Saturday 22 August 2015

वनपर्व---युधिष्ठिर और भीमसेन की कर्तव्य के विषय में बातचीत

युधिष्ठिर और भीमसेन की कर्तव्य के विषय में बातचीत
द्रौपदी की बातें सुनकर भीमसेन के मन में क्रोध जग गया। वे लम्बी साँस लेते हुए युधिष्ठिर के पास आकर कहने लगे---'भाईजी ! आप सत्पुरुषोचित धर्मानुकूल राजमार्ग से चलिये। यदि हमलोग धर्म, अर्थ और काम से वंचित होकर इस तपोवन में पड़े रहेंगे तो हमें क्या मिलेगा। दुर्योधन ने हमारा राज्य--धर्म, सरलता अथवा बल पौरुष से नहीं लिया है। उसने कपट-ध्यूत के सहारे हमलोगों को धोखा दिया है। हम कौरवों के अपराध को जितना-जितना क्षमा करते जाते हैं, उतना-उतना वे हमें असमर्थ मानकर दुःख देते जा रहे हैं।इससे तो यही अच्छा कि हमलोग टाल-मटोल न करके लड़ाई छेड़ दें। निष्कपट भाव से युद्ध करते हुए यदि हम मर भी जायँ तो अच्छा है, क्योंकि उससे हमें अमरलोक की प्राप्ति होगी। और यदि हमकौरवों को तहस-नहस करके पृथ्वी का राजा हो जायँ तो भी हमारा कल्याण ही है। हम अपने धर्म में स्थित हैं, हम चाहते हैं कि हमारा यश हो और कौरवों से वैर का बदला भी लें। तब तो यह आवश्यक हो जाता है कि हम युद्ध घोषणा कर दें। मनुष्य को केवल धर्म, केवल अर्थ अथवा केवल काम के सेवन में ही नहीं लग जाना चाहिये।इन तीनों का इस प्रकार सेवन करना चाहिेये, जिससे इनमें विरोध न हो। इस विषय में शास्त्रों ने स्पष्टरूप से कहा है कि दिन के पहले भाग में धर्माचरण, दूसरे भाग में धनोपार्जन और सायंकाल होने पर कामसेवन करना चाहिये। यह निश्चय है कि धर्म जगत् का आधार है और धर्म से श्रेष्ठ कोई वस्तु नहीं है। फिर भी धर्म का सेवन तो धन के द्वारा ही होता है। आपको पराक्रम करके ही धन पाने का उद्योग करना चाहिये। शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके प्रजापालन करने से आपको जो फल मिलेगा, वह निंदित नहीं होगा। आप शिथिलता छोड़िये। दृढ क्षत्रिय के समान वीरता स्वीकार करके अपने धर्म का भार वहन कीजिये। धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा---भैया भीमसेन ! मनुष्य पुरुषार्थ, अभिमान और वीरता से युक्त होने पर भी अपने मन को वश में नहीं कर सकता। मैं तुम्हारी बात का अनादर नहीं करता। मैं ऐसा समझता हूँ कि मेरे भाग्य में ऐसा ही होना बदा था। जिस समय हम जूआ खेलने के लिये ध्यूत-सभा में आये, उस समय दुर्योधन ने भरतवंशी राजाओं के सामने यह दावँ लगाया। उसने कहा कि 'युधिष्ठिर' ! यदि तुम जूए में हार जाओगे तो तुम्हे भाइयों सहित बारह वर्ष तक वन में रहना होगा और तेरहवें वर्ष गुप्तवास करना होगा। गुप्तवास के समय यदि कौरवों के दूत तुम्हें ढूँढ निकालेंगे तो फिर बारह वर्ष के लिये वन में जाना पड़ेगा और तेरहवें वर्ष में वही बात होगी। यदि मैं हार गया तो हम सभी भाई अपना ऐश्वर्य छोड़कर उसी नियम के अनुसार वनवास तथा गुप्तवास करेंगे।' मैने दुर्योधन की बात मान ली थी और वैसी ही प्रतिज्ञा की थी। यह बात तुम्हे और अर्जुन को भी मालूम है। इसके बाद वह अधर्ममय जूआ हुआ, हमलोग हार गये और नियम के अनुसार वनवास कर रहे हैं। सत्पुरुषों के सामने एक बार प्रतिज्ञा करके फिर राज्य के लिये कौन मनुष्य उसे तोड़ेगा। एक कुलीन पुरुष यदि राज्य के लिये प्रतिज्ञा भंग करके उसे पा भी ले तो वह मरण से भी अधिक दुःखदायक होगा। मैने कुरुवंशी वीरों के बीच में मैने प्रतिज्ञापूर्वक जो बात कही है, उससे मैं टल नहीं सकता। जैसे किसान बीज बोकर पकने तक उसके फल की आशा लगाये बैठा रहता है, वैसे तुम्हें भी अपनी उन्नति के समय की प्रतीक्षा करनी चाहिये।