सगरपुत्रों का नाश और गंगावतर
युधिष्ठिर ने पूछा---ब्रह्मण् ! समुद्र के भरने में भगीरथ के पूर्वपुरुष किस प्रकार कारण हुए, भगीरथ ने उसे किस प्रकार भरा---यह प्रसंग मैं विस्तार से
सुनना चाहता हूँ। लोमशजी बोले---राजन् ! इक्ष्वाकुवंश में सगर नाम के एक राजा थे। वे बड़े रूपवान्, बलवान्, प्रतापीऔर पराक्रमशील थे। उनकी वैदर्भी और शैव्या नाम की दो स्त्रियाँ थीं। उन्हें साथ लेकर वे कैलाश पर्वत पर गये और वहाँ योगाभ्यास करते हुए बड़ी कठिन तपस्या करने लगे। कुछ काल तपस्या करने पर उन्हें भगवान् शंकर के दर्शन हुए। महाराज सगर ने अपने दोनो रानियों के सहित भगवान् के चरणों में प्रणाम किया और पुत्र के लिये प्रार्थना की। तब श्री महादेवजी ने प्रसन्न होकर राजा और रानियों से कहा, 'राजन् ! तुमने जिस मुहूर्त में वर माँगा है, उसके प्रभाव से तुम्हारी एक रानी से तो अत्यंत गर्वीले और शूरवीर साठ-हजार पुत्र होंगे, किन्तु वे सब एक साथ ही नष्ट हो जायेंगे; तथा दूसरी रानी से वंश को चलानेवाला केवल एक ही शूरवीर पुत्र होगा।' ऐसा कहकर भगवान् रुद्र वहीं अन्तर्धान हो गये और राजा सगर अत्यन्त प्रसन्न हो अपनी रानियों के सहित घर लौट आये। फिर वैदर्भी और शैव्या ने गर्भ धारण किया और समय आने पर वैदर्भी के गर्भ से एक तूँबी उत्पन्न हुई तथा शैव्या ने एक देवरूपी बालक उत्पन्न किया। राजा ने तूँबी को फेंकवाने का विचार किया। इसी समय गम्भीर स्वर से यह आकाशवाणी हुई कि 'राजन् ! ऐसा साहस न करो, इस प्रकार पुत्रों का परित्याग करना उचित नहीं है। इस तूँबी के बीज निकालकर उन्हें कुछ-कुछ गरम किये हुए घी से भरे हुए घड़ों में पृथक्-पृथक् रख दो। इससे तुम्हे साठ हजार पुत्र प्राप्त होंगे।' आकाशवाणी सुनकर राजा ने वैसा ही किया। उन्होंने तूँबी का एक-एक बीज एक-एक घृतपूर्ण घट में रखवा दिया और प्रत्येक घड़े की रक्षा करने के लिये एक-एक दासी नियुक्त कर दी। बहुत काल बीतने पर भगवान् शंकर की कृपा से उनमें से अतुलित तेजस्वी साठ पुत्र उत्पन्न हुए। वे बड़े ही घोर प्रकृति के और क्रूर कर्म करनेवाले थे तथा आकाश में उड़कर चलते थे। संख्या में बहुत होने के कारण वे देवताओं के सहित संपूर्ण लोकों का तिरस्कार किया करते थे। इस प्रकार बहुत समय निकल जाने पर राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ की दीक्षा ली। उनका छोड़ा हुआ घोड़ा पृथ्वी पर विचरने लगा। राजा के पुत्र उसकी रखवाली पर नियुक्त थे। घूमता-घूमता वह जलहीन समुद्र के पास पहुँचा, जो इस समय बड़ा भयंकर जान पड़ता था। यद्यपि राजकुमार बड़ी सावधानी से उसकी चौकसी कर रहे थे, तो भी वह वहाँ पहुँचने पर अदृश्य हो गया। जब वह ढ़ूँढने पर भीन मिला तो राजपुत्रों ने समझ कि उसे किसी ने चुरा लिया है और राजा सगर के पास आकर ऐसा ही कह दिया।