Saturday 22 August 2015

वनपर्व---धर्मराज युधिष्ठिर और द्रौपदी का संवाद, क्षमा की प्रशंसा

धर्मराज युधिष्ठिर और द्रौपदी का संवाद, क्षमा की प्रशंसा

 एक दिन सन्ध्या के समय वनवासी पाण्डव कुछ शोकग्रस्त-से होकर द्रौपदी के साथ बैठकर बातचीत कर रहे थे। बातचीत के सिलसिले में द्रौपदी कहने लगी---'सचमुच दुर्योधन बड़ा क्रूर एवं दुरात्मा है। हमलोगों को दुःखी देखकर उसे तनिक भी तो दुःख नहीं होता।उसने हमलोगों को मृगछाला ओढाकर घोर जंगल में भेज दिया,परन्तु उसे रत्ती-भर भी पश्चाताप नहीं हुआ। अवश्य ही उसका हृदय फौलाद से बना होगा। एक तो उसने कपटध्यूत में जीत लिया,फिर आप जैसे सरल और धर्मात्मा पुरुष को भरी सभा में कठोर वचन कहे और अपने मित्रों के साथ मौज उड़ा रहा है। जब मैं देखती हूँ कि आपलोग सुनहरी पलंग छोड़कर कुश-कास के बिछौनों पर सो रहे हैं, मुझे हाथी-दाँत का सिंहासन याद आ जाता है और मैं रो पड़ती हूँ। बड़े-बड़े राजा आपलोगों को घेरे रहते थे, आपलोगों का शरीर चन्दनचर्चित होता था। आज आप अकेले मैले-कुचैले जंगलों में भटक रहे हैं। मुझे भला कैसे शान्ति मिल सकती है। आपके महलों में प्रतिदिन हजारों ब्राह्मणों को इच्छानुसार भोजन करवाया जाता था और आज हमलग फल-मूल खाकर जीवन निर्वाह कर रहे हैं। मेरे प्यारे स्वामी भीमसेन को वनवासी और दुःखी देखकर आपके चित्त में क्रोध नहीं उमड़ता ? भीमसेन अकेले ही रणभूमि में सब कौरवों को मार डालने का उत्साह रखते हैं। परन्तु आपका रुख न देखकर मन मसोसकर रह जाते हैं। अर्जुन दो बाँह होने पर हजार बाँह वाले कीर्तवीर्य अर्जुन के समान बलशाली हैं। इन्हीं के अस्त्र-कौशल से चकित होकर बड़े-बड़े राजा आपके चरणों में प्रणाम करते थे। वही देवता और दानवों के पूजनीय पुरुषसिंह अर्जुन आज वनवासी हो रहे हैं। आपके चित्त में क्रोध का उदय क्यों नहीं होता ? आपकी सहन-शक्ति को धन्य है। जिसमें क्रोध और तेज न हो वह कैसा क्षत्रिय ? जो समय आने पर अपना तेज नहीं प्रकट कर सकता, सभी प्राणी उसका तिरस्कार करते हैं। शत्रुओं से क्षमा का नहीं, प्रताप के अनुरुप व्यवहार करना चाहिये। द्रौपदी ने फिर कहा---'राजन् ! पहले जमाने में राज बलि ने अपने पितामह प्रह्लाद से पूछा था कि 'पितामह ! क्षमा उत्तम है या क्रोध ? आप कृपा करके मुझे ठीक-ठीक समझाइये।' प्रह्लादजी ने कहा कि 'क्षमा और क्रोध दोनो की एक व्यवस्था है। न सर्वदा क्रोध उचित है न क्षमा। जो पुरुष सर्वदा क्षमा करते हैं उनके सेवक, पुत्र, दास और उदासीन वृति के पुरुष भी कटु वचन कहकर तिरस्कार करने लगते हैं, अवज्ञा करते हैं। धूर्त पुरुष क्षमाशील को दबाकर उसकी स्त्री को भी हड़पना चाहते हैं। स्त्रियाँ भी स्वेच्छानुसार वर्ताव करने लगतीं और पतिव्रत-धर्म से भ्रष्ट होकर अपने पति का भी अपकार कर डालती हैं। इसके अतिरिक्त जो पुरुष कभी क्षमा नहीं करता, हमेशा क्रोध ही करता है, वह क्रोध के आवेश में आकर बिना विचार किये ही सबको दण्ड देने लगता है। वह मित्रों का विरोधी एवं अपने कुटुम्ब का विरोधी और अपने कुटुम्ब का शत्रु हो जाता है। सब ओर से अपमानित होने के कारण उसके धर्म की हानि होने लगती