Monday 17 August 2015

सभापर्व---दिव्य सभा का निर्माण एवं देवर्षि नारद का प्रश्न के रूप में प्रवचन

 दिव्य सभा का निर्माण एवं देवर्षि नारद का प्रश्न के रूप में प्रवचन
     भगवान् श्रीकृष्ण के प्रस्थान कर जाने पर मायासुर ने अर्जुन से कहा, वीर, मैं इस समय आपकी आज्ञा लेकर कैलाश के उत्तर मैनाक पर्वत पर जाना चाहता हूँ। वहाँ विन्दुसर के समीप दैत्यों ने एक यज्ञ किया था। वहाँ मैने एक मणिमय पात्र बनाया था और वह दैत्यराज वृषपर्वा के सभा में रखा गया था। यदि वह अबतक वहाँ होगा तो उसे लेकर मैं शीघ्र ही यहाँ लौट आऊँगा।वहाँ एक बड़ी विचित्र रत्नमण्डित, सुखद एवं मजबूत गदा भी है। उसपर सोने के तारे जड़े हुए हैं। वृषपर्वा ने शत्रुओं का संहार करके वह गदओं की चोट सहनेवाली भारी गदा वहीं रख छोड़ी है। वह लाखों गदाओं की तुलना में अद्वितीय है। वह आपके गाण्डीव धनुष के समान ही भीमसेन के योग्य होगी। देवदत्त नाम का शंख भी वहीं है, जिसे लाकर मैं आपको भेंट करूँगा। यह कहकर मायासुर ने ईशान कोण की यात्रा की और वह पूर्वोक्त विन्दुसर पर पहुँच गया। राजा भगीरथ ने गंगाजी के अवतरण के लिये वहीं तपस्या की थी। प्रजापति ने उसी स्थान पर सौ यज्ञ किये थे। देवराज इन्द्र ने वहीं सिद्धि प्राप्त की थी। वहीं सहस्त्रों प्राणी भगवान् शंकर की उपासना करते हैं, वहीं नर, नारायण, ब्रह्मा, यम, शिव सहस्त्र चतुर्युगी बीत जाने पर यज्ञ करते हैं। स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने भी वर्षों तक यज्ञ करके वहीं सुवर्णमंडित यज्ञस्तंभों और वेदियों का दान किया था। मायासुर ने वहाँ जाकर सभा बनाने की सारी सामग्री,पूर्वो् गदा,देवहत्त शंख और अपरिमित धन अपने अधिकार में कर लिया तथा वहाँ से लौटकर युधिष्ठिर के लिये विश्वविश्रुत मणिमय दिव्य सभा का निर्माण किया। वह श्रेष्ठ गदा भीमसेन को और देवदत्त शंख अर्जुन को उपहार दिया। उस शंख की गंभीर ध्वनि से तीनों लोक काँप उठते थे। वह सभा दस हजार हाथ लम्बी-चौड़ी थी।उसमें सुनहले वृक्ष लहलहा रहे थे। वह ऐसी जान पड़ती, मानो सूर्य, अग्नि अथवा चन्द्रमा की सभा हो। उसकी अलौकिक चमक-दमक के सामने सूर्य की प्रभा भी फीकी पड़ जाती थी। मायासुर की आज्ञा से आठ हजार किंकर राक्षस उस दिव्य सभा की रखवाली और देखभाल करते थे। वे आवश्यकता होने पर उसे दूसरे स्थान पर भी ले जा सकते थे। उस सभा भवन में एक दिव्य सरोवर भी था। वह अनेक प्रकार के माणिक्य की सीढियों से शोभायमान, कमल-कुसुमों से उल्लसित और धीमी-धीमी वायु के स्पर्श से तरंगायमान था। कितने ही बड़े-बड़े नरपति भी उसके जल को स्थल समझकर धोखा खा जाते थे। उसके चारों ओर गगनचुम्बी वृक्षों के हरे-हरे पत्तों की छाया पड़ती रहती थी। सभा के चारों ओर दिव्य सौरभ से भरे उद्यान थे। छोटी-छोटी बावलियाँ थीं, जिनमें हंस, सारस, चकवा-चकवी खेलते रहते थे। जल और स्थल की कमल पंक्तियाँ अपन सुगंध से लोगों को मुग्ध करती रहती थी। मायासुर ने केवल चौदह महीने में इस दिव्य सभा का निर्माण करके धर्मराज युधिष्ठिर को निवेदन किया। धर्मराज युधिष्ठिर ने शुभ मुहूरत आने पर दस हजार ब्राह्मणों को फल, कन्द-मूल, खीर आदि तरह-तरह के पदार्थों का भोजन कराया। उन्हें वस्त्र, फूलमाला, छोटी-बड़ी सामग्री आदि से तृप्त करके प्रत्येक को एक-एक हजार गौओं का दान दिया। इसके बाद जब वे सभा में प्रवेश करने लगे, तब ब्राह्मण लोग पुण्याहवाचन करने लगे। गाजे-बाजे और फल-फूलों से देवताओं की पूजा की गयी। नट, वैतालिक और वन्दीजनों ने धर्मराज को अपनी-अपनी कला दिखलायी। इसके बाद वे अपने भाइयों के साथ देवराज इन्द्र के समान सभा में विराजमान हुए। उनके साथ सभा-मंडप में अनेकों ऋषि-मुनि तथा राजा-महाराजा भी बैठे हुये थे। राजाओं में कक्षसेन, क्षेमक, कमठ, कंपन, मद्रकाधिपति जटासुर, पुलिन्द, पुण्ड्रक, अन्धक पाण्ड्य एवं उड़ीसा आदि देशों के अधिपति महाराज युधिष्ठिर की सेवा में उपस्थित थे। अर्जुन से अस्त्रविद्या सीखनेवाले राजकुमार और यदुवंशी प्रद्युम्न, शाल्व, सात्यकि आदि भी वहीं बैठे हुए थे। तुम्बुरु, चित्रसेन आदि गन्धर्व एवं अप्सराएँ भी धर्मराज को प्रसन्न करने के लिये वहाँ आकर गाया बजाया करते थे। उस समय युधिष्ठिर की ऐसी शोभा होती,मानो महर्षियों और राजर्षियों से घिरे स्वयं ब्रह्माजी ही अपनी सभा में विराजमान हों। एक दिन जब सभी सभा में विराजमान थे, नारद मुनि पधारे।