Wednesday 19 August 2015

सभापर्व---युधिष्ठिर को हस्तिनापुर बुलाना और कपट-ध्यूत में पाण्डवों की पराजय

 युधिष्ठिर को हस्तिनापुर बुलाना और कपट-ध्यूत में पाण्डवों की पराजय
    अब राजा धृतराष्ट्र ने अपने मुख्यमंत्री विदुर को बुलवाकर कहा कि विदुर, तुम मेरी आज्ञा से इन्द्रप्रस्थ जाओ और पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को शीघ्र ही यहाँ बुला लाओ। युधिष्ठिर से कहना कि हमने एक रत्नजटित सभा, जिसमें सुन्दर शैय्या और आसन स्थान-स्थान पर सुसज्जित हैं, बनवायी है। उसे वे अपने भाइयों के साथ आकर देखें और सब इष्टमित्रों के साथ ध्यूतक्रीड़ा करें। महात्मा विदुर को यह बात न्याय के प्रतिकूल जान पड़ी। उन्होंने इसका विरोध करते हुए धृतराष्ट्र से कहा, आपकी यह आज्ञा मुझे उचित नहीं जान पड़ती। आप ऐसा कदापि न करें। इससे आपके पुत्रों में वैर-विरोध और गृह-कलह हो जायगा, जिससे सारे वंश का नाश हो सकता है। धृतराष्ट्र ने कहा, विदुर, यदि दैव विरोधी नहीं हुआ तो दुर्योधन के वैर विरोध से भी मुझे कोई दुःख नहीं होगा। संसार में कोई स्वतंत्र नहीं, सब दैव के अधीन हैं। तुम ज्यादा सोच-विचार न करके मेरी आज्ञा स्वीकार करो और परम प्रतापी पाण्डवों को ले आओ। विदुर इच्छा न होने पर भी धृतराष्ट्र की आज्ञा से विवश होकर शीघ्रगामी रथ पर सवार होकर इन्द्रप्रस्थ गये। वहाँ की जनता ने स्वागतपूर्वक उन्हें धर्मराज के ऐश्वर्यपूर्ण राजमंदिर में पहुँचाया। राजा युधिष्ठिर बड़े प्रेम से उनसे मिले। युधिष्ठिर ने उनका यथोचित सत्कार करके पूछा, विदुरजी, आपका मन कुछ खिन्न सा जान पड़ता है। आप सकुशल तो आये हैं न। हमारे भाई दुर्योधन आदि राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा का पालन तो करते हैं। विदुरजी ने कहा, देवराज इन्द्र के समान प्रतापी धृतराष्ट्र अपने पुत्र एवं सगे-सम्बन्धियों के साथ सकुशल हैं। आपकी कुशल और आरोग्य पूछकर उन्होंने यह संदेश भेजा है कि युधिष्ठिर मैने भी तुम्हारी सभा-जैसी एक बड़ी सुन्दर सभा बनवायी है। तुम अपन भाइयों के साथ आकर उसका निरीक्षण करो और भाइयों के साथ ध्यूतक्रीड़ा करो। धृतराष्ट्र का संदेश सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा, ध्यूत खेलना तो मुझे कल्याणकारी नहीं जान पड़ता। वह तो केवल झगड़े-बखेरे की ही जड़ है। ऐसा कौन भला आदमी होगा जो जूआ खेलना पसंद करेगा। इस सम्बन्ध में आपकी क्या सम्मति है। हमलोग तो आपके परामर्श के अनुसार ही काम करना चाहते हैं। विदुर ने कहा, धर्मराज, मैं यह भली-भाँति जानता हूँ कि जूआ खेलना सारे अनर्थों की मूल है। मैने इसे रोकने के लिये बहुत प्रयत्न किया, परन्तु सफलता न मिली। मैं धृतराष्ट्र की आज्ञा से विवश होकर आया हूँ। आप जो उचित समझें वही करें। युधिष्ठिर ने पूछा, क्या