है। उसके मन में संताप ईर्ष्या और द्वेष बढने लगते हैं। इससे उसके शत्रुओं की वृद्धि होती है। वह क्रोधवश अन्यायपूर्वक किसी को दण्ड दे बैठता है; इसके फलस्वरूप ऐश्वर्य, स्वजन और अपने प्राणों से भी हाथ धोना पड़ता है। जो सबसे रोब-दाब के साथ ही मिलता है, उससे लोग डरने लगते हैं, उसकी भलाई करने से हाथ खींच लेते हैं और उसमें दोष देखकर चारों ओर फैला देते हैं। इसलिये न तो हमेशा उग्रता का वर्ताव करना चाहिये और न हमेशा सरलता का। समय के अनुसार उग्र और सरल बन जाना चाहिये। यदि किसी मनुष्य ने पहले उपकार किया हो, फिर उससे कोई बड़ा अपराध बन जाय तो पहले के उपकार पर दृष्टि रखकर उसे क्षमा कर देना चाहिये। क्योंकि सबलोग सभी कामों में चतुर नहीं हो सकते। इसके विपरीत जो लोग जान-बूझकर अपराध करते हों और कहते हैं कि हमने जानबूझकर अपराध नहीं किया है तो उन्हें थोड़ा अपराध करने पर भी पूरा दण्ड देना चाहिये। कुटिल पुरुषों को क्षमा नहीं करना चाहिये। एक बार का अपराध तो चाहे किसी का भी क्षमा कर देना चाहिये, परन्तु दूसरी बार दण्ड अवश्य देना चाहिये। मृदुलता से उग्र और कोमल दोनो प्रकार के पुरुष वश में किये जा सकते हैं। मृदुल पुरुष के लिये कुछ भी असाध्य नहीं है। इसलिये मृदुलता ही श्रेष्ठ साधन है। अतः देश, काल, सामर्थ्य और कमजोरी पर पूरा-पूरा विचार करके मृदुलता और उग्रता का व्यवहार करना चाहिये। कभी-कभी तो भय से भी क्षमा करनी पड़ती है। यदि कोई ऊपर कही बातों के प्रतिकूल बर्ताव करता हो तो उसे क्षमा न करके क्रोध से काम लेना चाहिये।' द्रौपदी ने आगे कहा---'राजन् ! धृतराष्ट्र के पुत्र अपराध-पर-अपराध करते जा रहे हैं। उनका लालच असीम है। मैं समझती हूँ कि अब उनपर क्रोध करने का समय आ गया है। आप उन्हें क्षमा न करके उनपर क्रोध कीजिये। युधिष्ठिर ने कहा---प्रिये ! मनुष्य को क्रोध के वश में न होकर क्रोध को अपने वश में करना चाहिये। जिसने क्रोध पर विजय प्राप्त कर ली, वह कल्याण भाजन हो गया। क्रोध के कारण मनुष्यों का नाश होना प्रत्यक्ष दीखता है। मैं अवनति के हेतु क्रोध के वश में कैसे हो सकता हूँ ? क्रोधी मनुष्य पाप करता है, गुरुजनों को मार डालता है, श्रेष्ठ पुरुष और कल्याणकारक वस्तुओं का कठोर वाणी से तिरस्कार करता है। फलतः विपत्ति में पड़ जाता है। क्रोधी मनुष्य यह नहीं समझ सकता कि क्या कहना चाहिये, क्या नहीं। जो मन में आया बक डालता है। जो चाहे कर डालता है। वह जिलाने योग्य को मार डालता है, मार डालने योग्य की पूजा करता है और क्रोध के आवेश में आत्महत्या करके अपने-आप को नरक में डाल लेता है। क्रोध दोषों का घर है। बुद्धिमान पुरुषों ने अपनी लौकिक उन्नति, पारलौकिक सुख और मुक्ति प्राप्त करने के लिये क्रोध पर विजय प्राप्त की है। क्रोध के दोष गिने नहीं जा सकते। झूठ बोलने की अपेक्षा सच बोलना कल्याणकारी है। क्रूरता की अपेक्षा कोमलता उत्तम है। काम करने की चतुराई, शत्रु पर वजय प्राप्त करने के उपाय का विचार, विजय प्राप्त करने की शक्ति और स्फूर्ति तेजस्वियों के गुण हैं। ज्ञानी पुरुष को सर्वदा क्षमा ही करना चाहिये।

No comments:

Post a Comment