वे बोले, 'पिताजी ! हमने समुद्र, द्वीप, वन, पर्वत, नदी, नद और कन्दराएँ--- सभी स्थान छान डाले; परंतु हमें न तो घोड़ा ही मिला और न उसको चुरानेवाला ही।' पुत्रों की यह बात सुनकर सगर को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने आज्ञा दी कि 'जाओ, फिर घोड़े की खोज करो और बिना उस यज्ञ पशु के लौट के मत आना।' पिता का ऐसा आदेश पाकर सगरपुत्र फिर सारी पृथ्वी में घोड़े की खोज करने लगे। अन्त में उन शूरवीरों ने एक जगह पृथ्वी को फटी हुई देखा। उसमें उन्हें एक छिद्र भी दिखाई दिया। तब वे कुदाल तथा दूसरे हथियारों से उस छिद्र को खोदने लगे। खोदते-खोदते उन्हें बहुत समय हो गया, किन्तु फिर भी घोड़ा दिखाई न दिया। इससे उनका क्रोध और भी बढ़ गया और उन्होंने ईशान कोण में उसे पाताल तक खोद डाला। वहाँ उन्होंने अपने घोड़े को घूमता देखा तथा उसके पास ही उन्हें अतुलित तेजोराशि महात्मा कपिल भी दिखायी दिये। घोड़े को देखकर उन्हें हर्ष से रोमांच हो आया, किन्तु कालवश भगवान् कपिल पर वे क्रोध से भर गये और उनका तिरस्कार करके घोड़े को लेने के लिये बढ़े।इससे महातेजस्वी कपिलजी को भी क्रोध हो आया। उन्होंने त्यौरी चढ़ाकर सगरपुत्रों पर अपना तेज छोड़ा और उन मंदबुद्धियों को भस्म कर दिया। उन्हें भस्मीभूत हुए देख देवर्षि नारद राजा सगर के पास आये और उन्हें सारा समाचार सुना दिया। नारदजी की बात सुनकर एक मुहूर्त के लिये तो राजा उदास हो गये, किन्तु फिर उन्हें महादेवजी की बात क स्मरण हो आया। तब उन्होंने असमंजस के पुत्र अपने पोते अंशुमान् को बुलाकर कहा, 'बेटा ! मेरे अतुलित तेजस्वी साठ हजार पुत्र कपिलजी के तेज से मेरे ही कारण नष्ट हो गये हैं तथा अपने धर्म की रक्षा और प्रजा का हित करने के लिये मैने तुम्हारे पिता का भी परित्याग कर दिया है। युधिष्ठिर ने पूछा---तपोधन लोमशजी ! राजाओं में श्रेष्ठ सगर ने अपने और पुत्रों को क्यों त्याग दिया था ? लोमशजी बोले---'राजन् ! महाराज सगर का शैव्या के गर्भ से उत्पन्न हुआ पुत्र असमंजस नाम से विख्यात था। वह अपने पुरवासियों के दुर्बल बालकों को रोने-चिल्लाने पर भी गला पकड़कर नदी में डाल देता था। इससे सब पुरवासी भय और शोक से व्याकुल रहने लगे और एक दिन राजा सगर के पास आकर हाथ जोड़कर कहने लगे, 'महाराज ! आप हमारे शत्रुओं के शासनादिजनित संकटों से रक्षा करनेवाले हैं, अतः इस समय असमंजस से हमें जो घोर भय उपस्थित हो गया है उससे भी हमारी रक्षा कीजिये।' पुरवासियों की बात सुनकर महाराज सगर एक मुहूर्त तक उदास रहे। और फिर मंत्रियों को बुलाकर इस प्रकार कहा, 