समय आये बिना कुछ नहीं होगा। भीमसेन ! तुम मेरी सत्य प्रतिज्ञा सुन लो, मैं देवत्व की प्राप्ति तथा इस लोक में जीवित रहने की अपेक्षा भी धर्म से अधिक प्रेम करता हूँ। मेरा ऐसा दृढ निश्चय है कि राज्य, पुत्र, कीर्ति और धन---ये सब मिलकर सत्यधर्म के सोलहवें हिस्से की भी बराबरी नहीं कर सकते। भीमसेन ने कहा---भाईजी ! मनुष्य की आयु पल-पल छीजती जा रही है। वैसी स्थिति में मनुष्य को क्या समय की बाट जोहते हुए बैठ रहना चाहिये ? जिसे अपनी लम्बी उम्र का पता हो,अपने अन्तसमय का ज्ञान हो, जो भूत-भविष्य आदि सब वस्तुओं को प्रत्यक्ष देख सकता हो, केवल उसी को समय की प्रतीक्षा करनी चाहिये। मृत्यु सिर पर सवार है, इसलिये उसके प्रकट होने के पहले ही हमें राज्य प्राप्त कर लेना चाहिये। आप बुद्धिमान, पराक्रमी, शास्त्रज्ञ और सम्मानित वंश के हैं। आप धृतराष्ट्र के दुष्ट पुत्रों पर क्षमा क्यों करते हैं ? इस तरह चुपचाप बैठकर विलंब करने का क्या कारण है ? आप हमलोगों को वन में गुप्त रखना चाहते हैं; यह तो ऐसा ही है, जैसे कोई घास के पूले से हिमालय को ढकना चाहे। आप एक जगत्प्रसिद्ध व्यक्ति हैं।जैसे सूर्य आकाश में छिपकर नहीं विचर सकता, वैसे ही आप कहीं छिप नहीं सकते। अर्जुन, नकुल अथवा सहदेव ही एक साथ रहकर कैसे छिप सकेंगे ? भला, यह राजपुत्री द्रौपदी ही कैसे छिपकर रहेगी। मुझे तो बच्चे और बूढे सभी पहचानते हैं, मैं एक वर्ष तक गुप्त कैसे रह सकूँगा ? हमलोग अबतक वन में तेरह महीने बिता चुके हैं। वेद की आज्ञानुसार आप इन्हे ही तेरह वर्ष गिन लीजिये। महीने वर्ष के प्रतिनिधि हैं।इसलिये तेरह महीने में ही तेरह वर्ष की प्रतीज्ञा पूरी कर सकते हैं। भाईजी ! आप शत्रुओं के विनाश के लिये एक निश्चय कर लीजिये। क्षत्रियों के लिये युद्ध के अतिरिक्त कोई धर्म नहीं है। इसलिये आप युद्ध का निश्चय कीजिये। कुछ समय तक सोच-विचारकर युधिष्ठिर ने कहा---भीमसेन ! तुम्हारी दृष्टि केवल अर्थ पर है। इसलिये तुम्हारा कहना भी ठीक ही है। परंतु मैं दूसरी बात कह रहा हूँ। केवल साहस से ही कोई काम नहीं करना चाहिये। वैसे काम से करनेवालों को दुःख भोगना पड़ सकता है। कोई भी काम करना हो तो भली-भाँति विचार करके युक्ति और उपायों के द्वारा करना चाहिये। फिर तो दैव भी अनुकूल हो जाता है।प्रयोजन सिद्धि में कोई संदेह नहीं रहता। बल एवं घमंड से उत्साहित होकर बालसुलभ चपलता के कारण तुम जिस काम को प्रारंभ करने के लिये कह रहे हो,उसके संबंध में मुझे बहुत कुछ कहना है। भूरिश्रवा, शल, जरासंध, भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्त्थामा तथा दुर्योधन, दुःशासन आदि धृतराष्ट्र के प्रचण्ड पुत्र शस्त्र-विद्या में बड़े कुशल और हमपर आक्रमण करने के लिये तैयार हैं।पहले हमलोगों ने जिन राजाओं को दबा दिया था, वे अब उनसे मिल गये हैं। दुर्योधन ने कौरव-सेना के सब वीरों, सेनापतियों और मंत्रियों को तथा उनके परिवारवालों को भी उत्तम- उत्तम वस्तुएँ देकर अपने वश में कर लिया है । वे दम रहते दुर्योधन की ओर से लड़ेंगे, ऐसा मेरा निश्चित विचार है। यद्यपि भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य उनपर और हमपर समान दृष्टि रखते हैं, यद्यपि उन्होंने राज्य का अन्न खाया है, इसलिये उसका बदला चुकाने के लिये दुर्योधन की ओर से प्राण-पन से लड़ेंगे। वे सब अस्त्र-शस्त्र के मर्मज्ञ और ईमानदार हैं। मेरा विश्वास है कि समस्त देवताओं के साथ इन्द्र भी उन्हें नहीं जीत सकते। कर्ण की वीरता, उत्साह और प्रवीनता अपूर्व है। उनका शरीर अभेद्य कवच से ढका रहता है । उनको जीते बिन तुम दुर्योधन को नहीं मार सकते। 



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