Sunday 16 August 2015

आदिपर्व---सुभद्राहरण और अभिमन्यु एवं प्रतिविन्ध्य आदि कुमारों का जन्म

सुभद्राहरण और अभिमन्यु एवं प्रतिविन्ध्य आदि कुमारों का जन्म
     एक बार वृष्णि, भोज और अंधक वंशों के यादवों ने रैवतक पर्वत पर बहुत बड़ा उत्सव मनाया। यदुवंशी बालक सज-धज कर टहल रहे थे। अक्रूर, सारण, गद, विदूरथ, निशठ, पृथु, विपृथु, सात्यकि, उद्धव, बलराम तथा अन्य प्रधान-प्रधान यदुवंशी अपनी पत्नयों के साथ उत्सव की शोभा बढा रहे थे। गाजे-बाजे, नाच-तमाशे की भीड़ सब ओर लगी हुई थी। इस उत्सव में भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन भी बड़े प्रेम से साथ-साथ घूम रहे थे। वहीं श्रीकृष्ण की बहिन सुभद्रा भी थी। उसकी रूप-राशि से मोहित होकर अर्जुन एकटक उसकी ओर देखने लगे। भगवान् कृष्ण ने अर्जुन के अभिप्राय को जानकर कहा कि--क्षत्रियों के यहाँ स्वयंवर की चाल है। परंत यह निश्चय नहीं कि सुभद्रा तुम्हे स्वयंवर में वरेगी या नहीं, क्योंकि सबकी रुचि अलग-अलग होती है। क्षत्रियों में बलपूर्वक हरकर ब्याह करने की भी नीति है। तुम्हरे लिये यही मार्ग प्रशस्त है। भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन ने यह सलाह करके अनुमति के लिये युधिष्ठिर के पास दूत भेजा। युधिष्ठिर ने हर्ष के साथ इस प्रस्ताव का अनुमोदन किया। दूत के लौट आने पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को वैसी सलाह दे दी। एक दिन सुभद्रा ने रैवतक पर्वत पर देवपूजा करके पर्वत की प्रदक्षिणा की। जब सुभद्रा की सवारी द्वारका के लिये रवाना हुई, तब अवसर पाकर अर्जुन ने बलपूर्वक उस उठाकर रथ में बैठा लिया और उस सुवर्णमय रथ से अपने नगर की ओर चल दिये। सैनिक सुभद्राहरण का यह दृश्य देखकर चिल्लाते हुए द्वारका की सुधर्मा सभा में गये और वहाँ का सब हाल कहा। सभापाल ने युद्ध का स्वर्णजटित डंका बजाने का आदेश दिया। वह आवाज सुनकर भोज, अंधक और वृष्णि वंशों के यादव अपने जरूरी काम-काज छोड़कर वहाँ इकट्ठे होने लगे। सभा भर गयी। सैनिकों के मुख से सुभद्राहरण का वृतांत सुनकर यादवों की आँखें चढ गयीं। उन्होने अपने अपमान का बदला लेना ही निश्चित किया। कोई रथ जोतने लगा, कोई कवच बाँधने लगा, कोई ताव के मारे खुद घोड़ा जोतने लगा,युद्ध की सामग्री इकट्ठी होने लगी। बलरामजी ने कहा, यदुवंशियों, श्रीकृष्ण की बात सुने बिना तुमलोग ऐसी नासमझी क्यों कर रहे हो। इस झूठ-मूठ के गरजने का अभिप्राय क्या है। इसके बाद उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा, जनार्दन तुम्हारी इस चुप्पी का क्या अभिप्राय है। तुम्हारा मित्र समझकर अर्जुन का इतना सत्कार किया गया और उसने जिस पत्तल में खाया, उसी में छेद किया। वह उत्तम वंश का होनहार युवक है। उसके साथ संबंध करने में भी कोई आपत्ति नहीं है। फिर भी उसने यह साहस करके हमें अपमानित और अनावृत किया है। उसका यह कार्य हमारे माथे पर पैर रखने के बराबर है। मैं यह नहीं सह सकता। मैं अकेला ही समस्त कुरुवंशियों के लिये काफी हूँ। मैं अर्जुन की ढिठाई क्षमा नहीं कर सकता। बलरामजी की वीरोचित बात का सब यदुवंशियों ने अनुमोदन किया। सबके अन्त में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा, अर्जुन ने हमारे वंश का अपमान नहीं सम्मान किया है। उन्होंने हमारे वंश की महत्ता समझकर ही हमारी बहिन का हरण किया है। क्योंकि उन्हें स्वयंवर क द्वारा उसके मिलने में संदेह था। उनका काम क्षत्रियधर्म के अनुरूप हुआ है और हमारे योग्य है। सुभद्रा और अर्जुन की जोड़ी बहुत ही सुन्दर होगी। महात्मा भरत के वंशधर और कुन्तिभोज के दौहित्र को कन्या देकर नाता जोड़ना भला, किसे नापसंद हो सकता है। अर्जुन को जीतना भी भगवान् शंकर के अतिरिक्त और किसी के लिये दुष्कर है। इस समय उस फुर्तीले जवान योद्धा के पास मेरे रथ और घोड़े हैं। मैं समझता हूँ कि इस समय लड़ाई का उद्योग न करके अर्जुन के पास जाकर मित्रभाव से कन्या सौंप देना ही उत्तम है। कहीं अर्जुन ने अकेले ही तुमलोगों को जीत लिया और कन्या को हस्तिनापुर ले गया तो यदुवंश की बड़ी बदनामी होगी। यदि उससे मित्रता कर ली जाय तो हमारा यश बढेगा। सब लोगों ने श्रीकृष्ण की बात मान ली।