Wednesday 19 August 2015

सभापर्व---दुर्योधन की जलन और शकुनि की सलाह

 दुर्योधन की जलन और शकुनि की सलाह
    राजा दुर्योधन ने इन्द्रप्रस्थ में रहकर सारी सभा का निरीक्षण किया। उसने वहाँ ऐसा कला कौशल देखा, जो हस्तिनापुर में कभी देखा नहीं था। एक दिन सभा में घूमते समय दुर्योधन किसी स्फटिक के चौक में पहुँच गया और उसे जल समझकर अपना वस्त्र उठा लिया। पीछे अपना भ्रम जानकर उसे दुःख हुआ और वह यों ही इधर-उधर भटकने लगा। अन्त में वह स्थल को जल समझकर गिर पड़ा और दुःखी एवं लज्जित हुआ। वह वहाँ से कुछ ही दूर आगे बढा था कि स्थल के धोखे से स्फटिक के समान निर्मल जल एवं कमलों से सुशोभित बावली में जा पड़ा। धर्मराज की आज्ञा से उसे सेवकों ने उत्तम-उत्तम वस्त्र लाकर दिये। उसकी यह दशा देखकर भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, सब-के-सब हँसने लगे। दुर्योधन के असहिष्णु चित्त में उनकी हँसी से कष्ट तो अवश्य हुआ, परन्तु उसने अपने मन का भाव छिपा लिया और उनकी ओर दृष्टि उठाकर देखा भी नहीं। इसके बाद जब वह दरवाजे के आकार की स्फटिक-निर्मित भीत को फाटक समझकर घुसने लगा, तब ऐसी टक्कर लगी कि उसे चक्कर आ गया। एक स्थान पर बड़े-बड़े किवाड़ धक्का देकर खोलने लगा तो दूसरी ओर गिर पड़ा। एक बार सही दरवाजे पर पहुँचा तो भी धोखा समझकर उधर से लौट आया। इस प्रकार बार-बार धोखा खाने से और यज्ञ की अद्भुत विभूति देखने से दुर्योधन के मन में बड़ी जलन और पीड़ा हुई। वह युधिष्ठिर से अनुमति लेकर हस्तिनापुर के लिये चल पड़ा। चलते समय पाण्डवों के ऐश्वर्य एवं सम्पत्ति के विचार से दुर्योधन का मन भयंकर संकल्पों से घिर गया। पाण्डवों की प्रसन्नता, राजाओं की अधीनता और अबाल-वृद्ध की उनके परति सहानुभूति देखकर दुर्योधन के चित्त में इतनी जलन हुई कि उसके शरीर की कान्ति यकायक नष्ट हो गयी। शकुनी ने अपने भांजे की विकलता ताड़कर कहा, दुर्योधन, तुम्हारी साँस लम्बी क्यों चल रही है। दुर्योधन ने कहा, मामाजी, धर्मराज युधिष्ठिर ने अर्जुन के शस्त्र-कौशल से सारी पृथ्वी को अपने अधीन कर ली है और उन्होंने इन्द्र के समान निर्विघ्न राजसूय-यज्ञ सम्पन्न कर लिया है। उनका यह ऐश्वर्य देखकर मेरा शरीर रात-दिन जलता रहता है। श्रीकृष्ण ने सबके सामने ही शिशुपाल को मार गिराया। परन्तु किसी राजा की चूँ तक करने की हिम्मत नहीं हुई। कठिनाई तो यह है कि मैं अकेला उनकी राज्यलक्ष्मी ले नहीं सकता और मुझे मेरा कोई सहायक दीखता नहीं है। अब मैं प्राण त्यागने का विचार कर रहा हूँ। मेरे मन में युधिष्ठिर का महान ऐश्वर्य देखकर यही निश्चय हुआ कि प्रारब्ध ही प्रधान है और पुरुषार्थ व्यर्थ। मैने पहले पाण्डवों के नाश का प्रयत्न किया था, परन्तु वे सभी विपत्तियों से बच गये और अब दिनों दिन उन्नत होते जा रहे हैं। यही तो दैव की प्रधानता और पुरुषार्थ की निरर्थकता है। दैव की अनुकूलता से वे बढ रहे हैं और पुरुषार्थ करने पर भी मेरी अवनति होते जा रही है। मामाजी अब आप मुझ दुखी को प्राणत्याग की आज्ञा दीजिये, क्योंकि मैं क्रोध की आग में झुलस रहा हूँ। आप पिताजी के पास जाकर यह समाचार सुना दीजियेगा। शकुनी ने कहा, दुर्योधन, पाण्डव अपने भाग्यानुसार प्राप्त भाग का भोग कर रहे हैं, उनसे द्वेष नहीं करना चाहिये। तुम्हारा यह समझना ठीक नहीं है कि मेरा कोई सहायक नहीं। क्योंकि तुम्हारे सभी भाई तुम्हारे अधीन एवं अनुयायी हैं। महाधनुर्धर द्रोण, उनके पुत्र अश्त्थामा, सूतपुत्र कर्ण, महारथी कृपाचार्य, राजा सौमदत्ति तथा उसके भाई तुम्हारे पक्ष में हैं। तुम इनकी सहायता से चाहो तो सारे भूमण्डल को जीत सकते हो। दुर्योधन ने कहा, मामाजी, यदि आपकी आज्ञा हो तो आपको और आपके बतलाये हुए राजाओं को तथा औरों को भी साथ लेकर मैं पाण्डवों को जीत लूँ और उन्हें हँसने का जा चखा दूँ। इस समय पाण्डवों को जीत लेने पर सारा भूमंडल मेरा हो जायगा, सब राजा तथा वह दिव्य-सभा भी मेरे अधीन हो जायगी। शकुनी ने कहा, दुर्योधन, भगवान् श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीमसेन, युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, द्रुपद और धृष्टधुम्न आदि को युद्ध मे जीतना बड़े-बड़े देवताओं की शक्ति से भी बाहर है। ये सब महारथी, श्रेष्ठ धनुर्धर, अस्त्र-विद्या में कुशल और उत्तम योद्धा हैं। अच्छा, मैं तुम्हें युधिष्ठिर को जीतने का उपाय बतलाता हूँ। युधिष्ठिर को जूए का शौक तो बहुत है। परंतु उन्हें खेलना नहीं आता। यदि उन्हें जूए के लिये बुलाया जाय तो वे ना नहीं कर सकेंगे। और मैं जूआ खेलने में ऐसा निपुण हूँ कि भूमण्डल तो क्या, त्रिलोकी में भी मेरे समान कोई नहीं है। इसलिये तुम उनको बुलाओ,मैं चतुराई से सारा राज्य और वैभव ले लूँगा। दुर्योधन, ये सब बातें तुम अपने पिता धृतराष्ट्र से कहो, उनकी आज्ञा मिलने पर मैं उन्हें अवश्य जीत लूँगा। दुर्योधन ने कहा, मामाजी, आप ही कहिये। मैं नहीं कह सकूँगा। 

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