Monday 24 August 2015

वनपर्व---नारदजी द्वारा तीर्थयात्रा की महिमा का वर्णन

नारदजी द्वारा तीर्थयात्रा की महिमा का वर्णन
जबसे अर्जुन तपस्या करने के लिये गये तब शेष पाण्डवों ने अर्जुन के वियोग में बड़ी उदासी के साथ अपने दिन बिताये। उन्हीं दिनों परम तेजस्वी देवर्षि नारद उनके निवास-स्थान पर आये। धर्मराज युधिष्ठिर ने भाइयों सहित खड़े होकर उनकी पूजा की। देवर्षि नारद ने कुशल-प्रश्न पूछकर उनहें आश्वासन दिया और कहा---'युधिष्ठिर इस समयतुम क्या चाहते हो ? मैं तुम्हारा कौन सा काम करूँ ? धर्मराज युधिष्ठिर ने ने बड़ी नम्रता के साथ कहा---'महाराज, आप कृपा करके हमलोगों को यह बताइये कि जो तीर्थों का सेवन करता हुआ पृथ्वी की प्रदक्षिणा करता है उसे क्या फल मिलता है ? नारदजी ने कहा---'राजन् ! तुम सावधान होकर सुनो,एक बार तुम्हारे पितामह भीष्म ने हरिद्वार में पुलस्त्य ऋषि से यही प्रश्न किया, जो तुम मुझसे कर रहे हो।उसके उत्तर में पुलस्त्य मुनि ने जो कुछ कहा, वही मैं तुम्हे सुना रहा हूँ।  पुलस्त्य जीने कहा---'भीष्म ! तीर्थों में प्राय बड़े-बड़े ज्ञानी रहते हैं। उन तीर्थों के सेवन से जो फल प्राप्त होता है, वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ। जिसके हाथ दान लेने और बुरे कर्म करने से अपवित्र नहीं हैं, जिनके पैर नियमपूर्वक पृथ्वी पर पड़ते हैं अर्थात् जीव-जन्तुओं को अपने नीचे न दबाकर दूसरों के सुख के लिये चलते हैं, जिनका मन दूसरों के अनिष्ट-चिन्तन से बचा हुआ है, जिसकी विद्या विवादजननी न हो, जिसकी तपस्या अन्तःकरण की शुद्धि और जगत्कल्याण के लिये हो, उसे तीर्थों का फल प्राप्त होता है। जो मनुष्य किसी प्रकार का दान नहीं लेता, जो कुछ मिल जाय उसी में संतुष्ट रहता है और साथ ही अहंकार नहीं करता, जो दम्भ एवं कामना से रहित है, थोड़ा खाता एवं इन्द्रियों को वश में रखता है, साथ ही समस्त पापों से बचा भी रहता है और किसी पर क्रोध नहीं करता, स्वभाव से ही सत्य का पालन करता है, दृढ़ता से अपने नियमों में संलग्न रहता है और समस्त प्राणियों के सुख-दुःख को अपने सुख-दुःख के समान समझता है, उसे शास्त्रोक्त तीर्थफल की प्राप्ति होती है। भगवान् का पुष्कर तीर्थ बहुत ही प्रसिद्ध है। पुष्कर में करोड़ों तीर्थ निवास करते हैं। जो उदार पुरुष मन से भी पुष्कर का स्मरण करता है, उसके पाप नष्ट हो जाते हैं। कार्तिक मास में पुष्कर तीर्थ में वास करने से अक्षय लोकों की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार अन्यान्य तीर्थों का वर्णन करते हुए पुलस्त्यजी ने तीर्थराज प्रयाग का वर्णन किया। वहाँ सभी देवताओं का निवास है। प्रयाग क्षेत्र में तीन अग्निकुण्ड हैं जिसके बीचोंबीच से गंगाजी प्रवाहित होती हैं। वहीं सूर्यपुत्री यमुनाजी भी आती हैं जहाँ गंगाजी के साथ संगम हुआ है। गंगा और यमुना के मध्यभाग को पृथ्वी का जाँघ समझना चाहिये। प्रयाग पृथ्वी का जितेन्द्रिय है। जो विश्व-विख्यात गंगा-यमुना के संगम पर स्नान करता है, उसे राजसूय एवं अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। जिसने सैकड़ों पाप किये हों वह भी यदि एक बार गंगाजल अपने ऊपर डाल ले तो सारे पाप वैसे ही भष्म हो जाते हैं जैसे सूखी लकड़ी आग से। पुलस्त्य ऋषि कहते हैं---'भीष्म ! तुम श्रद्धापूर्वक नियमानुसार इन्द्रियों को शुद्ध रखते हुए तीर्थों की यात्रा करो और अपना पुण्य बढाओ। सत्पुरुष ही उन तीर्थों को प्राप्त कर सकते हैं। नियमहीन, असंयमी, अपवित्र और चोर उन तीर्थों की उपलब्धि नहीं कर सकते। बृहदश्रव्जी कहते हैं---'युधिष्ठिर ! भीष्मपितामह से इतना कहकर पुलस्त्य ऋषि वहीं अन्तर्धान हो गये।  भीष्मपितामह ने विधिपूर्वक तीर्थ-यात्रा की। तुम भी लोगों को साथ लेते हुए सब तीर्थों में जाओ। परम तेजस्वी लोमश ऋषि भी तुम्हारे पास आयेंगे। उन्हें भी ले लो। मैं भी चलूँगा। तुम राजा भगीरथ, ययाति,मनु, पुरू और इन्द्र के समान यशस्वी तथा प्रजापालक हो। तुम अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके प्रजापालन करोगे। इतना कहकर देवर्षि नारद वहीं अन्तर्धान हो गये।


No comments:

Post a Comment