सम्मान के साथ अर्जुन लौटा लाये गये। द्वारका में सुभद्रा के साथ उनका विधिपूर्वक विवाह-संस्कार सम्पन्न हुआ। विवाह के बाद वे एक वर्ष तक द्वारका में रहे और शेष समय पुष्कर क्षेत्र में व्यतीत किया।बारह वर्ष पूरे होने पर वे सुभद्रा के साथ इन्द्रप्रस्थ लौट आये। अर्जुन ने नम्रता के साथ अपने बड़े भाई युधिष्ठिर के चरणों में नमस्कार करके पूजा की। द्रौपदी ने उन्हें प्रेम-भरा उलाहना दिया और उन्होंने उसे प्रसन्न किया। सुभद्रा लाल रंग की रेशमी साड़ी पहिनकर ग्वालिन के वेश में रनिवास में गयी। कुन्ती के चरण छुए। सर्वांगसुन्दरी पुत्रवधू को देखकर कुन्ती ने आशीर्वाद दिया। सुभद्रा ने द्रौपदी के पैर छूकर कहा, बहिन, मैं तुम्हारी दासी हूँ। द्रौपदी ने प्रसन्नता से भरकर गले लगा लिया। अर्जुन के आ जाने से महल और नगर में प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी। जब द्वारका में यह समाचार पहुँचा कि अर्जुन इन्द्रप्रस्थ पहुँच गये हैं तब भगवन् श्रीकृष्ण, बलराम, बहुत से श्रेष्ठ यदुवंशी, उनके पुत्र-पौत्र तथा बहुत सी सेना भी इन्द्रप्रस्थ के लिये रवाना हुई। उनके शुभागमन का समाचार सुनकर युधिष्ठिर ने नकुल और सहदेव को अगवानी करने के लिये भेजा। सारा इन्द्रप्रस्थ झण्डियों और फूल-पत्तियों से सजा दिया गया। चन्दन और अगर की सुगंध चारों ओर फैल गयी। श्रीकृष्ण और बलराम ने राजमहल में पहुँचकर सबके साथ प्रणाम आशीर्वाद आदि उचित व्यवहार किया। सबकी यथायोग्य आवभगत की गयी। सारा इन्द्रप्रस्थ झण्डियों और फूल-पत्तियों से सजा दिया गया। चन्दन और अगर की सुगंध चारों ओर फैल गयी। श्रीकृष्ण और बलराम ने राजमहल में पहुँचकर सबके साथ प्रणाम आशीर्वाद आदि उचित व्यवहार किया। सबको यथायोग्य आवभगत की गयी। भगवान् श्रीकृष्ण ने विवाह के उपलक्ष्य में बहुत सा दहेज दिया। चार घोड़ों से युक्त चतुर सारथी सहित सुवर्णजटित एक सहस्त्र रथ, मथुरा देश की पवित्र दस हजार गौवें, एक हजार सुवर्णभूषित सफेद रंग की घोड़ियाँ, सब प्रकार से योग्य सहस्त्र दासियाँ एक लाख घोड़े और कीमती कपड़े तथा कम्बल भी दिये। दस भार सोना तथा एक हजार मदमस्त हाथी दिेये गये। युधिष्ठिर की सम्पत्ति बढ गयी। सब लोग राजभवन में रहकर आमोद-प्रमोद करने लगे। पाण्डवों के आनंद का ठिकाना न रहा। यदुवंशी तो कुछ दिनों वहाँ रहकर द्वारकापुरी चले गये। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण कुछ समय के लिये अर्जुन के पास इ्द्रप्रस्थ में ही रह गये। समय आने पर सुभद्रा के गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम अभिमन्यु रखा गया। उसके जन्म के अवसर पर युधिष्ठिर ने दस हजार गौएँ, बहुत-सा सोना एवं रत्न, धन आदि का दान किया। अभिमन्यु पाण्डवों को, श्रीकृष्ण को और पुरवासियों को बहुत प्यारे लगते थे। श्रीकृष्ण ने उनके सब संस्कार सम्पन्न किये। वेदध्ययन के बाद उन्होने अर्जुन से ही धनुर्वेद की शिक्षा ग्रहण की। अभिमन्यु का अस्त्र-कौशल देखकर अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता होती। वे बहुत से गुणों में तो भगवान् श्रीकृष्ण के तुल्य थे। द्रौपदी के गर्भ से भी पाँचों पाण्डवों द्वारा एक-एक वर्ष के अन्तर पर पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। ब्राह्मणों ने युधिष्ठिर से कहा, महाराज, आपका पुत्र शत्रुओं का प्रहार सहन करने में विन्ध्याचल के समान होगा, इसलिये इसका नाम प्रतिविन्ध्य होगा। भीमसेन ने एक सहस्त्र सोमयाग करके पुत्र उत्पन्न किया है इसलिये उनके पुत्र का नाम सुतसोम होगा। अर्जुन ने बहुत से प्रसिद्ध कर्म करने के अनन्तर लौटकर पुत्र उत्पन्न किया है, इसलिये इस बालक का नाम होगा श्रुतकर्मा। कुरुवंश में पहले शतानीक नाम के एक बड़े प्रतापी राजा हो गये हैं। नकुल अपने पुत्र का नाम उन्हीं के नाम पर रखना चाहते हैं इसलिये इस पुत्र का नाम शतानीक होगा। सहदेव का पुत्र कृतिका नक्षत्र में उत्पन्न हुआ है इसलिये उसका नाम श्रुतसेन होगा। धौम्य ने इन बालकों के संस्कार विधिपूर्वक कराये। बालकों ने वेदपाठ समाप्त करके अर्जुन से दिव्य और मानुष युद्ध की अस्त्र-शिक्षा प्राप्त की। इन सब बातों से पाण्डवों को बड़ी प्रसन्नता हुई।   

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