देखा कि मेरे अन्न, वस्त्र, रत्न आदि के भण्डार सर्वथा पूर्ण हैं तब उन्होंने यज्ञ करने का संकल्प किया। मित्रों ने उनसे अलग-अलग और इकट्ठे होकर भी आग्रह किया कि यही यज्ञ करने का शुभ समय है। अब शीघ्र ही यज्ञ आरंभ कर देना चाहिये। जिन दिनों लोगों का आग्रह सीमा पर पहुँच गया था, उसी समय भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ पधार गये। भगवान् श्रीकृष्ण अपने भक्त युधिष्ठिर पर कृपा करने के लिये असंख्य धन, अक्षय रत्नराशि और महान् सेना लेकर रथ की ध्वनि से दिग्-दिगन्त को मुखरित करते हुए इन्द्रप्रस्थ आ पहुँचे। सबने उनकी आगवानी की और उनका यथोचित सत्कार किया। धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाई, पुरोहित धौम्य आदि के साथ उनके पास गये तथा विश्राम कुशल-प्रश्न आदि के अनन्तर उनसे बोले--भैया श्रीकृष्ण, यह सारा भूमण्डल आपके कृपा-प्रसाद से ही हमारे अधीन हुआ है। बहुत सी धन-संपत्ति भी हमें प्राप्त हुई है। यह सब आपके लिये ही है। अब आप मेरे अभिलाषित राजसूय यज्ञ की अनुमति दे दीजिये। गोविन्द, आप मेरे यज्ञ की दीक्षा ग्रहण कीजिये। आपके यज्ञ से मैं निष्पाप हो जाऊँगा।मुझे ही यज्ञ-दीक्षा लेने की अनुमति दीजिये।आपकी इच्छा के अनुसार ही सारा कार्य सम्पन्न होगा।भगवान् श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर के गुणों का वर्णन करते हुए कहा,महाराज आज सम्राट् हैं।आपको ही यह महायज्ञ करना चाहिये।अब आप इस यज्ञ की दीक्षा लीजिये।आप मेरी इच्छा के अनुसार स्वयं ही आ गये हैं।इतने से ही मेरा संकल्प सिद्ध हो गया,अब यज्ञ सम्पन्न होने में कोई सन्देह नहीं रहा।अब धर्मराज युधिष्ठिर ने सहदेव और मन्त्रियों को आज्ञा दी कि ब्राह्मणों के एवं पुरोहित धौम्य के आज्ञानुसार यज्ञ की सारी सामग्री शीघ्र ही मंगवायी जाय।अभी धर्मराज युधिष्ठिर की बात पूरी भी नहीं हो पायी थी कि सहदेव ने नम्रता से निवेदन किया,प्रभो आपकी आज्ञा से यह काम पहले ही हो चुका है।इसी समय श्रीकृष्णद्वैपायण तेजस्वी,तपस्वी और वेदज्ञ ब्राह्मणों को ले आये।वे स्वयं यज्ञ के ब्रह्मा बने और सुसामा सामवेद के उद्गाता।ब्रह्मज्ञानी याग्यवल्क अध्वर्यु हुए। इन ऋषियों के वेद-वेदांगपारदर्शी शिष्य एवं पुत्र सदस्य हुए। स्वास्तिवाचन के अनन्तर यज्ञ की शास्त्रोक्त विधि के सम्बन्ध में परस्पर विचार करके विशाल यज्ञशाला का पूजन किया गया। शिल्पकारों के आज्ञा के अनुसार देवमन्दिरों के समान बहुत से सुगन्धित भवनों का निर्माण किया गया। अब धर्मराज ने सहदेव को यह आज्ञा दी कि निमन्त्रण देने के लिये दूत भेजो। सहदेव ने दूतों को भेजते समय कह दिया कि देश के समस्त ब्राह्ण एवं क्षत्रियों को तथा वैश्य एवं सम्माननीय शूद्रों को साथ ही ले आओ। दूतों ने वैसा ही किया। ब्राह्मणों ने ठीक समय पर धर्मराज को राजसूय यज्ञ की दीक्षा दी। उन्होंने सहस्त्रों ब्राह्मण, भाई, सगे-सम्बन्धी, सखा-सहचर, समागत क्षत्रिय और मंत्रियों के साथ मूर्तिमान् धर्म के समान यज्ञशाला में प्रवेश किया। चारों ओर से शास्त्र-पारंगत, वेद-वेदान्त में निपुण झुण्ड-के-झुण्ड ब्राह्मण आने लगे। उनके निवास के लिये हजारों कारीगरों के द्वारा अलग-अलग ऐसे स्थान बनवाये गये थे जो अन्न, जल, वस्त्र आदि से परिपूर्ण एवं सब ऋतुओं के योग्य सुखकर सामग्री से परिपूर्ण थे। उनके निवास-सथानों में ब्राह्मण कथा-वार्ता एवं भोजन आदि प्रसन्नचित्त से करते रहते थे। जब देखो वहाँ यही कोलाहल हो रहा है--दीजिये, दीजिये। लीजिये, लीजिये। धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्म, धृतराष्ट्र