Monday 24 August 2015

वनपर्व---कलियुग का दुर्भाव, जूए में नल का हारना और नगर से निर्वासित

कलियुग का दुर्भाव, जूए में नल 
का हारना और नगर से निर्वासित

जिस समय दमयन्ती के स्वयंवर से लौटकर इन्द्रादि लोकपाल अपने लोकों में जा रहे थे, उस समय मार्ग में ही कलियुग और द्वापर से भेंट हो गयी। इन्द्र ने पूछा---'क्यों कलियुग ! कहाँ जा रहे हो ?' कलियुग ने कहा---'मैं दमयन्ती के स्वयंवर में उससे विवाह करने के लिये जा रहा हूँ।' इन्द्र ने हँसकर कहा---'अजी, वह स्वयंवर तोकभी का पूरा हो गया। दमयन्ती ने राजा नल को वरण कर लिया, हमलोग ताकते ही रह गये।' कलियुग ने क्रोध में भरकर  कहा---'ओह, तब तो बड़ा अनर्थ हुआ। उसने देवताओं की उपेक्षा करके मनुष्य को अपनाया, इसलिये उसको दण्ड देना चाहिये।' देवताओं ने कहा---'दमयन्ती ने हमारी आज्ञा प्राप्त करके नल को वरण किया है। वास्तव में नल सर्वगुणसम्पन्न और उसके योग्य है। वे समस्त धर्मों के मर्मज्ञ एवं सदाचारी हैं।उनको शाप देना तो नरक की धधकती आग में गिरना है।' यह कहकर देवता लोग चले गये।अब कलियुग ने द्वापर से कहा---'भाई ! मैं अपने क्रोध को शान्त नहीं कर सकता। इसलिये मैं नल के शरीर में निवास करूँगा।मैं उसे राजच्युत कर दूँगा। तब वह दमयन्ती के साथ नहीं रह सकेगा। इसलिये तुम भी जूए के पासों में प्रवेश करके मेरी सहायता करना।' द्वापर ने उसकी बात स्वीकार कर ली। द्वापर और कलियुग दोनो ही नल की राजधानी में आ बसे। बारह वर्ष तक वे इस प्रतीक्षा में रहे कि नल में कोई दोष दीख जाय। एक दिन राजा नल सन्ध्या के समय लघुशंका से निवृत होकर पैर धोये बिना ही आचमन करके सन्ध्या-वंदन करने बैठ गये। यह अपवित्र अवस्था देखकर कलियुग उनके शरीर में प्रवेश कर गया। साथ ही दूसरा रूप धारण करके वह पुष्कर के पास गया और बोला---'तुम नल के साथ जूआ खेलो और मेरी सहायता से जूए में राजा नल को जीतकर निषध देश का राज्य प्राप्त कर लो।' पुष्कर उसकी बात स्वीकार करके नल के पास गया। द्वापर भी पासों का रूप धारण करके उनके साथ हो लिया। जब पुष्कर ने राजा नल से बार-बार जूआ खेलने का आग्रह किया, तब राजा नल दमयन्ती के सामने अपने भाई की बार-बार की ललकार सह न सके। उन्होंने उसी समय पासे खेलने का निश्चय कर लिया। उस समय नल के शरीर में कलियुग घुसा हुआ था; इसलिये राजा नल दावँ में सोना, चाँदी, रथ, वाहन आदि जो कुछ लगाते वह हार जाते। प्रजा और मंत्रियों ने बड़ी व्याकुलता के साथ राजा नल से मिलकर जूए को रोकना चाहा और आकर फाटक के सामने खड़े हो गये। उनका अभिप्राय जानकर द्वारपाल रानी दमयन्ती के पास गया और बोला कि 'आप महाराज से निवेदन कर दीजिये, आप धर्म और अर्थ के तत्वज्ञ हैं। आपकी सारी प्रजा आपका दुःख सह्य न होने के कारण कारयवश दरवाजे पर आकर खड़ी है।' दमयन्ती स्वयं दुःख के मारे दुर्बल और अचेत हुई जा रही थी। उसने आँखों में आँसू भरकर गद्गद् कण्ठ से महाराज के सामने निवेदन किया---'स्वामी ! नगर की राजभक्त प्रजा और मन्त्रिमण्डल के लोग आपसे मिलने आए हैं। आप उनसे मिल लीजिये।' परन्तु नल कलियुग के आवेश होने के कारण कुछ भी नहीं बोले। मन्त्रिमण्डल और प्रजा लोग शोकग्रस्त होकर लौट गये। पुष्कर और नल में कई महीने तक जूआ होता रहा तथा राजा नल बराबर हारते गये। राजा नल जूए में जो पासे फेंकते, वे बराबर ही उनके प्रतिकूल पड़ते। सारा धन हाथ से निकल गया। जब दमयन्ती को इस बात का पता चला, तब उसने बृहत्सेना नाम की धाय के द्वारा राजा नल के सारथी वार्ष्णेय को बुलवाया और उससे कहा---'सारथी ! तुम राजा के प्रेमपात्र हो। अब यह बात तुमसे छिपी नहीं है कि महाराज बड़े संकट में पड़ गये हैं। इसलिये तुम घोड़ों को रथ में जोड़ लो और मेरे दोनो बच्चों को रथ में बैठाकर कुण्डिननगर में ले जाओ। तुम रथ और घोड़ों को भी वहीं छोड़ देना। तुम्हारी इच्छा हो तो वहीं रहना नहीं तो कहीं दूसरी जगह चले जाना।' सारथी ने दमयन्ती के कथनानुसार