'यदि आपलोग मेरा प्रिय करना चाहते हैं तो तुरंत ही एक काम कीजिये---मेरे पुत्र असमंजस को अभी इस नगर से बाहर निकाल दीजिये।' राजा के आज्ञानुसार मंत्रियों ने तत्काल वैसा ही किया। इस प्रकार महात्मा सगर ने पुरवासियों के हित के लिये अपने पुत्र को निकाल दिया था। सगर ने अंशुमान से कहा---'बेटा ! तुम्हारे पिताजी को मैं नगर से निकाल चुका हूँ, मेरे और सब पुत्र भस्म हो गये हैं और यज्ञ का घोड़ा भी मिला नहीं है; इसलिये मेरे चित्त में बड़ा खेद हो रहा है। तुम किसी प्रकार घोड़ा ढ़ूँढ़कर लाओ, जिससे मैं यज्ञ को पूरा करके स्वर्ग प्राप्त कर सकूँ।'सगर की बात सुनकर अंशुमान् को बड़ा दुःख हुआ और वह उसी स्थान पर आया, जहाँ पृथ्वी खोदी गयी थी तथा उसी मार्ग से समुद्र में प्रवेश किया।वहाँ उसने उस अश्व और महात्मा कपिल को देखा। परमर्षि कपिल को उसने प्रणाम किया और वहाँ आने का प्रयोजन बताया।अंशुमान् की बातें सुनकर महर्षि कपिल बहुत प्रसन्न हुए और उससे बोले, 'वत्स ! मैं तुम्हे वर देना चाहता हूँ, तुम्हारी जो इच्छा हो माँग लो।' अंशुमान ने पहले वर में यज्ञीय अश्व माँगा और दूसरे वर से अपने पिता को पवित्र करने की प्रार्थना की। तब महातेजस्वी मुनिवर कपिल ने कहा, 'हे अनघ ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम जो वर माँगते हो वह मैं तुम्हें देता हूँ। तुममें क्षमा, धर्म और सत्य विद्यमान है। तुमसे सगर का जीवन सफल होगा और तुम्हारे पिता भी पुत्रवान् गिने जायेंगे। तुम्हारे प्रभाव से ही सगरपुत्र स्वर्ग प्राप्त करेंगे। तुम्हारा पौत्र भगीरथ सगरपुत्रों का उद्धार करने के लिये महादेवजी को प्रसन्न करके स्वर्गलोक से गंगाजी को लावेगा। यह यज्ञीय अश्व तुम प्रसन्नता से ले जाओ। कपिलजी के इस प्रकार कहने पर अंशुमान् घोड़ा लेकर राजा सगर की यज्ञशाला में आया और उसने उनके चरणों में प्रणाम किया। उन्होंने अंशुमान का बड़ा आदर किया और अपना अधूरा यज्ञ पूरा किया। अन्त में अपने पौत्र पर राज्य का भार छोड़कर स्वयं स्वर्ग सिधारे। महात्मा अंशुमान ने भी अपनेपितामह के समान ही पूरे भूमण्डल का पालन किया। उनके दिलीप नाम का धर्मात्मा पुत्र हुआ। उसे राज्य सौंपकर अंशुमान् भी परलोकवासी हुए। दिलीप को जब अपने पितृगण के विनाश की बात मालूम हुई तो उनके हृदय में बड़ा संताप हुआ। वे उनके उद्धार का उपाय सोचने लगे और गंगाजी को लाने के लिये बहुत प्रयत्न किया। परन्तु बहुत चेष्टा करने पर भी वे सफल न हो सके। उनके परम ऐश्वर्यशाली और धर्मपरायण भगीरथ नाम का पुत्र हुआ। उसे राज्य पर अभिषिक्त कर दिलीप वन में चले गये और वहाँ कालवश तपस्या के प्रभाव से स्वर्गवासी हो गये। राजा भगीरथ को जब मालूम हुआ कि कपिलजी के कोप से उनके पितृगण भस्म हो गये हैं तो वे बड़े दुःखी हुए और अपना राज्य मंत्री को सौंपकर तपस्या करने के लिये हिमालय पर चले गये। वहाँ उन्होंने फल-मूल और जल का आहार करते हुए देवताओं के एक हजार वर्ष तक घोर तपस्या की। एक हजार दिव्य वर्ष बीतने पर महानदी गंगा ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया और कहा, 'राजन् ! तुम मुझसे क्या चाहते हो ? बताओ, मैं तुम्हे क्या दूँ ? तुम जो कहोगे, वही करूँगी।' गंगाजी के इस प्रकार कहने पर राजाजा ने उनसे कहा, 'हे वरदायिनी ! मेरे पितृगण महाराज सगर के साठ हजार पुत्रों को कपिल मुनि ने भस्म करके यमलक भज दिया है। हे महानदी ! जबतक आप अपने जल से उनका अभिषेक नहीं करेंगी, तबतक उनकी सद्गति नहीं हो सकती। राजा भगीरथ की बात सुनकर गंगाजी ने उनसे कहा, ऱाजन् ! मैं तुम्हारा कथन पूरा करूँगी, इसमें तो संदेह नहीं; किन्तु जिस समय मैं आकाश से पृथ्वी पर गिरूँगी, उस समय मेरा वेग असह्य होगा। तीनों लोकों में ऐसा कोई नहीं है जो मुझे धारण कर सके।हाँ, एक देवाधिदेव नीलकण्ठ भगवान् शंकर अवश्य मुझे धारण करने में समर्थ हैं। तुम तप करके उन्हें प्रसन्न कर लो। जब मैं पृथ्वी पर गिरने लगूँगी तो वे ही मुझे अपने मस्तक पर धारण कर लेंगे। यह सुनकर महाराज भगीरथ कैलाश पर गये और कुछ काल तक तीव्र तपस्या करके उन्होंने महादेवजी को प्रसन्न कर उनसे उन्होंने गंगाजी को धारण करने के लिये वर प्राप्त किया। भगीरथ को वर देकर भगवान् शंकर हिमालय पर आये और वहाँ खड़े होकर उनसे कहने लगे, 'महाबाहो ! अब तुम पर्वत राजपुत्री गंगा से प्रार्थना करो, मैं स्वर्ग से गिरने पर उसे धारण कर लूँगा।' यह सुनकर महाराज भगीरथ सावधान होकर गंगाजी का ध्यान करने लगे। उनके स्मरण करते ही पवित्रसलिला गंगाजी महादेवजी को खड़े देखकर आकाश से गिरने लगी। उन्हें गिरते देखकर देवता, महर्षि, गन्धर्व, नाग और यक्षलोक उनके दर्शन की लालसा से वहाँ एकत्रित हो गये। श्रीमहादेवजी के मस्तक पर वे इस प्रकार गिरीं मानो स्वच्छ मोतियों की माला हो।भगवान् शंकर ने उन्हें तत्काल धारण कर लिया। तब श्रीगंगाजी ने भगीरथ से कहा, 'ऱाजन् ! मैं तुम्हारे लिये पृथ्वी पर उतरी हूँ; अतः बताओ, मैं किस मार्ग से चलूँ ?' यह सुनकर राजा उन्हें उस स्थान पर ले गये, जहाँ उनके पूर्वजों के शरीर भस्म हुए थे। गंगाजी के जल से समुद्र तत्काल भर गया। राजा भगीरथ ने उन्हें अपनी पुत्री मान लिया। फिर सफल मनोरथ होकर राजा भगीरथ ने गंगाजल से अपने पितरों को जलांजली दी। इस प्रकार जिस तरह समुद्र को भरने के लिये गंगाजी पृथ्वी पर पधारीं, यह सब वृतांत महर्षि लोमश ने धर्मराज युधिष्ठिर को सुनाया।
