Sunday 23 August 2015

वनपर्व---अर्जुन की तपस्या, शंकर के साथ युद्ध, पाशुपतास्त्र तथा दिव्यास्त्रों की प्राप्ति

अर्जुन की तपस्या, शंकर के साथ युद्ध, पाशुपतास्त्र तथा दिव्यास्त्रों की प्राप्ति

 महारथी एवं दृढनिश्चयी अर्जुन हिमालय लाँघकर एक बड़े कंटीले जंगल में जा पहुँचे। उसकी शोभा अपूर्व थी। उसे देखकर अर्जुन के मन में प्रसन्नता हुई। वे डाभ(कुश) के वस्त्र, दण्ड, मृगछाला और कमण्डलु धारण करके आनंदपूर्वक तपस्या करने लगे। पहले महीने में उन्होंने तीन-तीन दिन पर पेड़ों से गिरे सूखे पत्ते खाये। दूसरे महीने में छः-छः दिन पर और तीसरे महीने में पंदरह-पंद्रह दिन पर। चौथे महीने में बाँह उठाकर पैर के अंगूठे की नोक के बल पर निराधार खड़े हो गये और केवल हवा पीकर तपस्या करने लगे। नित्य जल में स्नान करने के कारण उनकी जटाएँ पीली-पीली हो गयी थीं।बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों ने भगवान् शंकर से प्रार्थना की। उन्होंने कहा---भगवन् ! अर्जुन की तपस्या के तेज से दिशाएँ धूमिल हो गयीं। भगवान् शंकर ने उनसे कहा---'मैं आज अर्जुन की इच्छा पूर्ण करूँगा।' ऋषियों के जाने पर भगवान् शंकर ने सोनेका-सा दमकता हुआ भील का रूप ग्रहण किया। सुन्दर धनुष, सर्पाकार वाण लेकर पार्वती के साथ वे अर्जुन के पास आये। बहुत से भूत-प्रेत भी वेष बदलकर भील-भीलनियों के वेष में उनके साथ हो लिये। भीलवेषधारी भगवान् शंकरने अर्जुन के पास आकर देखा कि मूक दानव जंगली शूकर का वेष धारण कर तपस्वी अर्जुन को मार डालने की घात देख रहा है। अर्जुन ने भी शूकर को देख लिया। उन्होंने गाण्डीव धनुष पर सर्पाकार वाण चढाकर धनुष टंकारते हुए मूक दानव से कहा---'दुष्ट ! तू मुझ निरपराध को मारना चाहता है। इसलिये मैं तुझे पहले ही यमराज के हवाले करता हूँ।' ज्यों ही उन्होंने वाण छोड़ना चाहा, भीलवेशधारी शिवजी ने रोककर कहा कि 'मैं पहले से ही इसे मारने का निश्चय कर चुका हूँ। इसलिये तुम इसे मत मारो।' अर्जुन ने भील के बात की कुछ भी परवा न करके शुकर पर वाण छोड़ दिया। शिवजी ने भी उसी समय अपना बज्र सा वाण चलाया। दोनो के वाण मूक के शरीर पर जाकर टकराये, बड़ी भयंकर आवाज हुई। इस प्रकार असंख्य वाणों से शूकर का शरीर बिंध गया, वह दानव के रूप में प्रकट होकर मर गया। अब अर्जुन ने भील की ओर देखा। उन्होंने कहा---'तू कौन है? इस मण्डली के साथ निर्जन वन में क्यों घूम रहा है? यह शूकर मेरा तिरस्कार करने के लिये यहाँ आया था, मैंने पहले ही इसे मारने का विचार कर लिया था। फिर तूने इसका वध क्यों किया? अब मैं तुझे जीता नहीं छोड़ूँगा।'