Sunday 23 August 2015

वनपर्व---नल-दमयन्ती की कथा, दमयन्ती का स्वयंवर एवं विवाह

नल-दमयन्ती की कथा, दमयन्ती का स्वयंवर एवं विवाह

महर्षि वृहदश्र्व को आते देखकर धर्मराज युधिष्ठिर ने आगे जाकर शास्त्रविधि के अनुसार उनकी पूजा की, आसन पर बैठाया। उनके विश्राम कर लेने पर युधिष्ठिर उनसे अपना वृतांत कहने लगे। उन्होंने कहा कि 'महाराज ! कौरवों ने कपट-बुद्धि से बुलाकर छल के साथ जूआ खेला और मुझ अनजान को हराकर मेरा सर्वस्व छीन लिया। इतना ही नहीं, उन्होंने मेरी प्राणप्रिया द्रौपदी को घसीटकर भरी सभा में अपमानित किया।उन्होंने अन्त में हमें काली मृगछाला ओढाकर घोर वन में भेज दिया। महर्षे ! आप ही बतलाइये कि इस पृथ्वी पर मुझ-सा भाग्यहीन राजा कौन है। क्या मेरे-जैसा दुःखी और कहीं देखा या सुना है ?' महर्षि वृहदश्र्व ने कहा--धर्मराज ! आपका यह कहना ठीक नहीं है कि मुझ जैसा दुःखी राजा कोई नहीं हुआ; क्योंकि मैं तुमसे भी दुःखी और मन्दभाग्य राजा का वृतांत जानता हूँ। तुम्हारी इच्छा हो तो सुनाऊँ। धर्मराज युधिष्ठिर के आग्रह करने पर महर्षि वृहदश्र्व ने कहना प्रारंभ किया ---धर्मराज ! निषध देश में वीरसेन के पुत्र नल नाम के राजा हो चुके हैं। वे बड़े गुणवान्, परम सुन्दर, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, वेदज्ञ एवं सबके प्रिय थे। उनकी सेना बहुत बड़ी थी। वे स्वयं अस्त्र-विद्या में निपुण थे। वीर, योद्धा, उदार और परम पराक्रमी भी थे। उन्हें जूआ खेलने का भी कुछ-कुछ शौक था। उन्हीं दिनों विदर्भ देश में भीमक नाम के एक राजा राज्य करते थे। वे भी नल के समान ही सर्वगुणसम्पन्न और पराक्रमी थे। उन्होंने दमन ऋषि को प्रसन्न करके उनके वरदान से चार संतानें प्राप्त की थी---तीन पुत्र और एक कन्या। पुत्रों के नाम थे दम, दान्त और दमन। पुत्री का नाम था दमयन्ती। दमयन्ती लक्ष्मी के समान रूपवती थी। उसके नेत्र विशाल थे। देवताओं और यक्षों में भी वैसी सुन्दरी कन्या कहीं देखने में नहीं आती थी। उन दिनों कितने ही लोग विदर्भ से निषध देश आते और राजा नल के सामने दमयन्ती के रूप और गुण का बखान करते। निषध देश से विदर्भ में जानेवाले भी दमयन्ती के सामने राजा नल के रूप, गुण और पवित्र चरित्र का वर्णन करते। इससे दोनो के हृदय में पारस्परिक अनुराग उत्पन्न हो गया। एक दिन राजा नल ने अपने महल के उद्यान में कुछ हंसों को देखा। उन्होंने एक हंस को पकड़ लिया। हंस ने कहा---'आप मुझे छोड़ दीजिये तो हमलोग दमयन्ती के पास जाकर आपके गुणों का ऐसा वर्णन करेंगे कि वह आपको अवश्य-अवश्य वर लेगी।' नल ने हंस को छोड़ दिया। वे सब उड़कर विदर्भ देश में गये। दमयन्ती अपने पास हंसों को देखकर बहुत प्रसन्न हुई और हंसों को पकड़ने के लिये