वहाँ धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन, दुःशासन आदि के सिवा और भी खिलाड़ी इकट्ठे हैं। हमें किनके साथ जूआ खेलने के लिये बुलाया जा रहा है। विदुरजी ने कहा, गान्धारराज शकुनी को तो आप जानते ही हैं। वह पासे फेंकने में प्रसिद्ध, पासों का निर्माता और सबसे बड़ा खिलाड़ी है। उसके अतिरिक्त विविंसति, चित्रसेन, राजा सत्यव्रत, पुरुमित्र और जय आदि भी वहाँ विद्यमान है। युधिष्ठिर ने कहा, चाचाजी, तब तो आपका कहना ही ठीक है। इस समय वहाँ बड़े-बड़े भयानक और मायावी खिलाड़ियों का जमघट है। अस्तु, सारा संसार ही दैव के अधीन है। कोई स्वतंत्र नहीं। यदि धृतराष्ट्र मुझे न बुलाते तो मैं शकुनी के साथ जुआ खेलने के लिये कदापि नहीं जाता। धर्मराज ने विदुरजी से ऐसा कहकर आज्ञा की कि प्रातःकाल द्रौपदी आदि रानियों के साथ हम सब भाई हस्तिनापुर चलेंगे। तैयारी पूरी हो गयी। प्रातःकाल चलने के समय युधिष्ठिर की राज्यलक्ष्मी उनके रोम-रोम से फूटी पड़ती थी। हस्तिनापुर पहुँचकर धर्मात्मा युधिष्ठिर भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृपाचार्य तथा अश्त्थामा के साथ विधिपूर्वक मिले। तदन्तर वे सोमदत्त, दुर्योधन, शल्य, शकुनी, समागत राजा, दुःशासन आदि भाई, जयद्रथ एवं समस्त कुरुवंशियों से मिल-जुलकर राजा धृतराष्ट्र के पास गये। धर्मराज ने पतिव्रता गान्धारी एवं प्रज्ञाचक्षु पितातुल्य धृतराष्ट्र को प्रणाम किया। उन्होंने बड़े प्रेम से पाण्डवों का सिर सूँघा। पाण्डवों के आगमन से कौरवों को बड़ी प्रसन्नता हुई। धृतराष्ट्र ने उन्हें रत्नजटित महलों में ठहराया। द्रौपदी आदि स्त्रियाँ भी अन्तःपुर की स्त्रियों से यथायोग्य मिलीं। दूसरे दिन प्रातःकाल ही सब लोग नित्य-कर्म से निवृत होकर धृतराष्ट्र की नवीन सभा में गये। जूए के खिलाड़ियों ने वहाँ सबका सहर्ष स्वागत किया। पाण्डवों ने सभा में पहुँचकर सबके साथ यथायोग्य प्रणाम-आशीर्वाद, स्वागत-सत्कार आदि का व्यवहार किया। इसके बाद सब लोग अपनी-अपनी आयु के अनुसार योग्य आसन पर बैठ गये। तदन्तर मामा शकुनी ने प्रस्ताव किया, धर्मराज, यह सभा आपकी ही प्रतीक्षा कर रही थी। अब पासे डालकर खेल शुरु करना चाहये। युधिष्ठिर ने कहा, राजन् जूआ खेलना तो छलरूप और पाप का मूल है। इसमें न तो क्षत्रियोचित वीरता-प्रदर्शन का अवसर है और न तो इसकी कोई निश्चित नीति ही है। जगत् का कोई भी भलामानुस जुआरियों के कपटपूर्ण आचरण की प्रशंसा नहीं करता। आप जूए के लिये क्यों उतावले हो हैं। आपको निर्दय पुरुषों के समान कुमार्ग से हमें पराजित करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये। शकुनी ने कहा, युधिष्ठिर, देखो, बलवान् और शस्त्र-कुशल पुरुष दुर्बल एवं शस्त्रहीन के ऊपर प्रहार करते हैं। देखो, ऐसी धूर्तता तो सभी कामों में