भील ने कहा---'इस शूक पर मैने तुमसे पहले प्रहार किया। मेरा विचार भी तुमसे पहले का था। यह मेरा निशाना था, मैने ही इसे मारा है। तुम तनिक ठहर जाओ। मैं वाण चलाता हूँ, शक्ति हो तो सहो। नहीं तो तुम्ही मुझपर वाण चलाओ।' भील की बात सुनकर अर्जुन क्रोध से आग-बबूला हो गये। वे भील पर वाणों की वर्षा करने लगे। अर्जुन के वाण जैसे ही भील के पास आते, वह उन्हें पकड़ लेता। भीलवेषधारी भगवान् शंकर हँसकर कहते कि 'मन्दबुद्धे ! मार,खूब मार; तनिक भी कमी न कर।' अर्जुन ने वाणों की झड़ी लगा दी। दोनो ओर से वाणों की चोट होने लगी। भील का एक बाल भी बाँका न हुआ। यह देखकर अर्जुन के आश्चर्य की सीमा न रही। अर्जुन कुढ-कुढकर वाण छोड़ते और वे हाथ से पकड़ लेते। अर्जुन के वाण समाप्त हो गये। अब अर्जुन ने धनुष की नोक से मारना शुरु कर दिया। भील ने धनुष भी छीन लिया। तलवार का प्रहार किया तो वह भी दो टुकड़े होकर जमीन पर गिर पड़ी। पत्थरों और वृक्षों से प्रहार करना चाहा तो  भील ने प्रहार करने के पहले ही छीन लिया।अब घूसे की बारी आयी। भील ने बदले में जो घूसा मारा, उससे अर्जुन का होश हवा हो गया। अब भील ने अर्जुन को दोनो भुजाओं में दबाकर पिंडी कर दिया, वे हिलने चलने में असमर्थ हो गये। दम घुटने लगा। लोहू-लुहान होकर जमीन पर पड़ गये। थोड़ी देर बाद अर्जुन को होश आया। उन्होंने मिट्टी की एक वेदी बनायी, उसपर भगवान् शंकर की स्थापना की और शरणागत होकर पूजा करने लगे। अर्जुन ने देखा कि जो पुष्प उन्होंने शिवमूर्ति पर चढाया है, वह भील के सिर पर है। अर्जुन को प्रसन्नता हुई, कुछ-कुछ शान्त हुए। उन्होंने भील के चरणों में प्रणाम किया। भगवान् शंकर ने प्रसन्न होकर आश्चर्यचकित और घायल अर्जुन से मघगम्भीर वाणीमें कहा---'अर्जुन ! तुम्हारे अनुपम कर्म से मैं प्रसन्न हूँ। तुम्हारे जैसा शूर और धीर क्षत्रिय दूसरा नहीं है। तुम्हारे तेज और बल मेरे समान है। मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम मेरे स्वरूप का दर्शन करो।तुम सनातन ऋषि हो। मैं तुम्हे दिव्य ज्ञान देता हूँ। इसके प्रभाव से तुम शत्रुओं और देवताओं को भी जीत सकोगे। मैं प्रसन्न होकर तुम्हे एक ऐसा अस्त्र बतलाता हूँ, जिसका कोई निवारण नहीं कर सकता। तुम क्षणभर में ही मेरा वह अस्त्र धारण कर सकोगे।' अब अर्जुन ने भगवती पार्वती और भगवान् शंकर का दर्शन किया। उन्होंने घुटने टेक, चरणों का स्पर्श कर भगवान् गौरीशंकर को प्रणाम किया।   अर्जुन भगवान् शंकर को प्रसन्न करने के लिये स्तुति करने लगे---'प्रभो ! आप देवताओं के स्वामी महादेव हैं। आपके कण्ठ में जगत् के उपकार का चिह्न नीलिमा है, सिर पर जटा है। आप कारणों के भी परम कारण,त्रिनेत्र एवं व्यापक हैं। आप देवताओं के आश्रय एवं जगत् के मूल कारण हैं। आपको कोई जीत नहीं सकता। आप ही शिव और आप ही विष्णु हैं। मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ। आप दक्ष के यज्ञ के विध्वंसक एवं हरिहरस्वरूप हैं। आपके ललाट में नेत्र