उनकी ओर दौड़ने लगी। दमयन्ती जिस हंस को पकड़ने के लिये दौड़ती, वही बोल उठता कि 'अरी दमयन्ती ! निषध देश में एक नल नाम का राजा है। वह अश्विनीकुमार के समान सुन्दर है। मनुष्यों में उसके समान सुन्दर और कोई नहीं है। वह मानो मूर्तिमान् कामदेव है। यदि तुम उसकी पत्नी हो जाय तो तुम्हारा जन्म और रूप दोनो सफल हो जायें। हमलोगों ने देवता, गन्धर्व, मनुष्य, सर्प और राक्षसों को घूम-घूमकर देखा है। नल के समान सुन्दर पुरुष कहीं देखने में नहीं आया। जैसे तुम स्त्रियों में रत्न हो ,वैसे ही नल पुरुषों में भूषण हैं। तुम दोनो की जोड़ी बहुत सुन्दर होगी। दमयन्ती ने कहा---'हंस ! तुम नल से भी ऐसी ही बात कहना।' हस ने निषध देश में लौटकर नल से दमयन्ती का संदेश कह दिया। दमयन्ती हंस के मुँह से राजा नल की कीर्ति सुनकर उनसे प्रेम करने लगी। उसकी आसक्ति इतनी बढ गई कि वह रात-दिन उनका ही ध्यान करती रहती। शरीर धूमिल और दुबला हो गया। वह दीन सी दीखने लगी। सखियों ने दमयन्ती का हृदय-भाव ताड़कर विदर्भराज से निवेदन किया कि 'आपकी पुत्री अस्वस्थ हो गयी है।' राजा भीमक ने अपनी पुत्री के सम्बन्ध में बड़ा विचार किया।अन्त में वह इस निर्णय पर पहुँचा कि मेरी पुत्री विवाहयोग्य हो गयी है, इसलिये इसका स्वयंवर कर देना चाहिये। उन्होंने सब राजाओं को स्वयंवर का निमंत्रण-पत्र भेज दिया और सूचित कर दिया कि राजाओं को दमयंती के स्वयंवर में पधारकर लाभ उठाना चाहिये और मेरा मनोरथ पूर्ण करना चाहिये। देश-देश के नरपति हाथी-घोड़े और रथों की ध्वनि से पृथ्वी को मुखारित करते हुए सज-धजकर विदर्भ देश में पहुँचने लगे। भीमक ने सबके स्वागत सत्कार की समुचित व्यवस्था की। देवर्षि नारद और पर्वत के द्वारा देवताओं को भी दमयन्ती के स्वयंवर का समाचार मिल गया। इन्द्र आदि सभी लोकपाल भी अपनी मण्डली और वाहनों सहित विदर्भ देश के लिये रवाना हुए। राजा नल का चित्त पहले से ही दमयन्ती पर आसक्त हो चुका था। उन्होंने भी दमयन्ती के स्वयंवर में सम्मिलित होने के लिये विदर्भ देश की यात्रा की। देवताओं ने स्वर्ग से उतरते समय देख लिया कि कामदेव के समान सुन्दर नल दमयंती के स्वयंवर में जा रहे हैं। नल की सूर्य के समान कांति और लोकोत्तर रूप-संपत्ति से देवता भी चकित हो गये। उन्होंने पहचान लिया कि ये नल हैं। उन्होंने अपने विमानों को आकाश में खड़ा कर दिया और नीचे उतरकर नल से कहा---'राजेन्द्र नल ! आप बड़े सत्यव्रती हैं। आप हमलोगों की सहायता करने के लिये दूत बन जाइये।' नल प्रतिज्ञा कर ली और कहा कि 'करूँगा।' फिर पूछा कि आपलोग कौन हैं और मुझे दूत बनाकर कौन-सा काम लेना चाहते हैं ?'