पाण्डवों
को राज्य देने के संबंध में कौरवों का विचार और निर्णय
सभी
राजाओं को अपने गुप्तचरों से शीघ्र ही मालूम हो गया कि द्रौपदी का विवाह पाण्डवों के
साथ हुआ है। लक्ष्यवेध करने वाले और कोई नहीं, स्वयं वीरवर अर्जुन थे। उनका साथी जिसने
शल्य को पटक दिया था और पेड़ उखाड़कर बड़े-बड़े राजाओं के छक्के छुड़ा दिये थे, भीमसेन था।
इस समाचार से सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पाण्डवों के बच जाने से प्रसन्नता प्रकट
की और कौरवों के व्यवहार से खिन्न होकर उन्हें धिक्कारा। दुर्योधन को यह समाचार सुनकर
बड़ा दुःख हुआ। वह अपने साथी अश्त्थामा, शकुनि, कर्ण आदि के साथ द्रुपद की राजधानी से
हस्तिनापुर के लिये लौट पड़ा। दुःशासन ने दुर्योधन से धीमे स्वर में कहा, भाईजी, अब
मैं ऐसा समझ रहा हूँ कि भाग्य ही बलवान् है। प्रयत्न से कुछ नहीं होता। तभी तो पाण्डव
अभी तक जी रहे हैं।उस समय सभी कौरव दीन और निराश हो रहे थे।उनके हस्तिनापुर पहुँचकर
वहाँ का सब समाचार सुनकर विदुरजी को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे उसी समय धृतराष्ट्र के पास
जाकर बोले---महाराज, धन्य है, धन्य है। कुरुवंशियों की अभिवृद्धि हो रही है। धृतराष्ट्र
भी प्रसन्न होकर कहने लगे कि, बड़े आनन्द की बात है, बड़े आनन्द की बात है। धृतराष्ट्र
ने ऐसा समझ लिया था कि द्रौपदी मेरे पुत्र दर्योधन को मिल गयी। इसलिये उन्होंने तरह-तरह
के गहने भेजने की आज्ञा देते हुए कहा कि, वर-वधू को मेरे पास लाओ। विदुर ने बतलाया
कि द्रौपदी का विवाह पाण्डवों के साथ हुआ और वे बड़े आनंद से द्रुपद की राजधानी में
निवास कर रहे हैं । धृतराष्ट्र ने कहा,विदुर पाण्डवों को तो मैं अपने पुत्रों से भी
बढकर प्यार करता हूँ। उनके जीवन से, विवाह से, और द्रुपद जैसा संबंधी प्राप्त होने
से मैं और भी प्रसन्न हुआ हूँ। द्रुपद के आश्रय से वे बहुत ही शीघ्र अपनी उन्नति कर
लेंगे। विदुर ने कहा, मैं चाहता हूँ कि जन्म-भर आपकी बुद्धि ऐसी ही बनी रहे। जब विदुर
वहाँ से चले गये, तब दुर्योधन और कर्ण ने धृतराष्ट्र के पास आकर कहा कि, महाराज विदुर
के सामने हमलोग आपसे कुछ भी नहीं कह सकते। आप उनके सामने शत्रुओं की बढती को अपनी बढती
मानकर हर्ष प्रकट करते हैं। हमें तो दिन-रात शत्रुओं के बल के नाश की धुन में लगे रहना
चाहिये। हमें तो अभी से कोई ऐसा उपाय करना चाहिये, जिससे वे आगे चलकर हमारी राज्यसम्पत्ति
को हथिया न सके। धृतराष्ट्र बोले, बेटा, यही तो मैं भी कहता हूँ। परन्तु विदुर के सामने
वाणी से तो क्या, चेहरे से भी मेरा यह भाव प्रकट नहीं होना चाहिये। कहीं वह मेरे भाव
को भाँप न ले, इसलिये मैं उसके सामने पाण्डवों के ही गुणों का बखान करता हूँ। तुम दोनो
इस समय जो करना उचित समझते हो, वह बतलाओ। दुर्योधन ने कहा, पिताजी, मेरा तो ऐसा विचार
है कि कुछ विश्वासी गुप्तचर एवं चतुर ब्राह्मणों को भेजकर कुन्ती और माद्री के पुत्रों
में मनमुटाव उत्पन्न करा दिया जाय अथवा राजा द्रुपद, उनके पुत्र और मंत्रियों को लोभ
के फंदे में फंसाकर वश में कर लेना चाहिये और उनके द्वारा उनको वहाँ से निकलवा देना