हैं। आप सर्वस्वरूप, भक्तवत्सल, त्रिशूलधारी एवं पिनाकपाणि हैं और सूर्यस्वरूप, शुद्धमूर्ति एवं सृष्टि के विधाता हैं। मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ। मैं आपसे क्षमा-याचना करता हूँ। मुझे क्षमा कीजिये। मैं आपके दर्शन की लालसा से इस पर्वत पर आया हूँ। मैने अज्ञानवश आपसे युद्ध करने का साहस किया है। इसे अपराध न मानिये, मुझ शरणागत को क्षमा कीजिये।' अर्जुन की स्तुति सुनकर भगवान् शंकर हँस पड़े और अर्जुन का हाथ पकड़कर बोले---'क्षमा किया।' फिर भगवान् शंकर ने अर्जुन को गले लगा लिया। भगवान् शंकर ने कहा---'अर्जुन !' तुम नारायण के नित्य सहचर नर हो। पुरुषोत्तम विष्णु और तुम्हारे परम तेज के आधार पर ही जगत् टिका हुआ है। इन्द्र के अभिषेक के समय तुमने और श्रीकृष्ण ने धनुष उठाकर दानवों का नाश किया था। आज मैने माया से भील का रूप धारण करके तुम्हारे अनुरूप गाण्डीव धनुष और अक्षय तरकस को छीन लिया है। अब तुम उन्हें ले लो। तुम्हारा शरीर भी निरोग हो जायगा। मैं तुमपर प्रसन्न हूँ; तुम्हारी जो इच्छा हो, वर माँग लो।' अर्जुन ने कहा---'भगवन् ! यदि आप मुझपर प्रसन्न होकर वर देना चाहते हैं तो मुझे अपना पाशुपतास्त्र दे दीजिये। वह ब्रह्मशिर अस्त्र प्रलय के समय जगत् का नाश करता है। उस अस्त्र से मैं भावी युद्ध में सबको जीत सकूँ, ऐसी कृपा कीजिये। मैं जानता हूँ कि मंत्र पढकर छोड़ने से पाशुपतास्त्र से भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य और कटुवादी कर्ण के साथ लड़ सकूँ।' भगवान् शंकर ने कहा कि 'समर्थ अर्जुन ! तुम्हेमैं अपना प्यारा पाशुपतास्त्र देता हूँ; क्योंकि तुम उसके धारण, प्रयोग एवं उपसंहार के अधिकारी हो। इन्द्र, यमराज, कुबेर, वरुण और वायु भी उस अस्त्र के धारण, प्रयोग एवं उपसंहार मेंकुशल नहीं हैं । फिर मनुष्य तो भला, जान ही कैसे सकते हैं। मैं तुम्हें यह अस्त्र देता हूँ, परन्तु तुम इसे किसी के ऊपर सहसा छोड़ मत देना। अल्पशक्ति मनुष्य के ऊपर प्रयोग करने पर यह जगत् का नाश कर डालेगा। यदि संकल्प, वाणी, धनुष अथवा दृष्टि से---किसी भी प्रकार शत्रु पर इसका प्रयोग हो तो यह उसका नाश कर डालता है।' अर्जुन स्नान करके पवित्रता के साथ भगवान् शंकर के पास आये और बोले कि अब मुझे पाशुपतास्त्र की शिक्षा दीजिये।महादेवजी ने अर्जुन को प्रयोग से लेकर उपसंहार तक सब तत्व रहस्य समझा दिया। अब पाशुपतास्त्र मूर्तिमान् काल के समान अर्जुन के पास आया और उन्होंने उसे ग्रहण कर लिया। उस समय पर्वत, वन, समुद्र, नगर गाँव और खानों के साथ सारी पृथ्वी डगमगाने लगी। भगवान् शंकर ने अर्जुन को आज्ञा दी कि 'अब तुम स्वर्ग में जाओ।' अर्जुन भगवान् शंकर को प्रणाम करके हाथ जोड़े खड़े रहे। भगवान् शंकर ने गाण्डीव धनुष अपने हाथ उठाकर अर्जुन को दे दिया। वे