है। जो पासे फेंकने में चतुर है, वह यदि कौशल से अनजान को जीत ले तो उसको धूर्त कहने का क्या कारण है। युधिष्ठिर ने कहा, अच्छी बात। यह तो बतलाइये, यहाँ के इकट्ठे लोगों में से मुझे किसके साथ खेलना होगा। और कौन दावँ लगावेगा। कोई तैयार हो तो खेल शुरू किया जाय। दुर्योधन ने कहा, दावँ लगाने के लिये धन और रत्न तो मैं दूँगा, परंतु मेरी ओर से खेलेंगे मेरे मामा शकुनी। जूआ प्रारंभ हुआ, उस समय धृतराष्ट्र के साथ बहुत राजा वहाँ आकर बैठ गये थे---भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य और विदुरजी भी, यद्यपि उनके मन में बड़ा खेद था। युधिष्ठिर ने कहा कि, सागरावर्त में उत्पन्न, सुवर्ण के सब आभूषणो में श्रेष्ठ परम सुन्दर मणिमय हार मैं दावँ पर रखता हूँ। अब आप बताइये आप दाँव पर क्या रखते हैं। दुर्योधन ने कहा कि, मेरे पास बहुत सी मणियाँ और धन हैं। मैं उनके नाम गिनाकर अहंकार नहीं दिखाना चाहता। आप इस दावँ को जीतिये तो। दावँ लग जाने पर पासों के विशेषज्ञ शकुनी ने हाथ में पासे उठाये और बोला, यह दावँ मेरा रहा। और इस प्रकार उसने पासे डाले कि सचमुच उसकी जीत रही। युधिष्ठिर ने कहा, शकुने, यह तो तुम्हारी चालाकी है। अच्छा, मैं इस बार एक लाख अठारह हजार मुहरों से भरी थैलियाँ, अक्षय धन-भंडार और बहुत सी सुवर्ण-राशि दावँ पर लगाता हूँ। शकुनी ने,इसको भी मैने जीत लिया, यह कहकर पासे फेंके और उसी की जीत हुई। युधिष्ठिर ने कहा, मेरे पास ताँबे और लोहे के संदूकों में चार सौ खजाने बन्द हैं। एक-एक में पाँच-पाँच द्रोण सोना भरा है। वही मैं दावँ पर लगाता हूँ। शकुनी ने कहा, लो मैने यह भी जीत लिया और सचमुच जीत लिया। इस प्रकार भयंकर जूआ उत्तरोत्तर बढने लगा।यह अन्याय विदुरजी से देखा नहीं गया।उन्होंने समझाना-बुझाना शुरु किया।       विदुरजी ने कहा,महाराज,मरणासन्न रोगीको औषध अच्छी नहीं लगती।ठीक वैसे ही,मेरी बात आपलोगों को अच्छी नहीं लगती।फिर भी मेरी प्रार्थना ध्यान देकर सुनिये।यह पापी दुर्योधन जिस समय गर्भ से बाहर आया था,गीदड़ के समान चिल्लाने लगा था।यह कुलक्षण कुरुवंश के नाश का कारण बनेगा।यह कुलकलंक आपके घर में ही रहता है,परन्तु आपको मोहवश इसका ज्ञान नहीं है। मैं आपको नीति की बात बतलाता हूँ। जब शराबी शराब पीकर उन्मत्त हो जाता है,तब उसे अपने शराब पीने का भी होश नहीं रहता।नशा होने पर वह पानी में डूब मरता है या धरती पर गिर पड़ता है।वैसे ही दुर्योधन जूए के नशे में इतना उन्मत्त हो रहा है कि इसे इस बात कापता नहीं है कि पाण्डवों से वैर-विरोध मोल लेने का फल इसकी घोर दुर्दशा होगी।एक भोजवंशी राजा ने पुरवासियों के हित के लिये अपने कुकर्मी पुत्र का परित्याग कर दिया था।भोजवंशियों ने दुरात्मा कंस को छोड़ दिया था और भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा उसके मारे जाने पर वे सुखी हुए थे।