इन्द्र ने कहा---'हमलोग देवता हैं। मैं इन्द्र हूँ और ये अग्नि, वरुण और यम हैं। हमलोग दमयंती के लिये यहाँ आए हैं। आप हमारे दूत बनकर दमयंती के पास जाइये और कहिये कि इन्द्र, वरुण, अग्नि और यमदेवता तुम्हारे पास आकर तुमसे विवाह करना चाहते हैं। इनमें से तुम चाहे जिस देवता को पति के रूप में स्वीकार कर कर लो।नल ने दोनो हाथ जोड़कर कहा कि 'देवराज ! वहाँ आपलोगों के और मेरे जाने का एक ही प्रयोजन है। इसलिये आप मुझे दूत बनाकर वहाँ भेजें, यह उचित नहीं है। जिसकी किसी स्त्री को पत्नी के रूप में पाने की इच्छा हो चुकी हो , वह भला, उसको कैसे छोड़ सकता है और उसके पास जाकर ऐसी बात कह ही कैसे सकता है। आपलोग कृपया इस विषय में मुझे क्षमा कीजिये।' देवताओं ने कहा---'नल ! तुम पहले हमलोगों से प्रतिज्ञा कर चुके हो कि मैं तुम्हारा काम करूँगा। अब प्रतिज्ञा मत तोड़ो। अविलम्ब वहाँ चले जाओ।' नल ने कहा---'राजमहल में निरंतर कड़ा पहरा रहता है, मैं कैसे जा सकूँगा ?' इन्द्र ने कहा---'जाओ, तुम वहाँ जा सकोगे।' इन्द्र की आज्ञा से नल ने राजमहल में बेरोक-टोक प्रवेश करके दमयन्ती को देखा। दमयन्ती और सखियाँ भी उसे देखकर अवाक् रह गयीं। वे इस अनुपम सुन्दर पुरुष को देखकर मुग्ध हो गयीं  और लज्जित होकर कुछ बोल न सकीं। दमयन्ती ने अपने को संभालकर राजा नल से कहा---'वीर ! तुम देखने में बड़े सुन्दर और निर्दोष जान पड़ते हो। पहले अपना परिचय बताओ। तुम यहाँ किस उद्देश्य से आये हो और आते वक्त द्वारपालों ने तुम्हें देखा क्यों नहीं ? उनसे तनिक भी चूक हो जाने पर मेरे पिता उन्हें बहुत कड़ा दण्ड देते हैं।' नल ने कहा---'कल्यणी ! मैं नल हूँ। लोकपालों का दूत बनकर मैं तुम्हारे पास आया हूँ। सुन्दरी ! इन्द्र, अग्नि, वरुण और यम---ये चारों देवता तुम्हारे साथ विवाह करना चाहते हैं। तुम इनमें से किसी एक देवता कोपति के रूप में वरण कर लो। यही संदेश लेकर मैं तुम्हारे पास आया हूँ। उन देवताओं के प्रभाव से ही जब मैं तुम्हारे महल में प्रवेश करने लगा तो मुझे कोई देख नहीं सका। मैने देवताओं का संदेश कह दिया। अब तुम्हारी जो इच्छा हो, करो।' दमयन्ती ने बड़ी श्रद्धा के साथ देवताओं को प्रणाम करके मन्द-मन्द मुस्कुराकर नल से कहा---'नरेन्द्र ! आप मुझे प्रेमदृष्टि से देखिये  और आज्ञा कीजिये कि मैं यथाशक्ति आपकी सेवा करूँ। मेरे स्वामी ! मने अपना सर्वस्व और अपने आपको भी आपके चरणों में सौंप दिया है। आप मुझपर विश्वासपूर्ण प्रेम कीजिये। जिस दिन से मैने हंसों से आपकी बात सुनी, उसी दिन से मैं आपके लिये व्याकुल हूँ। आपके लिये ही मैने राजाओं की भीड़ इकट्ठी की है। यदि आप मेरी प्रार्थना अस्वीकार कर देंगे तो मैं विष खाकर, आग में जलकर या पानी में डूबकर आपके लिये मर जाऊँगी। राजा नल ने कहा---'जब बड़े-बड़े लोकपाल तुम्हारे प्रणय-सम्बन्ध