Saturday 29 August 2015

वनपर्व---परशुरामजी की उत्पत्ति और उनके चरित्रों का वर्णन

परशुरामजी की उत्पत्ति और उनके चरित्रों का वर्णन

उस सरोवर में स्नान करके महाराज युधिष्ठिर कौशिकी नदी के किनारे होते हुए क्रमशः सभी तीर्थ-स्थानों में गये। फिर उन्होंने समुदर-तट पर पहुँचकर गंगाजी के संगमस्थान पर मिली हुई पाँच सौ नदियों की सम्मिलित धारा में स्नान किया। इसके बाद वे समुद्र के किनारे-किनारे अपने भाइयों सहित कलिंग देश में आये। इसके बाद बैतरणी नदी में स्नान कर वे महेन्द्रपर्वत पर गये और वहाँ एक रात निवास किया।वहाँ रहने वाले तपस्वियों ने उनका बड़ा सत्कार किया। लोमश मुनि ने उन भृगु, अगिरा,वशिष्ठ और कश्यपवंशीय ऋषियों का परिचय दिया। फिर उनके पास आकर राजर्षि युधिष्ठिर ने प्रणाम किया और परशुरामजी के सेवक वीरवर अकृतव्रण से परशुरामजी का चरित्र जानने की इच्छा जताई। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार और जिस निमित्त से परशुराम ने युद्ध में क्षत्रियों को परास्त किया था, वह सब आप मुझे सुनाइये। अकृतव्रण ने कहा---राजन् ! मैं भृगुवंश में उत्पन्न हुए भगवान् परशुरामजी का चरित्र सुनाता हूँ। यह आख्यान बड़ा ही सुन्दर और महान् है। उन्होंने हैहयवंश में उत्पन्न हुए जिस कीर्तवीर्य अर्जुन का वध किया था, उसके एक भुजाएँ थीं। श्री दत्तात्रेयजी की कृपा से उसे एक सोने का विमान मिला था तथा पृथ्वी के सभी प्राणियों पर उसका प्रभुत्व था। उसके रथ की गति कोई भी रोक नहीं सकता था। उस रथ और वर के प्रभाव से वह वीर देवता, यक्ष और ऋषि ---सभी को कुचल डालता था। इस प्रकार उसके द्वारा सर्वत्र सभी प्राणी पीड़ित हो रहे थे। इसी समय कान्यकुब्ज (कन्नौज) नामक नगरमें गाधि नाम का एक बलवान राजा राज्य करता था। वह वन में जाकर रहने लगा। वहाँ उसके एक कन्या उत्पन्न हुई थी, जो अप्सरा के समान सुन्दरी थी। उसका नाम था सत्यवती। उसके लिये भृगुननदन ऋचीक ने राजा के पास जाकर याचना की। राजा गाधि ने ऋचीक मुनि के साथ सत्यवती का विवाह कर दिया। विवाह-कार् सम्पन्न हो जाने पर भृगुजी आये और अपने पुत्र को सपत्नीक देखकर बड़े प्रसन्न हुए। तब उन्होंने पुत्रवधू से कहा, 'सौभाग्यवती वधू ! तुम वर माँगो, तुम्हारी जो इच्छा होगी वही मैं दूँगा।' उसने अपने ससुरजी को प्रसन्न देखकर अपने और अपनी माता के लिये पुत्र की याचना की। तब भृगुजी ने कहा, तुम और तुम्हारी माता ऋतुस्नान करने के पश्चात् अलग-अलग वृक्षों का आलिंगन करना। वह पीपल का आलिंगन करे और तुम गूलर का। इसके सिवा मैने सारे संसार में घूमकर तुम्हारे और तुम्हारीमाता के लिये दो चरु तैयार किये हैं, इन्हें तुम सावधानी से खा लेना।' ऐसा कहकर मुनि अन्तर्धान हो गये। किन्तु उन माँ-बेटी ने चरु-भक्षण करने और वृक्षों का आलिंगन करने में उलट-फेर कर दिया। बहुत दिन बीतने