राजन्, आप अर्जुन को आज्ञा दीजिये कि वह पापी दुर्योधन को दण्ड देकर ठीक कर दे। इसे दण्ड देने पर ही कुरुवंशी सैकड़ों वर्ष तक सुखी रह सकते हैं।कौए या गीदड़ के समान दुर्योधन को त्यागकर मयूर अथवा सिंह के समान पाण्डवों को अपने पास रख लीजिये।आपको शोक न हो,इसका यही मार्ग है। शास्त्रों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कुल की रक्षा के लिये एक पुरुष को,गाँव की रक्षा के लिये एक कुल को,देश की रक्षा के लिये एक गाँव को और आत्मा की रक्षा के लिये देश को भी छोड़ दे।सर्वज्ञ महर्षि शुक्राचार्य ने जम्भ दैत्य के परित्याग के समय असुरों को एक बड़ी सुन्दर कथा कही थी,उसे मैं आपको सुनाता हूँ। उन्होंने कहा कि किसी वन में बहुत से पक्षी रहा करते थे। वे सब-के-सब सोना उगला करते थे। उस देश का राजा बड़ा ही लोभी और मूर्ख था। उसने लोभवश अंधे होकर बहुत-सा सोना पाने के लिये उन पक्षियों को मरवा डाला, जबकि वे अपने-अपने घोसलों में निरीह भाव से बैठे हुए थे। इस पाप का फल क्या हुआ। यही कि उसे उस समय तो सोना नहीं मिला, आगे का मार्ग भी बन्द हो गया। मैं स्पष्ट कह देता हूँ कि पाण्डवों की महान् धनराशि पाने के लालच से आपलोग उनके साथ द्रोह न करें। नहीं तो उसी लोभान्ध राजा के समान आपलोगों को भी पीछे पछताना पड़ेगा। राजर्षि भरत के पवित्र संतानों जैसे माली उद्यान के वृक्षों को सींचता है और समय-समय पर खिले पुष्पों को चुनता भी रहता है वैसे ही आप पाण्डवों को स्नेहजल से सींचते रहिये और उपहारस्वरूप में बार-बार थोड़ा-थोड़ा धन लेते रहिये। वृक्षों की जड़ में आग लगाकर उन्हें भष्म करने के समान पाण्डवों का सर्वनाश करने की चेष्टा मत कीजिये। आप निश्चय समझिये, पाण्डवों के साथ विरोध करने का फल यह होगा कि आपके सेवक मंत्री और पुत्रों को यमराज का अतिथि बनना पड़ेगा। ये जब इकट्ठे होकर रणभूमि से आयेंगे,तब देवताओं के साथ स्वयं इन्द्र भी इनका मुकाबला नहीं कर सकेंगे। जूआ खेलना कलह का मूल है। जूए से आपस का प्रेमभाव नष्ट हो जाता है। भय के बनाव बन जाते हैं। दुर्योधन इस समय उसी विपत्ति की सृष्टि में संलग्न है। इसके अपराध से प्रतीप, शान्तनु और बाह्लीक के वंशज घोर संकट में पड़ जायेंगे। जैसे उन्त्त बैल अपने सिंगों से अपने-आप को ही घायल कर देता है, वैसे ही दुर्योधन उन्मादवश अपने राज्य से मंगल का बहिष्कार कर रहा है। आपलोग स्वयं विचार कीजिये। मोहवश अपने विचार का तिरस्कार मत कीजिये। महाराज, आप भी दुर्योधन की जीत देखकर प्रसन्न हो रहे हैं, परन्तु इसी के कारण शीघ्र ही युद्ध का आरंभ होगा, जिसमें बहुत से वीर मारे जायेंगे। आप बातों में तो जूए से विरोध प्रकट करते हैं परंतु भीतर-भीतर से उसे चाहते हैं। यह विचारहीनता