Monday 24 August 2015

वनपर्व---नल की खोज, ऋतुपर्ण की विदर्भ-यात्रा,कलियुग का उतरना

नल की खोज, ऋतुपर्ण की विदर्भ-यात्रा, कलियुग का उतरना

अपने पिता के घर एक दिन विश्राम करके दमयन्ती ने अपनी माता से कहा कि---'माताजी ! मैं आपसे सत्य कहती हूँ। यदि आप मुझे जीवित रखना चाहती हैं तो मेरे पतिदेव को ढ़ूँढ़वाने का उद्योग कीजिये।' रानी ने बहुत दुःखित होकर अपने पति राजा भीमक से कहा कि  'स्वामी ! दमयन्ती अपने पति के लिये बहुत व्याकुल है। उसने संकोच छोड़कर मुझसे कहा है कि उन्हें ढ़ूँढ़वाने का उद्योग करना चाहिये।' राजा ने अपने आश्रित ब्राह्मणों को बुलवाया और नल को ढ़ूँढ़ने के लिये उन्हें नियुक्त कर दिया। जब ब्राह्मण नल का पता लगाने जा रहे थे तब दमयन्ती ने ब्राह्मणों से कहा कि---"आपलोग जिस राज्य में जायँ, वहाँ मनुष्य की भीड़ में यह बात कहें---'मेरे प्यारे छलिया, तुम मेरी साड़ी में से आधी फाड़कर तथा मुझे वन में सोती छोड़कर कहाँ चले गये ? तुम्हारी पत्नी अब भी उसी अवस्था में आधी साड़ी पहने तुम्हारे आने का बाट जोह रही है और तुम्हारे वियोग के दुःख से दुःखी हो रही है।' उनके सामने मेरी दशा का वर्णन कीजियेगा और इस बात का ध्यान रखियेगा कि उन्हें यह मालूम न हो कि यह बात आपलोग मेरी आज्ञा से कह रहे हैं।" ब्राह्मणगण दमयन्ती के निर्देशानुसार राजा नल को ढ़ूँढ़ने के लिये निकल पड़े। बहुत दिनों तक ढ़ूँढ़ने खोजने के बाद पर्णाद नामक ब्राह्मण ने महल में आकर दमयन्ती से कहा ---'राजकुमारी ! मैं आपके निर्देशानुसार नल का पता लगाता हुआ अयोध्या जा पहुँचा। वहाँ मैने राजा ऋतुपर्ण के पास जाकर भरी सभा में तुम्हारी बात दोहरायी। परंतु वहाँ किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया।जब मैं चलने लगा, तब उसके बाहुक नामक सारथी ने मुझे एकांत में बुलाकर कुछ कहा। देवी ! वह सारथी राजा ऋतुपर्ण के घोड़ों को शिक्षा देता है, स्वादिष्ट भोजन बनाता है; परंतु उसके हाथ छोटे और शरीर कुरूप है। उसने लम्बी साँस लेकर रोते हुए कहा कि 'कुलीन स्त्रियाँ घोर कष्ट पाने पर भी अपने शील की रक्षा करती हैं और अपने सतीत्व के बल पर स्वर्ग जीत लेती हैं। कभी उनका पति उन्हें त्याग भी दे तो वे क्रोध नहीं करतीं, अपने सदाचारों की रक्षा करती हैं। त्यागनेवाला पुरुष विपत्ति में पड़ने के कारण दुःखी एवं अचेत हो रहा था। इसलिये उसपर क्रोध करना उचित नहीं है। माना कि पति ने अपनी पत्नी का योग्य सत्कार नहीं किया, परंतु उस समय राज्यलक्ष्मी से च्युत, दुःखी और दुर्दशाग्रस्त था। ऐसी अवस्था में उसपर क्रोध करना उचित नहीं है। जब वह अपनी प्राणरक्षा के लिये जीविका चाह रहा था, तब पक्षी उसके वस्त्र लेकर उड़ गये।