पर भगवान् भृगु फिर लौटे और उन्होंने दिव्यदृष्टि से सब बात जान ली। तब उन्होंने अपनी पुत्रवधू सत्यवती से कहा, 'बेटी ! चरु और वृक्षों में उलट-फेर करके तेरी माता ने मुझे धोखा दिया है। तूने जो चरु खाया है और जिस वृक्ष का आलिंगन किया है, उसके प्रभाव से तेरा पुत्र ब्राह्मण होने पर भी क्षत्रियों के-से आचरणवाला होगा तथा तेरी माता का पुत्र क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मणों के-से आचरणवाला, बड़ा तेजस्वी और सत्पुरुषों के मार्ग का अनुकरण करनेवाला होगा।' तब उसने बार-बार प्रार्थना करके अपने ससुरजी को प्रसन्न किया और प्रार्थना की कि मेरा पुत्र ऐसा हो, भले ही पौत्र ऐसे स्वभाववाला हो जाय। भृगुजीने 'अच्छा ऐसा ही हो ' कहकर अपनी पुत्रवधू का अभिनन्दन किया। यथा समय उससे जमदग्नि मुनि का जन्म हुआ। वे बड़े ही तेजस्वी और प्रतापी थे। महातपस्वी जमदग्नि ने वेदाध्ययन आरंभ किया और नियमानुसार स्वाध्याय करने से सभी वेदों को कण्ठस्थ कर लिया। फिर उन्होंने राजा प्रसेनजीत् के पास जाकर उनकी पुत्री रेणुका के लिये याचना की और राजा ने उन्हें अपनी बेटी विवाह दी। रेणुका का आचरण सब प्रकार अपने पति के अनुकूल था। उसके साथ आश्रममें रहकरवे तपस्या करने लगे। उनके क्रमशः चार पुत्र हुए। इसके बाद परशुरामजी का प्रादुर्भाव हुआ, वे पाँचवें थे। भाइयों में छोटे होने पर भी वे गुणों में सबसे बढ़े-चढ़े थे। एक दिन जब सब पुत्र फल लेने के लिये चले गये तो व्रतशीला रेणुका स्नान करने को चली गयी।जिस समय वह स्नान करके आश्रम लौट रही थी, उसने दैवयोग से राजा चित्ररथ को जलक्रीड़ा करते देखा। उस सम्पत्तिशाली राजा को जलविहार करते देखकर रेणुका का चित्त चलायमान हो गया। इस मानसिक विकार से दीन, अचेत और त्रस्त होकर उसने आश्रम में प्रवेश किया। महातेजस्वी जमदग्नि मुनि ने सब बात जान ली और उसे अधीर एवं ब्रह्मतेज से च्युत हुई देखकर बहुत धिक्कारा। इतने ही में उनके ज्येष्ठ पुत्र रुक्मवान् और फिर सुषेण, वसु और विश्रावसु भी गये। मुनि ने क्रमशः उन सभी से कहा कि अपनी माँ को तुरंत मार डालो।किन्तु वे मोहवश हक्के-बक्के से रह गये, कुछ भी बोल सके। तब मुनि ने क्रोधित होकर उन्हें श्राप दिया, जिससे उनकी विचारशक्ति नष्ट हो गयी और वे मृग एवं पक्षियों के समान जड़-बुद्धि हो गये। उन सब के पीछे शत्रुपक्ष के वीरोंका संहार करनेवाले परशुरामजी आये। उनसे महातपस्वी जमदग्नि मुनि ने कहा, 'बेटा ! अपनी इस पापिनी माता को अभी मार डाल और उसके लिये मन में किसी प्रकार का खेद कर।' यह सुनकर परशुरामजी ने फरसा लेकर उसी क्षण अपनी माता का मस्तक काट डाला। इससे जमदग्नि का कोप सर्वथा शान्त हो गया और उन्होंने प्रसन्न होकर कहा, 'बेटा ! तुमने मेरे कहने से यह काम किया है, जिसे करना बड़ा ही कठिन है;इसलिये तुम्हारी जो-जो कामनाएँ हों सब माँग लो।'