हैं। पाण्डवों का विरोध बड़े अनर्थ का कारण होगा। आप पाण्डवों का धन नहीं, पाण्डवों को ही अपनाइये। इस पहाड़ी शकुनि के ध्यूत-कौशल से मैं अपरिचित नहीं हूँ। यह छल करना खूब जानता है। बस अब बहुत हो चुका। यह जिस राह आया है, उसी रह शीघ्र इसे यहाँ से लौटा दीजिये। पाण्डवों से लड़ाई नहीं ठानिये। दुर्योधन ने कहा, विदुर, यह कौन सी बात है कि तुम सदा शत्रुओं की प्रशंसा और हमलोगों की निन्दा करते हो। अपने स्वामी की निन्दा करना तो कृतघ्नता है। तुम्हारी जीभ तुम्हारे मन की बात बतला रही है। तुम भीतर-ही-भीतर हमारे विरोधी हो। तुम हमारे लिये गोद में बैठे साँप के समान हो और पालनेवाले का गला घोंटने पर उतारू हो। इससे बढकर और पाप क्या होगा। क्या तुम्हे इसका भय नहीं है। तुम समझ लो कि मैं चाहे जो कर सकता हूँ। मेरा अपमान मत करो और कड़वी बात भी मत बोला करो। मैं तुमसे अपने हित के संबंध में कब पूछता हूँ। बहुत सह चुका, हद हो गयी। अब मुझे मत बेधो। देखो, संसार का शासन करनेवाला एक ही है, दो नहीं। तुम बीच में उछल-कूद मचाकर शत्रु मत बनो। मेरे काम में हस्तक्षेप मत करो। प्रज्वलित आग को उकसा कर भाग जाना चाहिये। नहीं तो ढूँढे राख भी नहीं मिलती। तुम्हारे जैसे शत्रुपक्ष के मनुष्य को अपने पास नहीं रखना चाहिये। इसलिये तुम जहाँ चाहे चले जाओ। यहाँ तुम्हारी आवश्यकता नहीं है। विदुर ने कहा, दर्योधन तुम अच्छे बुरे सभी कामों में मीठी बात सुनना चाहते हो। अरे भाई, तब तो तुम्हे मूर्खों की सलाह लेनी चाहिये। देखो, चिकनी-चुपड़ी कहनेवाले पापियों की कमी नहीं है। परन्तु वैसे लोग बहुत दुर्लभ हैं, जो अप्रिय किन्तु हितकारी बात कहें सुनें। जो अपने स्वामी का प्रिय-अप्रिय का खयाल न करके धर्म पर अटल रहता है और अप्रिय होने पर भी हितकारी बात कहता है, वही राजा का सच्चा सहायक है। देखो, क्रोध एक तीखी जलन है, वह बिना रोग का रोग है, कीर्तिनाशक है। इसे सत्पुरुष ही शमन कर सकते हैं दुर्जन नहीं। तुम इसे पी जाओ औ शान्ति प्राप्त करो। मैं हमेशा धृतराष्ट्र और उनके पुत्रों के धन और यश की बढती चाहता हूँ, तुम्हारी जो इच्छा हो करो।मैं तुम्हे दूर से नमस्कार करता हूँ। विदुरजी मौन हो गये।    शकुनि ने कहा, युधिष्ठिर, अबतक तुम बहुत सा धन हार चुके हो। यदि तुम्हारे पास कुछ और बच रहा हो तो दावँ पर रखो। युधिष्ठिर ने कहा, शकुने, मेरे पास असंख्य धन है। उसे मैं जानता हूँ। तुम पूछनेवाले कौन। अयुत, प्रयुत, पद्म, अर्बुद, खर्व, शंख, निखर्व, महापद्म, कोटि मध्यम और परार्थ तथा इससे भी अधिक धन मेरे पास है। मैं सब दावँ पर लगाता हूँ। शकुनि ने पासा फेंकते हुए कहा, यह लो, जीत लिया मैने। युधिष्ठिर ने कहा, ब्राह्मणों और उनकी सम्पत्ति को छोड़कर नगर, देश, भूमि, प्रजा और उनका धन मैं दावँ पर लगाता हूँ। शकुनि