Monday 17 August 2015

सभापर्व---जरासन्ध के विषय में भगवान् श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिर की बातचीत

 जरासन्ध के विषय में भगवान् श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिर की बातचीत 
     भगवान् श्रीकृष्ण ने धर्मराज से कहा, महाराज आपमें सभी गुण हैं। इसलिये आप राजसूय यज्ञ के वास्तव में अधिकारी हैं। फिर भी आपके पूछने पर मैं कुछ कहता हूँ। इस समय राजा जरासंध ने अपने बाहुबल से सब राजाओं को हराकर अपनी राजधानी में कैद कर रखा है,वह उनसे सेवा लेता है। इस समय वही है सबसे प्रबल राजा।प्रतापी शिशुपाल उसी का आश्रय लेकर सेनापति का काम कर रहा है। करूषदेश का अधिपति, जो महाबली और मायायुद्ध में कुशल है, शिष्य के समान जरासन्ध की सेवा करता है। पश्चिम के अतुल पराक्रमी मुर और नरकदेश के शासक यवनाधिपति ने भी उसी की अधीना स्वीकार कर ली है। आपके पिता के मित्र भगदत्त भी उससे बातचीत करने में झुके रहते हैं और उसके इशारे से अपने राज्य का शासन करते हैं। वंग, पुण्ड्र और किरात-देश का स्वामी मिथ्यावासुदेव घमण्डवश मेरे चिह्नों को धारण करता है, अपने को पुरुषोत्तम बतलाता है, मेरी उपेक्षा से ही जीवित है, फिर भी उसने इस समय जरासन्ध का आश्रय ले रखा है। शत्रु की बात तो जाने दीजिये, मेरे सगे ससुर भीष्मक,जो पृथ्वी के चतुर्थांस के स्वामी और इन्द्र के सखा हैं, भोजराज और देवराज जिनसे मित्रता रखते हैं, जिन्होंने अपनी विद्याबल से पाण्ड्र, क्रथ और कौशिक देशों पर विजय प्राप्त की थी, जिनका भाई परशुराम के समान बलवान है, वे भी आजकल जरासन्ध के वश में हैं। हम उनसे प्रेम रखते हैं, उनकी भलाई करते हैं, फिर भी वे हमसे नहीं हमारे शत्रु से मेल रखते हैं। वे जरासन्ध की कीर्ति से चकित होकर अपने कुलाभिमान और बलाभिमान को तिलांजली देकर जरासंध की शरण में रह रहे हैं। धर्मराज उत्तर दिशा के अधिपति अठारह भोज परिवार जरासंध के भय से भयभीत होकर पश्चिम की ओर भाग गये है। शूरसेन, भद्रकार, शाल्व, योध, पटच्चर, सुस्थल, सुकुट्ट, कुलिन्द, कुन्ति, शाल्यवान आदि राजा, दक्षिण पांचाल एवं पूर्वकोशल एवं मत्स्य, संन्यस्तपाद आदि उत्तर देशों के राजा जरासन्ध के भय से अपना-अपना राज्य छोड़कर पश्चिम और दक्षिण की ओर भाग गये हैं। दानव-राज कंस जाति भाइयों को बहुत सताकर राजा बन बैठा था। जब उसकी अनीति बहुत बढ गयी, तब मैने सबके कल्याण के लिये बलराम को साथ लेकर उसका वध किया। ऐसा करने से कंस का भय तो जाता रहा, परंतु जरासंध और भी प्रबल हो उठा। उसकी सेना उस समय इतनी प्रबल हो गयी थी कि यदि हमलोग अस्त्र-शस्त्रों के द्वारा तीन-सौ वर्षों तक लगातार उसका संहार करते रहते तब भी उसका सर्वथा सफाया नहीं कर पाते। वह अपनी शक्ति से राजाओं को जीतकर अपने पहाड़ी किले में बंद कर देता है। भगवान् शंकर की उपासना से ही उसे ऐसी शक्ति प्राप्त हुई है। अब उसकी प्रतिज्ञा पूरी हो चुकी है। कैदी राजाओं के साथ वह यज्ञ सम्पन्न कराना चाहता है। इसलिये और राजाओं पर विजय प्राप्त करने की चिन्ता छोड़कर सबसे पहले उन कैदी राजाओं को छुड़ाना चाहिये। धर्मराज यदि आप राजसूय यज्ञ करना चाहते हैं तो सर्वप्रथम कर्तव्य है कैदी राजाओं की मुक्ति और जरासंध का वध। यह काम किे बिना राजसूय यज्ञ नहीं हो सकेगा। आप स्वयं बुद्धिमान् हैं। यज्ञ के संबंध में मेरी तो यही सम्मति है। आप सब बातों को सोचकर स्वयं निश्चय कीजिये और तब अपनी सम्मति बताइये। धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा, परमज्ञासम्पन्न श्रीकृष्ण, आपने मुझे जैसी सम्मति दी है, वैसी और कोई नहीं दे सकता। भला, आपके समान संशय मिटानेवाला पृथ्वीपर और कौन है। आजकल तो घर-घर में राजा हैं, सभी अपना-अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं, परन्तु वे सम्राट नहीं हैं। वह पद बड़ी कठिनाई से मिलता है। भगवन् जरासंध से तो हमें भी शंका ही है। सचमुच वह बड़ा दुष्ट है। हम तो आपके बल से अपने को बलवान मानते हैं। जब आप ही उससे शंकित हैं, तब मैं उसके सामने अपने को बलवान नहीं मान सकता। मैं ऐसा सोचता हूँ कि आप बलराम भीम या अर्जुन--इनमें से कोई उसे मार सकता है या नहीं। मैं इस बात पर बहुत विचार करता हूँ। मैं तो आपकी सम्मति से ही सब काम करता हूँ। कृपया बतलाइये क्या किया जाय। धर्मराज की बात सुनकर श्रेष्ठ वक्ता भीमसेन ने कहा--जो राजा उद्योग नहीं करता, दुर्बल होने पर भी बलवान से भिड़ जाता है, युक्ति से काम नहीं लेता, वह हार जाता है। सावधान, उद्योगी और नीति निपुण राजा कम शक्ति होने पर भी बलवान शत्रु को जीत लेता है। भाईजी, श्रीकृष्ण में नीति है, मुझमें बल है, अर्जुन में विजय पाने की योग्यता है, इसलिये हम तीनों मिलकर जरासन्ध के वध का काम पूरा कर लेंगे। भीम की बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा, राजन्, शत्रु की उपेक्षा नहीं की जा सकती। आप में शत्रु-विजय, प्रजा-पालन, तपस्या-शक्ति और समृद्धि--सभी गुण हैं। जरासन्ध में केवल एक गुण है--बल। जो लोग उसकी सेवा में लगे हुए हैं, वे भी उससे संतुष्ट नहीं हैं, क्योंकि वह उनके साथ बार-बार अन्याय करता है। उसने योग्य पुरुषों को अयोग्य काम में लगाकर अपना शत्रु बना लिया। हमलोग उसे युद्ध के लिये बाध्य करके जीत सकते है। छियासी राजाओं को वह कैद कर चुका है, चौदह और बाकी हैं। फिर वह सबका वध करना चाहता है। जो उसके इस क्रूर कर्म को रोक सकेगा, वह बड़ा यशस्वी होगा और जो जरासन्ध पर विजय प्राप्त करेगा, निश्चय ही वह सम्राट होगा। इस समय तक अर्जुन गाण्डीव धनुष, अक्षय तरकस, दिव्य रथ, ध्वजा और सभा प्राप्त कर चुके थे। इससे उनका उत्साह बढती पर था। उन्होंने धर्मराज के पास आकर कहा, भाईजी, धनुष, शस्त्र, बाण, पराक्रम, सहायक, भूमि, यश और सेना की प्राप्ति बड़ी कठिनाई से होती है। सो सब हमने मनमाना प्राप्त कर लिया है। लोग कुलीनता की प्रशंसा करते हैं। परन्तु मुझे तो क्षत्रियों का बल और वीरता ही प्रशंसनीय जान पड़ती है। यदि हमलोग राजसूय यज्ञ को निमित्त बनाकर जरासंध का वध और कैदी राजाओं की रक्षा कर सकें तो इससे बढकर और क्या होगा। भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा, धर्मराज, भरतवंश-शिरोमणि कुन्तीनन्दन अर्जुन में जैसी बुद्धि होनी चाहिये, वह प्रत्यक्ष दीख रही है। हमारी मृत्यु चाहे दिन में हो या रात में, हम उसकी परवा नहीं करते। अबतक अपने को युद्ध से बचाकर कोई अमर भी नहीं हुआ है। इसलिये वीर पुरुष का कर्तव्य है कि वह अपने संतोष के लिये विधि और नीति के अनुसार शत्रु पर चढाई करके विजय की भरपूर चेष्टा कर ले। सफलता में लोक, विफलता में परलोक--दोनो ही अवस्थाओं में अपना काम तो बनता ही है।     

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