उसके हृदय की पीड़ा असह्य थी।' राजकुमारी ! बाहुक की यह बात सुनकर मैं तुम्हें सुनाने के लिये आया हूँ। तुम जैसा उचित समझो, करो। चाहो तो महाराज से भी कह दो।"ब्राह्मण की बात सुनकर दमयन्तीके आँखों में आँसू भर आये। उसने अपनी माँ से एकान्त में कहा---'माताजी ! आप यह बात पिताजी से न कहें। मैं सुदेव ब्राह्मण को इस काम में नियुक्त करती हूँ। दमयन्ती ने सुदेव को बुलवाकर कहा---'आप शीघ्र-से-शीघ्र अयोध्या नगरी में जाकर राजा ऋतुपर्ण से यह बात कहिये कि भीमक-पुत्री दमयन्ती फिर से स्वयंवर में स्वेच्छानुसार पति वरण करना चाहती है। बड़े-बड़े राजा और राजकुमार जा रहे हैं। स्वयंवर की तिथि कल ही है। इसलिये यदि आप पहुँच सके तो वहाँ जाइये। नल के जीने अथवा मरने का पता नहीं है, इसलिये वह कल सूर्योदय के समय दूसरा पति वरण करेगी।' दमयन्ती की बात सुनकर सुदेव अयोध्या गये और उन्होंने राजा ऋतुपर्ण से सब बातें कह दीं। राजा ऋतुपर्ण ने सुदेव की बात सुनकर बाहुकको बुलाया और मधुर वाणी से समझाकर कहा कि  'बाहुक ! कल दमयन्ती का स्वयंवर है। मैं एक ही दिन में विदर्भ देश में पहुँचना चाहता हूँ। परंतु यदि तुम इतना जल्दी वहाँ पहुँच जाना सम्भव समझो, तभी मैं वहाँ जाऊँगा।' ऋतुपर्ण की बात सुनकर नल का कलेजा फटने लगा।उन्होंने अपने मन में सोचा कि 'दमयन्ती ने दुःख से अचेत होकर ही ऐसा कहा होगा। सम्भव है, वह ऐसा करना चाहती हो। परन्तु नहीं-नहीं, उसने मेरी प्राप्ति के लिये ही यह युक्ति की होगी। वह पतिव्रता, तपस्विनी और दीन है। मैने दुर्बुद्धि-वश उसे त्याग कर बड़ी क्रूरता की। अपराधमेरा ही है। वह कभी ऐसा नहीं कर सकती।  और असत्य जानने के लिये वहाँ जाना होगा। बाहुक ने हाथ जोड़कर कहा कि 'मैं आसत्यपके कथनानुसार काम करने की प्रतीज्ञा करता हूँ।' बाहुक अश्वशाला में जाकर श्रेष्ठ घोड़ों की परीक्षा करने लगे। नल ने चार शीघ्रगामी घोड़े रथ में जोत लिये। राजा ऋतुपर्ण रथ पर सवार हो गये। जैसे आकाशचारी पक्षी आकाश में उड़ते हैं, वैसे ही बाहुक का रथ थोड़े ही समय में नदी, पर्वत और वनों को लाँघने लगा।एक स्थान पर राजा ऋतुपर्ण का दुपट्टा नीचे गिर गया।उन्होंने बाहुक से कहा---रथ रोको, मैं वाष्णेर्य से उसे उठवा मँगाऊँ।' नल ने कहा---'आपका वस्त्र गिरा तो अभी है, परन्तु हम वहाँ से एक योजन आगे निकल आये हैं। अब वह नहीं उठाया जा सकता।' जिस समय यह बात हो रही थी, उस समय रथ एक वन से चल रहा था। ऋतुपर्ण ने कहा---'बाहुक ! तुम मेरी गणित-विद्या की चतुराई देखो। सामने के वृक्ष में जितने पत्ते और फल दीख रहे हैं, उनकी अपेक्षा भूमि पर गिरे हुए फल और पत्ते एक-सौ-एक गुने अधिक हैं। इस वृक्ष की दोनो शाखाओं और टहनियों पर पाँच-करोड़ पत्ते हैं और दो हजार पंचानवे फल हैं। तुम्हारी इच्छा हो तो गिन लो।' बाहुक ने रथ खड़ा कर दिया और कहा कि 'मैं इस बहेड़े के वृक्ष को काटकर इनके