युधिष्ठिर ने पूछा---ब्रह्मण् ! समुद्र के भरने में भगीरथ के पूर्वपुरुष किस प्रकार कारण हुए, भगीरथ ने उसे किस प्रकार भरा---यह प्रसंग मैं विस्तार से
सुनना चाहता हूँ। लोमशजी बोले---राजन् ! इक्ष्वाकुवंश में सगर नाम के एक राजा थे। वे बड़े रूपवान्, बलवान्, प्रतापीऔर पराक्रमशील थे। उनकी वैदर्भी और शैव्या नाम की दो स्त्रियाँ थीं। उन्हें साथ लेकर वे कैलाश पर्वत पर गये और वहाँ योगाभ्यास करते हुए बड़ी कठिन तपस्या करने लगे। कुछ काल तपस्या करने पर उन्हें भगवान् शंकर के दर्शन हुए। महाराज सगर ने अपने दोनो रानियों के सहित भगवान् के चरणों में प्रणाम किया और पुत्र के लिये प्रार्थना की। तब श्री महादेवजी ने प्रसन्न होकर राजा और रानियों से कहा, 'राजन् ! तुमने जिस मुहूर्त में वर माँगा है, उसके प्रभाव से तुम्हारी एक रानी से तो अत्यंत गर्वीले और शूरवीर साठ-हजार पुत्र होंगे, किन्तु वे सब एक साथ ही नष्ट हो जायेंगे; तथा दूसरी रानी से वंश को चलानेवाला केवल एक ही शूरवीर पुत्र होगा।' ऐसा कहकर भगवान् रुद्र वहीं अन्तर्धान हो गये और राजा सगर अत्यन्त प्रसन्न हो अपनी रानियों के सहित घर लौट आये। फिर वैदर्भी और शैव्या ने गर्भ धारण किया और समय आने पर वैदर्भी के गर्भ से एक तूँबी उत्पन्न हुई तथा शैव्या ने एक देवरूपी बालक उत्पन्न किया। राजा ने तूँबी को फेंकवाने का विचार किया। इसी समय गम्भीर स्वर से यह आकाशवाणी हुई कि 'राजन् ! ऐसा साहस न करो, इस प्रकार पुत्रों का परित्याग करना उचित नहीं है। इस तूँबी के बीज निकालकर उन्हें कुछ-कुछ गरम किये हुए घी से भरे हुए घड़ों में पृथक्-पृथक् रख दो। इससे तुम्हे साठ हजार पुत्र प्राप्त होंगे।' आकाशवाणी सुनकर राजा ने वैसा ही किया। उन्होंने तूँबी का एक-एक बीज एक-एक घृतपूर्ण घट में रखवा दिया और प्रत्येक घड़े की रक्षा करने के लिये एक-एक दासी नियुक्त कर दी। बहुत काल बीतने पर भगवान् शंकर की कृपा से उनमें से अतुलित तेजस्वी साठ पुत्र उत्पन्न हुए। वे बड़े ही घोर प्रकृति के और क्रूर कर्म करनेवाले थे तथा आकाश में उड़कर चलते थे। संख्या में बहुत होने के कारण वे देवताओं के सहित संपूर्ण लोकों का तिरस्कार किया करते थे। इस प्रकार बहुत समय निकल जाने पर राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ की दीक्षा ली। उनका छोड़ा हुआ घोड़ा पृथ्वी पर विचरने लगा। राजा के पुत्र उसकी रखवाली पर नियुक्त थे। घूमता-घूमता वह जलहीन समुद्र के पास पहुँचा, जो इस समय बड़ा भयंकर जान पड़ता था। यद्यपि राजकुमार बड़ी सावधानी से उसकी चौकसी कर रहे थे, तो भी वह वहाँ पहुँचने पर अदृश्य हो गया। जब वह ढ़ूँढने पर भीन मिला तो राजपुत्रों ने समझ कि उसे किसी ने चुरा लिया है और राजा सगर के पास आकर ऐसा ही कह दिया।