के प्रार्थी हैं, तब तुम मुझ मनुष्य को क्यों चाह रही हो ? उन ऐश्वर्यशाली देवताओं के चरण-रेणु के समान भी तो मैं नहीं हूँ। तुम अपना मन उन्हीं में लगाओ। देवताओं का अप्रिय करने से मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। तुम मेरी रक्षा करो और उनको वरण कर लो।' नल की बात सुनकर दमयन्ती घबरा गई। उसके दोनो नेत्रों में आँसू छलक आये। वह कहने लगी---'मैं सब देवताओं को प्रणाम करके आपको ही पतिरूप में वरण कर रही हूँ। यह मैं सत्य शपथ खा रही हूँ।' उस समय दमयन्ती का शरीर काँप रहा था, हाथ जुड़े हुए थे। राजा नल ने कहा---'अच्छा, तब तुम ऐसा ही करो। परन्तु यह तो बतलाओ कि मैं यहाँ उनका दूत बनकर संदेश पहुँचाने के लिये आया हूँ। यदि इस समय मैं अपना स्वार्थ बनाने लगूँ तो कितनी बुरी बात है। मैं अपना स्वार्थ तो तभी बना सकता हूँ, यदि वह धर्म के विरुद्ध न हो। तुम्हे भी ऐसा ही करना चाहिये।' दमयन्ती ने गद्-गद् कण्ठ से कहा---'नरेश्वर ! इसके लिये एक निर्दोष उपाय है। उसके अनुसार काम करने पर आपको कोई दोष नहीं लगेगा। वह उपाय यह है कि आप लोकपालों के साथ स्वंवर-मण्डप में आवें। मैं सबके सामने ही आपको वरण कर लूँगी। तब आपको दोष नहीं लगेगा।' अब राजा नल देवताओं के पास आये। देवताओं के पूछने पर उन्होंने कहा कि, मैने दमयन्ती के सामने आपलोगों का वर्णन किया, परन्तु वह तो आपलोगों को न चाहकर मुझे ही वरण करने पर तुली हुई है। उसने कहा है कि 'सब देवता आपके साथ स्वयंवरमें आवें। मैं उनके सामने ही आपको वरण कर लूँगी। इसमें आपको दोष नहीं लगेगा।' मैने आपलोगों के सामने सब बातें कह दीं। अन्तिम प्रमाण आपलोग ही हैं।' राजा भीमक ने शुभ मुहूर्त में स्वयंवर का समय रखा और लोगों को बुला भेजा। सब राजा अपने-अपने निवास-स्थान से आ-आकर स्वयंवर-मण्डप में यथास्थान बैठने लगे। पूरी सभा राजाओं से भर गयी। जब सब लोग अपने-अपने आसन पर बैठ गये, तब सुन्दर दमयन्ती अपनी अंगकान्ति से राजाओं के मन और नेत्रों को अपनी ओर आकर्षित करती हुई रंगमण्डप में आई।राजाओं का परिचय दिया जाने लगा। दमयन्ती एक-एक को देखकर आगे बढ़ने लगी। आगे एक ही स्थान पर नल के समान आकार और वेश-भूषा के पाँच राजा इकट्ठे ही बैठे हुए थे। दमयन्ती को संदेह हो गया, वह राजा नल को नहीं पहचान सकी। वह जिसकी ओर देखती वही नल जान पड़ता। इसलिये विचार करने लगी कि 'मैं देवताओं को कैसे पहचानूँ और ये राजा नल हैं---यह कैसे जानूँ ?' उसे बड़ा दुःख हुआ। अन्त में दमयन्ती ने यही निश्चय किया कि देवताओं की शरण में जाना ही उचित है। हाथ जोड़कर प्रणामपूर्वक स्तुति करने लगी---'देवताओं ! हंसों के मुँह से नल का वर्णन सुनकर मैने उन्हें पतिरूप में वर्णन किया है। मैं मन और वाणी से नल के अतिरिक्त और किसी को नहीं चाहती। देवताओं ने निषधेश्र्वर नल को ही मेरा पति बना दिया है तथा मैने नल की अराधना के लिये ही यह व्रत प्रारंभ किया है।