चाहिये। यह उपाय भी कर सकते हैं कि द्रौपदी उन्हें छोड़ दें। यदि किसी तरह धोखा देकर
भीमसेन को मारा जा सके, तब तो सारा काम ही बन जाय। भीमसेन के बिना अर्जुन हमारे कर्ण
का चौथाई भी नहीं है। यदि ये उपाय भी आपको न जँचे तो कर्ण को उनके पास भेज दीजिये।
जब वे लोग कर्ण के साथ यहाँ आ जायेंगे तो फिर पहले की तरह कोई-न-कोई उपाय किया जायगा
और इस बार वे नहीं बच सकेंगे। द्रुपद का पूरा सहानुभूति और विश्वास प्राप्त करने के
पहले ही उन्हें मार डालना चाहिये। यही तो मेरी सलाह है। कर्ण, इस संबंध में तुम्हारी
क्या राय है। कर्ण ने कहा, दुर्योधन मैं तो तुम्हारी राय पसंद नहीं करता। तुम्हारे
बतलाये हुए उपायों से पाण्डवों का वश में होना संभव नहीं दीखता। वे आपस में इतना प्रेम
करते हैं कि मनमुटाव का कोई ढंग नहीं दीखता। सबका प्रेम एक ही स्त्री में है और वह
विवाह के द्वारा प्राप्त है, इससे उनकी घनिष्टता और भी सिद्ध होती है। राजा द्रुपद
भी एक श्रेष्ठ पुरुष हैं। वह धन का लोभी नहीं। तुम सारा राज्य देकर भी उसे पाण्डवों
के विपक्ष में नहीं कर सकते। जब तक श्रीकृष्ण यादवों की सेना लेकर पाण्डवों को राज्य
दिलवाने के लिये नहीं पहुँचते, तभी तक तुम अपना पराक्रम प्रकट कर लो। बात यह है कि
श्रीकृष्ण पाण्डवों के लिये अपनी अपार संपत्ति, सारे भोग और राज्य का त्याग करने में
भी नहीं हिचकेंगे। इसलिये मेरी सम्मति तो यह है कि बहुत बड़ी सेना लेकर अभी चढाई कर
दें और द्रुपद को हराकर पाण्डवों को पराक्रम से ही मार डालें, क्योंकि पाण्डव साम,
दान और भेद नीति से वश में नहीं किये जा सकते। उन वीरों को केवल वीरता से ही मार डालना
चाहिये। धृतराष्ट्र ने कहा, बेटा कर्ण तुम शास्त्रार्थ-कुशल तो हो ही, नीति-कुशल भी
हो। जो कुछ तुमने कहा है, वह तुम्हारे अनुरूप है। परन्तु मेरा विचार यह है कि आचार्य
द्रोण, भीष्मपितामह, विदुर और तुम दोनो---सब मिलकर इस संबंध में फिर विचार कर लो और
ऐसा उपाय निकालो, जिससे परिणाम में सुख मिले। राजा धृतराष्ट्र ने भीष्मपितामह आदि को
बुलवाया। सब लोग गुप्त स्थान में बैठकर विचार करने लगे। भीष्मपितामह ने कहा,मुझे पाण्डवों
के साथ वैर-विरोध करना पसंद नहीं है। मेरे लिये धृतराष्ट्र और पाण्डु तथा दोनो के लड़के
एक-से हैं। मैं सबसे एक-सा प्यार करता हूँ। जैसे मेरा धर्म है पाण्डवों की रक्षा करना,
वैसे ही तुमलोगों का भी है। मैं पाण्डवों से झगड़ा करने का समर्थन नहीं कर सकता। तुम
उनके साथ मेल-मिलाप का बर्ताव करो और उनका आधा राज्य दे दो। जैसे तुम इस राज्य को अपने
बाप-दादों का समझते हो, वैसे ही यह उनके बाप दादों का भी तो है। दुर्योधन, यदि यह राज्य
पाण्डवों को नहीं मिलेगा तो तुम या भरतवंश का कोई भी पुरुष अपने को उस राज्य का उत्तराधिकारी
कैसे कह सकेगा। तुम जो अभी राजा बन बैठे हो, वह धर्म के विपरीत है। तुमसे भी पहले वे
राज्य के अधिकारी हैं। तुम्हे हँसी-खुशी से उनका राज्य लौटा देना चाहिये। इसी में तुम्हारा
और सब लोगों का भला है अन्यथा नहीं। तुम अपने सिर पर कलंक का टीका क्यों लगा रहे हो।