वे बोले, 'पिताजी ! हमने समुद्र, द्वीप, वन, पर्वत, नदी, नद और कन्दराएँ--- सभी स्थान छान डाले; परंतु हमें न तो घोड़ा ही मिला और न उसको चुरानेवाला ही।' पुत्रों की यह बात सुनकर सगर को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने आज्ञा दी कि 'जाओ, फिर घोड़े की खोज करो और बिना उस यज्ञ पशु के लौट के मत आना।' पिता का ऐसा आदेश पाकर सगरपुत्र फिर सारी पृथ्वी में घोड़े की खोज करने लगे। अन्त में उन शूरवीरों ने एक जगह पृथ्वी को फटी हुई देखा। उसमें उन्हें एक छिद्र भी दिखाई दिया। तब वे कुदाल तथा दूसरे हथियारों से उस छिद्र को खोदने लगे। खोदते-खोदते उन्हें बहुत समय हो गया, किन्तु फिर भी घोड़ा दिखाई न दिया। इससे उनका क्रोध और भी बढ़ गया और उन्होंने ईशान कोण में उसे पाताल तक खोद डाला। वहाँ उन्होंने अपने घोड़े को घूमता देखा तथा उसके पास ही उन्हें अतुलित तेजोराशि महात्मा कपिल भी दिखायी दिये। घोड़े को देखकर उन्हें हर्ष से रोमांच हो आया, किन्तु कालवश भगवान् कपिल पर वे क्रोध से भर गये और उनका तिरस्कार करके घोड़े को लेने के लिये बढ़े।इससे महातेजस्वी कपिलजी को भी क्रोध हो आया। उन्होंने त्यौरी चढ़ाकर सगरपुत्रों पर अपना तेज छोड़ा और उन मंदबुद्धियों को भस्म कर दिया। उन्हें भस्मीभूत हुए देख देवर्षि नारद राजा सगर के पास आये और उन्हें सारा समाचार सुना दिया। नारदजी की बात सुनकर एक मुहूर्त के लिये तो राजा उदास हो गये, किन्तु फिर उन्हें महादेवजी की बात क स्मरण हो आया। तब उन्होंने असमंजस के पुत्र अपने पोते अंशुमान् को बुलाकर कहा, 'बेटा ! मेरे अतुलित तेजस्वी साठ हजार पुत्र कपिलजी के तेज से मेरे ही कारण नष्ट हो गये हैं तथा अपने धर्म की रक्षा और प्रजा का हित करने के लिये मैने तुम्हारे पिता का भी परित्याग कर दिया है। युधिष्ठिर ने पूछा---तपोधन लोमशजी ! राजाओं में श्रेष्ठ सगर ने अपने और पुत्रों को क्यों त्याग दिया था ? लोमशजी बोले---'राजन् ! महाराज सगर का शैव्या के गर्भ से उत्पन्न हुआ पुत्र असमंजस नाम से विख्यात था। वह अपने पुरवासियों के दुर्बल बालकों को रोने-चिल्लाने पर भी गला पकड़कर नदी में डाल देता था। इससे सब पुरवासी भय और शोक से व्याकुल रहने लगे और एक दिन राजा सगर के पास आकर हाथ जोड़कर कहने लगे, 'महाराज ! आप हमारे शत्रुओं के शासनादिजनित संकटों से रक्षा करनेवाले हैं, अतः इस समय असमंजस से हमें जो घोर भय उपस्थित हो गया है उससे भी हमारी रक्षा कीजिये।' पुरवासियों की बात सुनकर महाराज सगर एक मुहूर्त तक उदास रहे। और फिर मंत्रियों को बुलाकर इस प्रकार कहा, 'यदि आपलोग मेरा प्रिय करना चाहते हैं तो