फलों और पत्तों को ठीक-ठीक गिनकर निश्चय करूँगा। बाहुक ने वैसा ही किया। फल और पत्ते ठीक उतने ही हुए, जितने राजा ने बतलाये थे। नल आश्चर्यचकित हो गये। बाहुक ने कहा---'आपकी विद्या अद्भुत है। आप अपनी विद्या बतला दीजिये।' ऋतुपर्ण ने कहा---'गणित-विद्या की तरह मैं पासों की वशीकरण-विद्या मे भी ऐसा ही निपुण हूँ।' बाहुक ने कहा कि 'आप मुझे यह विद्या सिखा दें तो मैं आपको घोड़ों की भी विद्या सिखा दूँ।'ऋतुपर्ण को विदर्भ-देश पहुँचने की जल्दी थी और अश्वविद्या सीखने का लोभ भी था, इसलिये उन्होंने राजा नल को पासों की विद्या सिखा दी और कह दिया कि 'अश्वविद्या तुम मुझे पीछे सिखा देना। मैने उसे तुम्हारे पास धरोहर छोड़ दिया।'जिस समय राजा नल ने पासों की विद्या सीखी, उसी समय कलियुग कर्कोटक नाग के तीखे विष को उगलता हुआ नल के शरीर से बाहर निकल गया। कलियुग के बाहर निकलने पर नल को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने उसे शाप देना चाहा। कलियुग भय से काँपता हुआ कहने लगा---'आप क्रोध शान्त कीजिये, मैं आपको यशस्वी बनाऊँगा। आपने जिस समय दमयन्ती का त्याग किया था, उस समय उसने मुझे शाप दे दिया था। मैं बड़े दुःख के साथ कर्कोटक नाग के विष से जलता हुआ आपके शरीर में रहता था।आप मेरी प्रार्थना सुनें और मुझे शाप न दें। जो आपके पवित्र चरित्र का गान करेंगे, उन्हें मेरा भय नहीं होगा।' राजा नल ने क्रोध शान्त किया। कलियुग भयभीत होकर बहेड़े के पेड़ में घुस गया। यह संवाद कलियुग और नल के अतिरिक्त और किसी को मालूम नहीं हुआ।वह वृक्ष ठूँठ सा हो गया।इस प्रकार कलियुग ने राजा नल का पीछा छोड़ दिया, परंतु अभी उनका रूप नहीं बदला था। उन्होंने अपने रथ को जोर से हाँका और सायंकाल होते-न-होते वे विदर्भ देश में जा पहुँचे। राजा भीमक के पास समाचार भेजा गया। उन्होंने ऋतुपर्ण को अपने यहाँ बुला लिया। ऋतुपर्ण के रथ की झंकार से दिशाएँ गूँज उठीं। कुण्डिननगर में राजा नल के वे घोड़े भी रहते थे, जो उनके बच्चों को लेकर आये थे। रथ की घरघराहट से उन्होंने राजा नल को पहचान लिया और वे पूर्ववत् प्रसन्न हो गये। दमयन्ती को भी यह आवाज वैसी ही जान पड़ी। दमयन्ती कहने लगी कि 'इस रथ की घरघराहट मेरे चित्त में उल्लास पैदा करती है, अवश्य ही इसको हाँकनेवाले मेरे पतिदेव हैं। यदि आज वे मेरे पास नहीं आयेंगे तो मैं धधकती आग में कूद पड़ूँगी। मैने कभी हँसी खेल में भी उनसे झूठ बात कही हो, उनका कोई अपकार किया हो, प्रतिज्ञा करके तोड़ दी हो, ऐसी याद नहीं आती।वे शकतिशाली, क्षमावान्, वीर, दाता और एकपत्नीव्रती हैं। उनके वियोग से मेरी छाती फट रही है।' दमयन्ती महल की छत पर चढ़कर रथ का आना और उसपर से रथी-सारथी का उतरना देखने लगी। 

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