जबसे मैने सुना कि कुन्ती और पाँचो पाण्डव भस्म हो गये, तबसे मेरी आँखों के सामने अंधेरा
छा गया था। उनके जलने का दोष जितना तुमपर लगाया गया, उतना पुरोचन पर नहीं। अब पाण्डवों
के जीवित रहने और मिलने से तुम्हारी अपकीर्ति मिटायी जा सकती है। पाण्डवों के जीवित
रहते स्वयं इन्द्र भी उन्हें उनके राज्य से वंचित नहीं कर सकते। वे बुद्धिमान और धर्मात्मा
हैं। आपस में मेल-जोल भी रखते हैं। उन्हें तुमने अबतक जो राज्य से दूर रखने का प्रयत्न
किया है, वह अधर्म है। धृतराष्ट्र मैं तुम्हे स्पष्ट रूप से अपनी सम्मति बतलाये देता
हूँ। यदि तुम्हे धर्म से रत्तीभर भी प्रेम है, तम मेरा प्रिय अथवा कल्याण करना चाहते
हो,तो शीघ्र-से-शीघ्र पाण्डवों का आधा राज्य उन्हें लौटा दो। द्रोणाचार्य ने कहा, धृतराष्ट्र ,
मित्रों का यही धर्म है कि जब उनसे कोई सलाह पूछी जाय तो वे धर्म, अर्थ और यश की वृद्धि
करनेवाली सम्मति दे। मैं महात्मा भीष्म की सम्मति पसंद करता हूँ। सनातन धर्म के अनुसार
मैं यही ठीक समझता हूँ कि पाण्डवों को आधा राज्य दे दिया जाय। आप किसी प्रियवादी पुरुष
को द्रुपद की राजधानी में भेजिये। वह पाण्डवों और नव-वधू द्रौपदी के लिेए अनेकों प्रकार
के रत्न और सामग्री लेकर जाय और द्रुपद से कहे कि महाराज द्रुपद, आपके पवित्र वंश में
संबंध होने से समस्त कुरुवंश को, राजा धृतराष्ट्र और दुर्योधन को बड़ी प्रसन्नता हुई
है। इसे वे अपने कुल और गौरव की वृद्धि मानते हैं। इसके बाद वह कुन्ती और पाण्डवों
को आश्वासन दे, समझाये-बुझाये। जब उनलोगों के मन में आपके प्रति विश्वास का उदय हो
जाय और वे शान्त हो जायँ, तब उनके सामने यहाँ आने का प्रस्ताव उपस्थित करें। द्रुपद
की ओर से स्वीकृति मिल जाने पर दुःशासन और विकर्ण सेना और सामन्तों सहित जाकर सम्मान
के साथ द्रौपदी और पाण्डवों को ले आवें। उन्हें उनका पैतृक राज्य दे दिया जाय। उनका
आदर करने से सारी प्रजा आप पर प्रसन्न होगी, क्योंकि सब लोग ऐसा ही चाहते हैं। इस प्रकार
मैं स्पष्ट रूप से महात्मा भीष्म की सम्मति का अनुमोदन करता हूँ और आपके हित की सलाह
देता हूँ। इसी में आपके व द्रुपद की ओर से स्वीकृति मिल जाने पर दुःशासन और विकर्ण
सेना और सामन्तों सहित जाकर सम्मान के साथ द्रौपदी और पाण्डवों को ले आवें।उन्हें उनका
पैतृक राज्य दे दिया जाय। उनका आदर करने से सारी प्रजा आप पर प्रसन्न होगी, क्योंकि
सब लोग ऐसा ही चाहते हैं। इस प्रकार मैं स्पष्ट रूप से महात्मा भीष्म की सम्मति का
अनुमोदन करता हूँ और आपके हित की सलाह देता हूँ। इसी में आपके वंश की भलाई है। भीष्मपितामह
और द्रोणाचार्य की बात सुनकर कर्ण जल-भुन रहा था। उसने कहा कि, महाराज पितामह भीष्म
और आचार्य द्रोण आपके द्वारा सब प्रकार से सम्मानित और सत्कृत हैं। आप प्रायः इनसे
अपने हित की सलाह लेते ही रहते हैं। यदि विधाता ने आपके भाग्य में राज्य लिखा है तो
सारे संसारके शत्रु हो जाने पर भी वह आपके हाथ से नहीं छिन सकता। यदि कोई अपने हृदय
के भाव को छिपाकर बुरे इरादे से अमंगल को मंगल बतावे तो समझदार पुरुष को उसका कहा नहीं
मानना चाहिये। मंत्रियों की सलाह अच्छी है या बुरी, इसका निर्णय आप स्वयं कीजिये। क्योंकि