तुरंत ही एक काम कीजिये---मेरे पुत्र असमंजस को अभी इस नगर से बाहर निकाल दीजिये।' राजा के आज्ञानुसार मंत्रियों ने तत्काल वैसा ही किया। इस प्रकार महात्मा सगर ने पुरवासियों के हित के लिये अपने पुत्र को निकाल दिया था। सगर ने अंशुमान से कहा---'बेटा ! तुम्हारे पिताजी को मैं नगर से निकाल चुका हूँ, मेरे और सब पुत्र भस्म हो गये हैं और यज्ञ का घोड़ा भी मिला नहीं है; इसलिये मेरे चित्त में बड़ा खेद हो रहा है। तुम किसी प्रकार घोड़ा ढ़ूँढ़कर लाओ, जिससे मैं यज्ञ को पूरा करके स्वर्ग प्राप्त कर सकूँ।'सगर की बात सुनकर अंशुमान् को बड़ा दुःख हुआ और वह उसी स्थान पर आया, जहाँ पृथ्वी खोदी गयी थी तथा उसी मार्ग से समुद्र में प्रवेश किया।वहाँ उसने उस अश्व और महात्मा कपिल को देखा। परमर्षि कपिल को उसने प्रणाम किया और वहाँ आने का प्रयोजन बताया।अंशुमान् की बातें सुनकर महर्षि कपिल बहुत प्रसन्न हुए और उससे बोले, 'वत्स ! मैं तुम्हे वर देना चाहता हूँ, तुम्हारी जो इच्छा हो माँग लो।' अंशुमान ने पहले वर में यज्ञीय अश्व माँगा और दूसरे वर से अपने पिता को पवित्र करने की प्रार्थना की। तब महातेजस्वी मुनिवर कपिल ने कहा, 'हे अनघ ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम जो वर माँगते हो वह मैं तुम्हें देता हूँ। तुममें क्षमा, धर्म और सत्य विद्यमान है। तुमसे सगर का जीवन सफल होगा और तुम्हारे पिता भी पुत्रवान् गिने जायेंगे। तुम्हारे प्रभाव से ही सगरपुत्र स्वर्ग प्राप्त करेंगे। तुम्हारा पौत्र भगीरथ सगरपुत्रों का उद्धार करने के लिये महादेवजी को प्रसन्न करके स्वर्गलोक से गंगाजी को लावेगा। यह यज्ञीय अश्व तुम प्रसन्नता से ले जाओ। कपिलजी के इस प्रकार कहने पर अंशुमान् घोड़ा लेकर राजा सगर की यज्ञशाला में आया और उसने उनके चरणों में प्रणाम किया। उन्होंने अंशुमान का बड़ा आदर किया और अपना अधूरा यज्ञ पूरा किया। अन्त में अपने पौत्र पर राज्य का भार छोड़कर स्वयं स्वर्ग सिधारे। महात्मा अंशुमान ने भी अपनेपितामह के समान ही पूरे भूमण्डल का पालन किया। उनके दिलीप नाम का धर्मात्मा पुत्र हुआ। उसे राज्य सौंपकर अंशुमान् भी परलोकवासी हुए। दिलीप को जब अपने पितृगण के विनाश की बात मालूम हुई तो उनके हृदय में बड़ा संताप हुआ। वे उनके उद्धार का उपाय सोचने लगे और गंगाजी को लाने के लिये बहुत प्रयत्न किया। परन्तु बहुत चेष्टा करने पर भी वे सफल न हो सके। उनके परम ऐश्वर्यशाली और धर्मपरायण भगीरथ नाम का पुत्र हुआ। उसे राज्य पर अभिषिक्त कर दिलीप वन में चले गये और वहाँ कालवश तपस्या के प्रभाव से स्वर्गवासी हो गये। राजा भगीरथ को जब मालूम हुआ कि कपिलजी के कोप से उनके पितृगण भस्म हो