मेरी इस सत्यशपथ के बल पर देवतालोग मुझे उन्हें ही दिखला दें। ऐश्वर्यशाली लोकपालों ! आपलोग अपना रूप प्रकट कर दें जिससे मैं नरपति नल को पहचान लूँ।' देवताओं ने दमयन्ती का यह आर्त-विलाप सुना। उसके दृढ-निश्चय, सच्चे-प्रेम, आत्मशुद्धि, बुद्धि, भक्ति और नलपरायणता को देखकर उन्होंने उसे ऐसी शक्ति दे दी जिससे वह देवता और मनुष्य का भेद समझ सके। दमयन्ती ने देखा कि देवताओं के शरीर पर पसीना नहीं है। पलकें गिरती नहीं हैं। माला कुम्हलायी नहीं है। शरीर पर मैल नहीं है। स्थिर हैं, परन्तु धरती नहीं छूते। इधर नल के शरीर की छाया पड़ रही है। माला कुम्हला गयी है। शरीर पर कुछ धूल और पसीना भी है। पलकें बराबर गिर रही हैं। और धरती छूकर स्थित हैं। दमयन्ती ने नल को पहचान लिया और धर्म के अनुसार नल को वरण कर लिया। दमयन्ती ने कुछ सकुचाकर नल के गले में वरमाला डाल दी। देवता और महर्षि साधु-साधु कहने लगे। राजाओं में हाहाकार मच गया। राजा नल ने आनंदातिरेक से दमयन्ती का अभिनन्दन किया। उन्होंने कहा---'कल्याणी ! तुमने देवताओं के सामने रहने पर भी उन्हें वरण न करके मुझे वरण किया है, इसलिये तुम मुझको प्रेमपरायण पति समझना। मैं तुम्हारी बात मानूँगा। जबतक मेरे शरीर में प्राण रहेंगे, तबतक मैं तुमसे प्रेम करूँगा---यह मैं तुमसे शपथपूर्वक सत्य कहता हूँ।' दोनो ने  प्रेम से एक-दूसरे का अभिनन्दन करके इन्द्रादि देवताओं की शरण ग्रहण की। देवता भी बहुत प्रसन्न हुए। इन्द्र ने कहा---'नल ! तुमहे यज्ञ में मेरा दर्शन होगा और उत्तम गति मिलेगी।' अग्नि ने कहा---'जहाँ तुम मेरा स्मरण करोगे,वहीं मैं प्रकट हो जाऊँगा और मेरे ही समान प्रकाशमय लोक तुम्हें प्राप्त होंगे।' यमराज ने कहा---'तुम्हारी बनायी हुई रसोई बहुत मीठी होगी और तुम अपने धर्म में दृढ रहोगे।'वरुण ने कहा---'जहाँ तुम चाहोगे, वहीं जल प्रकट हो जायगा। तुम्हारी माला उत्तम गंध से परिपूर्ण रहेगी।' इस प्रकार दो-दो वर देकर सब देवता अपने लोक में चले गये। निमन्त्रित राजा लोग भी विदा हो गये। भीमक ने प्रसन्न होकर दमयन्ती का नल के साथ विधिपूर्वक विवाह कर दिया। राजा नल कुछ दिनों तक विदर्भ देश की राजधानी कुण्डिनपुर में रहे। तदनन्तर भीमक की अनुमति प्राप्त करके वे अपनी पत्नी दमयन्ती के साथ अपनी राजधानी में लौट आये। राजा नल अपनी राजधानी में धर्म के अनुसार प्रजा का पालन करने लगे। समय आने पर दमयन्ती के गर्भ से इन्द्रसेन नामक पुत्र और इन्द्रसेना नामक कन्या का जन्म हुआ।


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