आप अपना हित और अहित भली भाँति समझते हैं। द्रोणाचार्य ने कहा कि, अरे कर्ण, मैं तेरी
दुष्टता समझ रहा हूँ। तेरा हृदय दुर्भाग्य से परिपूर्ण है। तू पाण्डवों का अनिष्ट करने
के लिये हमारी सलाह को अनिष्टकारिणी बता रहा है। मैने अपनी समझ में कुरुवंश के रक्षा
और हित की बात कही है । यदि हमारी सलाह से कुरुवंश का अहित दीख पड़ता हो तो तुझे जिससे
हित दीखे, वही कर। मैं कहे देता हूँ कि हमारी सलाह न मानने से शीघ्र ही कौरव-वंश का विनाश हो जायगा। विदुर ने कहा, महाराज, हितैषी बन्धु-बान्धवों का यह कर्तव्य
है कि वे निःसंकोच आपके
हित की बात कह दें। परंतु आप किसी की बात सुनना भी तो नहीं
चाहते। इसी से उनकी
बात को हृदय
में स्थान नहीं देते।
पितामह भीष्म और आचार्य
द्रोण ने बहुत
ही प्रिय
और हितकर
बातें कही है ।
परन्तु आपने उन्हें
अभी कहाँ स्वीकार
किया । मैने खूब सोच-विचारकर देख लिया है कि भीष्म
और द्रोण
से बढकर आपका
कोई मित्र नहीं
है । ये दोनो महापुरुष अवस्था, बुद्धि और शास्त्रज्ञान आदि सभी बातों में सबसे बढे-चढे है। इनके
हृदय में आपके और पाण्डु के पुत्रों
के प्रति समान
स्नेह भाव है ।
बायें हाथ से बाण चलानेवाले अर्जुन को और तो क्या
स्वयं इन्द्र
भी युद्ध में नहीं
जीत सकता।
महाबाहु भीम जिसकी भुजाओं में दस हजार हाथियों का बल है, उसको देवतालोग भी युद्ध
में कैसे
जीत सकते
हैं । रण-बाँकुरे नकुल सहदेव अथवा
धैर्य, दया, क्षमा और पराक्रम के मूर्तिमान्
विग्रह धर्मराज युधिष्ठिर
को ही युद्ध के द्वारा किस प्रकार
हराया जा सकता
है। आपको समझ लेना
चाहिये कि पाण्डवों के पक्ष
में स्वयं
श्रीबलरामजी और सात्यकि
हैं। भगवान् श्रीकृष्ण उनके सलाहकार हैं।
बलवान् एवं असंख्य यदुवंशी उनके लिए प्राणों
की बाजी
लगाने को तैयार
हैं। यदि युद्ध हुआ तो पाण्डवों की जीत निश्चित
है। यदि मान भी लें कि आपका पक्ष निर्बल नहीं है, फिर भी जो काम मेल-जोल से निकल
सकता है उसे झगड़ा-बखेड़ा करके
संदहास्पद बना देना कहाँ
की बुद्धिमानी है। जबसे
प्रजा को यह मालूम
हुई है कि पाण्डव जीवित हैं, तब से सभी नागरिक उनके
दर्शन के लिये उत्सुक
हो रहे हैं। इस समय पाण्डवों के विरुद्ध कोई काम करने से राजविप्लव
हो जायगा।
दुर्योधन, कर्ण
और शकुनी आदि अधर्मी और दुष्ट हैं। इनकी समझ अभी तक कच्ची
है। इनकी बात मत मानिये।
मैने आपको पहले ही सूचित
कर दिया
था कि दुर्योधन
के अपराध से सारी प्रजा
का सत्यानाश
हो जायगा।
धृतराष्ट्र ने कहा, विदुर, भीष्मपितामह एवं आचार्य द्रोण बड़े ही बुद्धिमान एवं ऋषितुल्य हैं।
इनकी सलाह मेरे परम हित की है। तुमने भी जो कुछ कहा है, उसे मैं स्वीकार करता हूँ।
युधिष्ठिर आदि पाँचों पाण्डव जैसे
पाण्डु के पुत्र
हैं, वैसे ही मेरे
भी। मेरे पुत्रों की तरह राज्य
पर उनका
भी अधिकार है। तुम पांचाल देश में जाओ और राजा
द्रुपद की अनुमति
से कुन्ती, द्रौपदी तथा पाण्डवों
को सत्कारपूर्वक
यहाँ ले आओ। धृतराष्ट्र
की आज्ञा
से विदुर ने द्रुपद की राजधानी के लिये
प्रस्थान किया
।
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