ने पूर्ववत् छल से पासे फेंककर कहा, लो यह भी मेरा रहा। अब युधिष्ठिर ने कहा, जिनके नेत्र लाल-लाल और सिंह के-से कंधे हैं जिनका वर्ण श्याम और भरी जवानी है उन्हीं नकुल को मैं दावँ पर लगाता हूँ। शकुनि ने कहा, अच्छा, तुम्हारे प्यारे भाई राजकुमार नकुल भी अधीन हो गये। और पासे फेंककर उसने फिर कहा, हमारी जीत रही। युधिष्ठिर ने कहा, मेरे भाई सहदेव धर्म के व्यवस्थापक हैं। इन्हें सब लोग पण्डित कहते हैं। अवश्य ही मेरे प्यारे भाई सहदेव दावँ पर लगाने योग्य नहीं हैं। फिर भी मैं इन्हें दावँ पर रखता हूँ। शकुनि पूर्ववत् सहदेव को भी जीत लिया। युधिष्ठिर ने कहा, मेरे भाई अर्जुन प्रतापी, वीर और संग्रामविजयी हैं। ये दावँ पर लगाने योग्य नहीं हैं। फिर भी मैं इन्हें दावँ पर रखता हूँ। शकुनि ने फिर छल से पास फेंककर अपनी जीत घोषित कर दी। युधिष्ठिर ने कहा, भीमसेन हमारे सेनापति हैं। ये अनुपम बली हैं। इनके कन्धे सिंह के समान हैं। भौंहें चढी रहती हैं। गदा-युद्ध में प्रवीण हैं और सर्वदा शत्रुओं पर क्रोधित रहते हैं। मेरे भाई भीमसेन अवश्य ही दावँ पर रखने योग्य नहीं हैं। फिर भी मैं इन्हें दावँ पर रखता हूँ। शकुनि ने इस बार भी अपनी जीत बतलाई। युधिष्ठिर ने कहा कि,मैं सब भाइयों में बड़ा और सबका प्यारा हूँ। मैं अपने को दावँ पर लगाता हूँ। यदि मैं हार जाऊँगा तो तुम्हारा काम करूँगा। शकुनी ने कहा--यह मारा, और पासे फेंककर अपनी जीत घोषित कर दी। शकुनि ने धर्मराज से कहा, राजन् तुमने अपने को जूए में हारकर बड़ा अनर्थ किया, क्योंकि दूसरा धन पास रहते अपने को हार जाना अन्याय है। अभी तो तुम्हारे पास दावँ पर लगाने के लिये द्रौपदी बाकी है। तुम उसे दावँ पर लगाकर अबकी बार जीत लो। युधिष्ठिर ने कहा, शकुने, द्रौपदी सुशीलता, अनुकूलता और प्रियवादिता आदि गुणों से परिपूर्ण है। वह चरवाहों और सेवकों से भी पीछे सोती है, सबसे पहले जागती है। सभी कार्यों के होने-न-होने का खयाल रखती है। उसी सर्वांगसुन्दरी द्रौपदी को मैं दावँ पर रख रहा हूँ। युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर चारों ओर से धिक्कार की बौछारें आने लगीं। सारी सभा क्षुब्ध हो उठी। सभ्य राजा शोकाकुल हो गये। भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य आदि महात्माओं के शरीर पसीने से लथपथ हो गये। विदुरजी सिर पकड़कर लम्बी साँस लेते हुए मुँह लटकाकर चिन्ताग्रस्त हो गये। धृतराष्ट्र हर्षित हो रहे थे। वे बार-बार पूछते---क्या हमारी जीत हो गयी। दुःशासन, कर्ण आदि की खलमण्डली हँसने लगी। परन्तु सभासदों के नेत्रों से आँसू बह रहे थे। दुरात्मा शकुनि ने विजयोन्माद से मत्त होकर, यह लिया, कहकर छल से पासे फेंके और अपनी विजय घोषित कर दी।




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