गये हैं तो वे बड़े दुःखी हुए और अपना राज्य मंत्री को सौंपकर तपस्या करने के लिये हिमालय पर चले गये। वहाँ उन्होंने फल-मूल और जल का आहार करते हुए देवताओं के एक हजार वर्ष तक घोर तपस्या की। एक हजार दिव्य वर्ष बीतने पर महानदी गंगा ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया और कहा, 'राजन् ! तुम मुझसे क्या चाहते हो ? बताओ, मैं तुम्हे क्या दूँ ? तुम जो कहोगे, वही करूँगी।' गंगाजी के इस प्रकार कहने पर राजाजा ने उनसे कहा, 'हे वरदायिनी ! मेरे पितृगण महाराज सगर के साठ हजार पुत्रों को कपिल मुनि ने भस्म करके यमलक भज दिया है। हे महानदी ! जबतक आप अपने जल से उनका अभिषेक नहीं करेंगी, तबतक उनकी सद्गति नहीं हो सकती। राजा भगीरथ की बात सुनकर गंगाजी ने उनसे कहा, ऱाजन् ! मैं तुम्हारा कथन पूरा करूँगी, इसमें तो संदेह नहीं; किन्तु जिस समय मैं आकाश से पृथ्वी पर गिरूँगी, उस समय मेरा वेग असह्य होगा। तीनों लोकों में ऐसा कोई नहीं है जो मुझे धारण कर सके।हाँ, एक देवाधिदेव नीलकण्ठ भगवान् शंकर अवश्य मुझे धारण करने में समर्थ हैं। तुम तप करके उन्हें प्रसन्न कर लो। जब मैं पृथ्वी पर गिरने लगूँगी तो वे ही मुझे अपने मस्तक पर धारण कर लेंगे। यह सुनकर महाराज भगीरथ कैलाश पर गये और कुछ काल तक तीव्र तपस्या करके उन्होंने महादेवजी को प्रसन्न कर उनसे उन्होंने गंगाजी को धारण करने के लिये वर प्राप्त किया। भगीरथ को वर देकर भगवान् शंकर हिमालय पर आये और वहाँ खड़े होकर उनसे कहने लगे, 'महाबाहो ! अब तुम पर्वत राजपुत्री गंगा से प्रार्थना करो, मैं स्वर्ग से गिरने पर उसे धारण कर लूँगा।' यह सुनकर महाराज भगीरथ सावधान होकर गंगाजी का ध्यान करने लगे। उनके स्मरण करते ही पवित्रसलिला गंगाजी महादेवजी को खड़े देखकर आकाश से गिरने लगी। उन्हें गिरते देखकर देवता, महर्षि, गन्धर्व, नाग और यक्षलोक उनके दर्शन की लालसा से वहाँ एकत्रित हो गये। श्रीमहादेवजी के मस्तक पर वे इस प्रकार गिरीं मानो स्वच्छ मोतियों की माला हो।भगवान् शंकर ने उन्हें तत्काल धारण कर लिया। तब श्रीगंगाजी ने भगीरथ से कहा, 'ऱाजन् ! मैं तुम्हारे लिये पृथ्वी पर उतरी हूँ; अतः बताओ, मैं किस मार्ग से चलूँ ?' यह सुनकर राजा उन्हें उस स्थान पर ले गये, जहाँ उनके पूर्वजों के शरीर भस्म हुए थे। गंगाजी के जल से समुद्र तत्काल भर गया। राजा भगीरथ ने उन्हें अपनी पुत्री मान लिया। फिर सफल मनोरथ होकर राजा भगीरथ ने गंगाजल से अपने पितरों को जलांजली दी। इस प्रकार जिस तरह समुद्र को भरने के लिये गंगाजी पृथ्वी पर पधारीं, यह सब वृतांत महर्षि लोमश ने धर्मराज युधिष्ठिर को सुनाया।
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