मंत्रियों से सलाह करके कुण्डिनपुर में पहुँचा दिया, रथ और घोड़े भी वहीं छोड़ दिये। वहाँ से पैदल ही चलकर वह अयोध्या जा पहुँचा और वहीं ऋतुपर्ण राजा के पास सारथी का काम करने लगा। वार्ष्णेय सारथी के चले जाने के बाद पुष्कर ने पासों के खेल में राजा नल का राज्य और धन ले लिया। उसने नल को सम्बोधन करके हँसते हुए कहा---'और जूआ खेलोगे ?' परन्तु तुम्हारे पास दावँ पर लगाने के लिये तो कुछ है ही नहीं। यदि तुम दमयन्ती  को दावँ पर लगाने योग्य समझो तो फिर खेल हो। नल का हृदय फटने लगा। उन्होंने अपने शरीर से सब वस्त्राभूषण उतार दिये और केवल एक वस्त्र पहने नगर से बाहर निकले। दमयन्ती ने भी केवल एक साड़ी पहनकर अपने पति का अनुगमन किया। नल के मित्र और सम्बन्धियों को बड़ा शोक हुआ। नल और दमयन्ती दोनो नगर के बाहर तीन रात रहे। पुष्कर ने नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो मनुष्य नल के प्रति सहानुभूति प्रकट करेगा, उसको फाँसी की सजा दी जायगी। भय के मारे नगर के लोग नगर के लोग अपने राजा नल का सतकार तक न कर सके। राजा नल तीन दिन-रात तक अपने नगर के पास केवल पानी पीकर रहे। चौथे दिन उन्हें बड़ी भूख लगी। फिर दोनो फल-मूल खाकर वहाँ से आगे बढे।एक दिन राजा नल ने देखा कि बहुत से पक्षी उनके पास ही बैठे हैं। उनके पंख सोने के समान दमक रहे हैं। नल ने सोचा कि इनकी पाँख से कुछ धन मिलेगा।ऐसा सोचकर उन्हें पकड़ने के लिये नल ने उनपर अपना पहनने का वस्त्र डाल दिया। पक्षी उनका वस्त्र लेकर उड़ गये। अब नल वस्त्रहीन होकर बड़ी दीनता के साथ मुँह नीचे किये खड़े हो गये। पक्षियों ने कहा---'दुर्बुद्धे ! तू नगर से एक वस्त्र पहनकर निकला था। उसे देखकर हमें बड़ा दुःख हुआ था। ले, अब हम तेरे शरीर का वस्त्र लिये जा रहे हैं। हम पक्षी नहीं, जूए के पासे हैं।' नल ने दमयन्ती से पासों की बात कह दी। इसके बाद नल ने कहा---प्रिये, तुम देख रही हो, यहाँ बहुत से मार्ग हैं। एक अवन्ती की ओर जाता है, दूसरा ऋक्षवान् पर्वत होकर दक्षिण देश को। सामने विन्ध्याचल पर्वत है। यह पयोष्णी नदी समुद्र में मिलती है। ये महरषियों के आश्रम हैं। सामने का रास्ता विदर्भ देश को जाता है। यह कोसल का मार्ग है।' इस प्रकार राजा नल दुःख और शोक से भरकर बड़ी सावधानी के साथ दमयन्ती को भिन्न-भिन्न मार्ग और आश्रम बतलाने लगे। दमयन्ती की आँखें आँसू से भर गयीं। दमयन्ती गद्गद् स्वर से कहने लगी---'स्वामी ! आप क्या सोच रहे हैं। मेरा शरीर फट रहा है। कलेजे में काँटे गड़ रहे हैं। आपका राज्य गया, धन गया, शरीर पर वस्त्र नहीं रहा, थके-माँदे तथा भूखे-प्यासे हैं; क्या मैं आपको इस निर्जन वन में छोड़कर अकेली कहीं जा सकती हूँ ? मैं आपके साथ रहकर आपके दुःख दूर करूँगी। दुःख के अवसरों पर पत्नी पुरुष के लिये औषध है। वह धैर्य देकर पति के दुःख को कम करती है। यह बात वैद्य भी स्वीकारते हैं।' नल ने कहा---'प्रिये ! तुम्हारा कहना ठीक है। पत्नी मित्र है, पत्नी औषध है। परन्तु मैं तो तुम्हारा त्याग नहीं करना चाहता। तुम ऐसा संदेह क्यों कर रही हो ?' दमयन्ती बोली---'आप मुझे छोड़ना नहीं चाहते, परंतु विदर्भ देश का मार्ग क्यों बतला रहे है ? मुझे निश्चय है कि आप मेरा त्याग नहीं कर सकते। फिर भी इस समय आपका मन उलटा हो गया है, इसलिये ऐसी शंका करती हूँ। आपके मार्ग बताने से मेरा मन दुखता है। यदि आप मुझे मेरे पिता या किसी संबंधी के घर भेजना चाहते हो तो ठीक है, हम दोनों साथ-साथ चलें। मेरे पिता आपका सत्कार करेंगे। आप वहीं सुख से रहियेगा।' नल ने कहा---'प्रिये ! तुम्हारे पिता राजा हैं और मैं भी कभी राजा था। इस समय मैं संकट में पड़कर उनके पास नहीं जाऊँगा।' राजा नल दमयन्ती को समझाने लगे। तदनन्तर दोनो एक ही वस्त्र से शरीर ढक वन में इधर-उधर घूमते रहे। भूख-प्यास से व्याकुल होकर दोनो एक धर्मशाला में आए और ठहर गये। 




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