सभी धर्मों के मर्मज्ञ राजा युधिष्ठिर देवर्षि नारद को आया देखकर भाइयों के साथ झटपट उठकर खड़े हो गये,विनय से झुककर प्रेम से नमस्कार किया और विधिपूर्वक योग्य आसन पर बैठाया। मधुपरक आदि के द्वारा उनकी सविधि पूजा सम्पन्न हुई। देवर्षि नारद पाण्डवों के सत्कार से बहुत प्रसन्न हुए और कुशल प्रश्न के बहाने उन्हें धर्म, अर्थ तथा काम का उपदेश देने लगे। उन्होंने कहा--राजा में छः गुण होने चाहिये, व्याख्यानशक्ति, वीरता, मेधावीपन, परिणामदर्षिता, नीतिनिपुणता और कर्तव्याकर्तव्यविवेक। सात उपाय हैं--मंत्र, औषधि, इन्द्रजाल, साम, दान, दण्ड और भेद। पूर्वोक्त गुणों द्वारा इन उपायों का निरीक्षण करना चाहिये और अपने चौदह दोषों पर दृष्टि रखनी चाहिये। नास्तिकता, झूठ, क्रोध, प्रमाद, दीर्घसूत्रता, ज्ञानियों का संग न करना, आलस्य, इन्द्रियपरवशता, केवल अर्थ का ही चिन्तन, मूर्खों के साथ सलाह, निश्चित काम में टाल-मटोल, सलाह को गुप्त न रखना, समय पर उत्सव आदि न करना और एक साथ ही कई शत्रुओं पर चढाई कर देना। इन दोषों से बचकर आप अपनी शक्ति और शत्रु-शक्ति का ठीक-ठीक ज्ञान रखते हैं न। अपनी शक्ति और शत्रु -शक्ति के अनुसार सन्धि या विग्रह करके आप अपनी खेती-बारी, व्यापार, किला, पुल, हाथी, हीरा-सोना आदि की खानें, कर की वसूली, उजाड़ प्रान्तों में लोगों को बसाना आदि कार्यों की देख-रेख ठीक-ठीक रखते हैं न। यधिष्ठिर, आपके राज्य के सातों अंग--स्वामी, मंत्री, मित्र, खजाना, राष्ट्र, दुर्ग और पुरवासी शत्रुओं से मिले तो नहीं हैं। धनी लोग बुरे व्यसनों से बचे तो हैं। आपके प्रति उनकी प्रेमदृष्टि तो है न। कहीं आपके शत्रु के गुप्तचर  अपना विश्वास जमाकर आपसे या मंत्रियों से आपका सलाह मशविरा जान तो नहीं लेते। युधिष्ठिर, विजय का मूल है अपने विचारों और संकल्पों को सुरक्षित रखते हैं न। इसी प्रकार देश की रक्षा होती है। धनी लोग बुरे व्यसनों से बचे तो हैं। आपके प्रति उनकी प्रेमदृष्टि तो है न। कहीं आपके शत्रु के गुप्तचर अपना विश्वास जमाकर आपसे या मंत्रियों से आपका सलाह मशविरा जान तो नहीं लेते। युधिष्ठिर, विजय का मूल है अपने विचारों और संकल्पों को सुरक्षित रखते हैं न। इसी प्रकार देश की रक्षा होती है। शत्रु कहीं आपके बातों का पता तो नहीं लगा लेते। आप असमय ही निद्रा के वश तो नहीं हो जाते। ठीक समय पर जाग तो जाते हैं। रात्रि के पिछले भाग में जगकर आप अपने अर्थ के संबंध में विचार तो करते हैं न। पहले अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके तब इन्द्रियों के अधीन शत्रुओं पर विजय प्राप्त की जाती है। शत्रुओं को वश में करने के लिये साम, दाम, दण्ड आदि सभी उपायों का उपयोग करना चाहिये। अपने राज्य के रक्षा की व्यवस्था करके शत्रु पर चढाई करनी चाहिये और उसे जीतकर फिर उसी राज्य पर स्थापित कर देना चाहिये। पहले जो चौदह दोषों का वर्णन किया गया है उससे आपको हमेशा बचना चाहिये। वेद की सफलता यज्ञ से, धन की सफलता दान और भोग से, पत्नी की सफलता आनन्द और सन्तान से एवं शास्त्र की सफलता शील तथा सदाचार से होती है। छः दोष अनर्थकारी हैं--निद्रा, आलस्य, भय, क्रोध, मृदुता और दीर्घसूत्रता। देवर्षि नारद की वाणी सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने उनके चरणों का स्पर्श किया और बड़ी प्रसन्नता से कहा, महाराज मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा। आज मेरी बुद्धि बहुत ही बढ गयी है।यह कहकर उन्होंने उसी समय वैसा करने की चेष्टा प्रारंभ कर दी। 

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