Tuesday 18 August 2015

सभापर्व---भगवान् श्रीकृष्ण की अग्रपूजा

भगवान् श्रीकृष्ण की अग्रपूजा
    यज्ञ के अन्त में अभिषेक के दिन सत्कार के योग्य महर्षि, नारद आदि महात्मा राजर्षियों के साथ शोभायमान हो रहे थे। धर्मराज की राज्यलक्ष्मी और यज्ञविधि देखकर देवर्षि नारद को बड़ी प्रसन्नता हुई। क्षत्रियों के समूह को देखकर उन्हें पहले की वह घटना याद आ गयी, जो भगवान् के अवतार के सम्बन्ध में ब्रह्मलोक में हुई थी। उन्हें राजाओं का समागम ऐसा जान पड़ने लगा कि इन रूपों में देवता ही इकट्ठे हुए हैं। अब उन्होंने मन-ही-मन कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण का स्मरण किया और सोचने लगे कि भगवान् नरायण ने अपनी प्रतीज्ञा पूर्ण करने के लिये क्षत्रियों में अवतार ग्रहण किया है। देवराज इन्द्र आदि समस्त महान् पुरुष जिनके बाहुबल की उपासना करते हैं वही प्रभु यहाँ मनुष्य के समान बैठे हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ही समस्त यज्ञों के द्वारा अराध्य, सर्वशक्तिमान एवं अन्तर्यामी हैं। इस प्रकार के विचार में देवर्षि नारद डूब गये। उसी समय महात्मा भीष्म ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा, अब तुम समस्त राजाओं का यथायोग्य सत्कार करो। आचार्य, ऋत्विज, सम्बन्धी, स्नातक, राजा या प्रिय व्यक्ति को, यदि वे एक वर्ष अपने यहाँ आवें तो, विशेष पूजा अर्धदान करना चाहिये। ये सभी लोग हमारे यहाँ बहुत दिनों के बाद आये हैं, इसलिये तुम सबकी अलग-अलग पूजा करो और इनमें जो सर्वश्रेष्ठ हो, उसकी सबसे पहले। धर्मराज ने पूछा, पितामह कृपा करके बतलाइये, इन समागत सज्जनों में हमलोग सबसे पहले किसकी पूजा करें। आप किसे सबसे श्रेष्ठ और पूजा के योग्य समझते हैं। शान्तनुनन्दन भीष्म ने कहा, धर्मराज, पृथ्वी में यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण ही सबसे बढकर पूजा के पात्र हैं। क्या तुम नहीं देख रहे हो कि उपस्थित सदस्यों में भगवान् श्रीकृष्ण अपने तेज बल और पराक्रम से वैसे ही ददीप्यमान हो रहे हैं, जैसे छोटे-मोटे तारों में भुवन-भास्कर भगवान् सूर्य।भीष्म की आज्ञा मिलते ही प्रतापी सहदेव ने विधिपूर्वक भगवान् श्रीकृष्ण को अर्ध्यदान किया और श्रीकृष्ण ने शास्त्रोक्त विधि के अनुसार उसे स्वीकार किया। चारों ओर आनन्द मनाया जाने लगा। 

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