तब उन्होंने कहा---'पिताजी ! मेरी माता जीवित हो जायँ, उन्हें मेरे द्वारा मारे जाने की बात याद रहे, मेरे चारों भाई स्वस्थ हो जायँ, युद्ध में मेरा सामना करनेवाला कोई हो और मैं लम्बी आयु प्राप्त करूँ।' परम तेजस्वी जमदग्नि ने भी वरदान द्वारा उनकी सभी कामनाएँ पूर्ण कर दीं। एक बार इसी तरह उनके सब पुत्र बाहर गये हुए थे; उसी समय अनूप देश का राजा कीर्तवीर्य अर्जुन उधर निकला। जिस समय वह आश्रम में पहुँचा, मुनिपत्नी रेणुका ने उसका आतिथ्य-सत्कार किया। कीर्तवीर्य अर्जुन युद्ध के मद से उन्मत्त हो रहा था। उसने सत्कार की कुछ कीमत करके आश्रम की होमधेनु के डकराते रहने पर भी उसके बछड़े को हर लिया और वहाँ के वृक्षादि भी तोड़ दिये।जब परशुरामजी आश्रम में आये तो स्वयं जमदग्निजी नेउनसे सारी बातें कहीं। उन्होंने होम की गाय को भी रोते देखा। इससे वे बड़े ही कुपित हुए और काल के वशीभूत हुए सहस्त्रार्जुन के पास आये। तब परशुरामजी ने अपना सुन्दर धनुष ले उसके साथ बड़ी वीरता से युद्ध कर पैने वाणों से उसकी हजारों भुजाओं को काट डाला तथा उसे परास्त कर काल के हवाले कर दिया। इससे सहस्त्रार्जुन के पुत्रों को बड़ा क्रोध हुआ और वे जमदग्नि पर जा टूटे। परम तेजस्वी जमदग्नि तो तपस्वी ब्राह्मण थे। उन्होंने युद्धादि कुछ नहीं किया तो भी उन्होंने उन्हें मार डाला। इस समय वे अनाथ की तरह 'हे राम ! 'हे राम ! यही चिल्लाते रहे। जब उनकी हत्या करके वे आश्रम से चले गये तो परशुरामजी समिधा लेकर आये।वहाँ अपने पिताजी को इस प्रकार दुर्दशापूर्वक मरे देखकर उन्हें बड़ा दुःख हुआ और वे फूट-फूटकर रोने लगे।कुछ समय तक वे करुणापूर्वक तरह-तरह के विलाप करते रहे ; फिर उनका अग्नि-संस्कार कर संपूर्ण क्षत्रियों का संहार करने की प्रतीज्ञा की। महाबली भृगुनन्दन क्रोध के आवेश में साक्षात् काल के समान हो गये और उन्होंने अकेले ही कीर्तवीर्य के सब पुत्रों को मार डाला। उस समय जिन-जिन क्षत्रियों ने उनका पक्ष लिया, उन सबका भी उन्होंने सफाया कर दिया। इस प्रकार इक्कीस बार भगवान् परशुराम ने पृथ्वी को क्षत्रियहीन कर दिया और उनके रक्त से समन्तपंचक क्षेत्र में पाँच सरोवर भर दिये। इसी समय महर्षि ऋचीक ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें इस घोर कर्म से रोका। तब उन्होंने क्षत्रियों का संहार करना बन्द कर दिया और सारी पृथ्वी ब्राह्मणों को दान देकर वे इस महेन्द्र पर्वत पर निवास करते हैं। राजन् ! फिर अपने नियम के अनुसार परशुरामजी समस्त ब्राह्मण और भाइयों सहित महाराज युधिष्ठिर को दर्शन दिये। धर्मराज युधिष्ठिर ने भाइयों सहित परशुरामजी का स्वागत किया। फिर परशुरामजी की आज्ञा से उस रात को महेन्द्र पर्वत पर ही रहकर दूसरे दिन दक्षिण की ओर चले।




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