आदि को बुलाने के लिये नकुल को हस्तिनापुर भेजा। उन्होंने वहाँ जाकर सबको सत्कारपूर्वक विनय के साथ निमन्त्रण दिया और वे लोग बड़ी विनम्रता से निमंत्रण स्वीकार करके वहाँ आये। पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, प्रज्ञाचक्षु धृतराष्ट्र, महात्मा विदुर, कृपाचार्य, दुर्योधन आदि कौरव, गान्धार देश के राजा सुबल, शकुनी, अचल, वृषक, कर्ण, शल्य, बाह्लीक, सोमदत्त, भूरी, भूरीश्रवा, शल, अश्त्थामा, जयद्रथ, द्रुपद, धृष्टधुम्न, शाल्व, भगदत्त, पर्वतीय-प्रदेश के नरपति, बृहदल, पौण्ड्रक, वासुदेव, कुन्तीभोज, कलिंगाधिपति, वंग, आकर्ष, कुन्तल, मालव, आन्ध्र, द्रविड, सिंहल, काश्मीर आदि देशों के राजा, विराट और उनके पुत्र, मावेल्ल, शिशुपाल और उनके लड़के---सब-के-सब यज्ञभूमि में आये। यज्ञ में समागत राजा और राजकुमारों की गणना कठिन है। सभी बहुमूल्य भेंट ले-लेकर आये थे। बलराम, अनिरुद्ध, कंग, सारण, गद, प्रद्युम्न, साम्ब, चारुदेष्ण आदि समस्त यादव महारथी भी आये। धर्मराज की आज्ञा से सभी समागत राजाओं को सत्कारपूर्वक अलग-अलग स्थानों में ठहराया गया। उनके लिये जो स्थान बनवाये गये थे, उनमें खाने-पीने की सारी सामग्री, बावलियाँ एवं हरे-भरे नयनमनोहर वृक्ष थे। स्वागत-सत्कार के बाद सब लोग अपने-अपने निवास-स्थानों में ठहर गये। धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्मपितामह और गुरु द्रोणाचार्य के चरणों में प्रणाम करके प्रार्थना की, आपलोग इस यज्ञ में मेरी सहायता कीजिये। इस विशाल धनागार कोअपना ही समझिये और इस प्रकार कार्य कीजिये, जिससे मेरा मनोरथ सफल हो। यज्ञदीक्षित धर्मराज ने उनलोगों की सम्मति से सबको एक-एक कार्य सौंप दिया। दुःशासन भोजन संबंधी पदार्थों की देखभाल में, अश्त्थामा ब्राह्मणों की सेवा-शुश्रूषा और संजय राजाओं के स्वागत-सत्कार में नियुक्त किये गये। भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य सभी कार्यों और कर्मचारियों का निरीक्षण करने लगे। कृपाचार्य सोने-चाँदी और रत्नों की देखभाल तथा दक्षिणा देने के कार्य में नियुक्त हुए। बाह्लिक, धृतराष्ट्र, सोमदत्त और जयद्रथ घर के स्वामी की तरह स्थित हुए। धर्म के मर्मज्ञ महात्मा विदुर खर्च करने के काम में और दुर्योधन भेंट में आये हुए पदार्थों को रखने के काम में लगे। भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वयं ही पाँव पखारने का काम अपने जिम्मे लिया। इसी प्रकार सभी प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने अपने-अपने जिम्मे किसी-न-किसी सेवा का भार लिया। धर्मराज युधिष्ठिर का दर्शन करके कृतकृत्य होने के लिये वहाँ जितने लोग उपस्थित हुए थे, उनमें से किसी ने सहस्त्र मुद्रा से कम भेंट नहीं दी। सभी चाहते थे कि केवल मेरे ही धन से यज्ञ सम्पन्न हो जाय। सेना के व्यूह, विचित्र विमानों की पंक्तियाँ, रत्नों की राशि, लोकपालों के विमान और राजाओं की भीड़ से युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ की शोभा बहुत ही बढ गयी। धर्मराज युधिष्ठिर का ऐश्वर्य लोकपाल वरुण के समकक्ष था। उन्होंने यज्ञ में छः अग्नियों की स्थापना करके पूरी-पूरी दक्षिणा देकर यज्ञ के द्वारा भगवान् का यजन किया। अतिथि अभ्यागतों को मुँहमाँगी वस्तुएँ देकर सन्तुष्ट किया। सबके खा-पी लेने पर भी बहुत सा अन्न बचा रहा। उस उत्सव समारोह में जिधर देखिये, उधर ही हीरे-मोतियों के उपहार की धूम मची है। उस यज्ञ से सभी को तृप्ति मिली।

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