अर्जुन के सामने ही आकाशमार्ग से चले गये। अर्जुन की मानसिक स्थिति बड़ी विलक्षण हो रही थी। वे सोच रहे थे कि आज मुझे भगवान् शंकर के दर्शन मिले। उन्होंने मेरे शरीर पर अपना वरद हस्त फेरा । मैं धन्य हूँ। आज मेरा काम पूर्ण हो गया ।' अर्जुन यही सब सोच रहे थे कि उनके सामने वैदूर्यमणि के समान कान्तिवान् जलचरों से घिरे जलाधीश वरुण, सुवर्ण के समान दमकते हुए शरीर वाले धनाधीश कुबेर, सूर्य के पुत्र यमराज और बहुत से गन्धर्व आदि मन्दराचल के तेजस्वी शिखर पर आकर उतरे । कुछ ही क्षण बाद देवराज इन्द्र भी इन्द्राणी के साथ ऐरावत पर बैठकर देवगणों सहित मन्दराचल पर आये। सब देवताओं के आ जाने पर धर्म के मर्मज्ञ यमराज ने मधुर वाणी से कहा---'अर्जुन ! देखो, सब लोकपाल तुम्हारे पास आये हैं। आज तुम हमलोगों के दर्शन के अधिकारी हो गये हो।इसलिये दिव्यदृष्टि लो। हमारा दर्शन करो । तुम सनातन ऋषि नर हो । तुमने मनुष्य रूप में अवतार ग्रहण किया है। अब तुम भगवान् श्रीकृष्ण के साथ रहकर पृथ्वी का भार मिटाओ। मैं तुमहे अपना वह दण्ड देता हूँ, जिसका कोई निवारण नहीं कर सकता ।' अर्जुन ने आदर के साथ वह दण्ड स्वीकार किया। उसका मंत्र, पूजा का विधान तथा प्रयोग उपसंहार की विधि भी सीख ली। वरुण ने कहा---'अर्जुन ! मेरी ओर देखो। मैं जलाधीश वरुण हूँ। मेरा वरुण पाश युद्ध में कभी निष्फल नहीं होता। तुम इसे ग्रहण करो और छोड़ने लौटाने की विधि भी सीख लो। तारकासुर के घोर संग्राम में इसी पाश से मैने हजारों दैत्यों को पकड़कर कैद कर लिया था। तुम इसके द्वारा चाहे जिसको कैद कर सकते हो।अर्जुन के पाश स्वीकार कर लेने पर धनाधीश कुबेर ने कहा---'अर्जुन ! तुम भगवान् के नर रुप हो। पहले कल्प में तुमने हमारे साथ बड़ा परिश्रम किया है। इसलिये तुम मुझसे अन्तर्धान नामक अनुपम अस्त्र ग्रहण करो। यह बल पराक्रम और तेज देनेवाला अस्त्र मुझे बहुत ही प्यारा है। इससे शत्रु सोये से हो नष्ट हो जाते हैं। भगवान् शंकर ने त्रिपुरासुर को नष्ट करते समय इसका प्रयोग कर असुरों को भष्म कर डाला था। यह तुम्हारे लिये ही है, तुम इसे धारण करो।' अर्जुन के स्वीकार कर लेने पर देवराज इन्द्र ने मेघ-गम्भीर  वाणी से कहा---'प्रिय अर्जुन, तुम भगवान्  के नररूप हो। तुम्हे परम सिद्धि, देवताओं की परम गति प्राप्त हो गयी है। तुम्हे देवताओं के बड़े-बड़े काम करने हैं और स्वर्ग भी चलना है। इसलिये तुम तैयार हो जाओ। मातलि सारथी तुम्हारे लिये रथ लेकर आयेगा। उसी समय मैं तुम्हे दिव्य अस्त्र भी दूँगा।' इस प्रकार सभी लोकपालों ने प्रत्यक्ष प्रकट होकर अर्जुन को दर्शन और वरदान दिये। अर्जुन ने प्रसन्नता से सबकी स्तुति एवं फल-फूल आदि से पूजा की। देवता अपने-अपने धाम को चले गये।



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